रेहन पर पाँच बेटे

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Bhumika Dwivedi

आज, कई दिनों बाद तेज़ धूप निकली थी. इतने दिनों से सिर्फ़ बदली ही छाई थी. बरसात के मौसम में ये सब लगा रहता है, लेकिन आज आसमान साफ़ हुआ था. इसलिये आज कहीं जाकर जाल फेंका जा सका. लेकिन कोई हाथ नहीं आया. इसलिये, बढ़ी हुई नदी में गोताखोर उतारे गये.. यमुना वैसे ही बड़ी गहरी नदी है, उस पर से बरसात में तो और भी बढ़ गई थी. फ़िर भी एक-एक कर तीन गोताखोर उतरे.. तीनों ही करीब बीस-पच्चीस मिनट के बाद बाहर आये, और एक-एक, लाशें कन्धों पर लटका कर साथ लाये थे, जो कि बेहद ही गली हुईं थीं.
बस मांस के लोथड़े जैसे लटके हुये थे. चेहरे तो घिस कर चिकने पत्थर ही हो गये थे. ना नाक समझ आती थी, ना होंठ, ना कान.. भला कैसे पहचाना जाता कि किसकी है. पानी में पड़े-पड़े ये सभी लोथड़े फूल-फूल गये थे.
गले हुये उन लोथड़ों में से किसी एक की आंख के बड़े-से गढ्ढे में से ढेरों पानी के कीड़े निकले आ रहे थे जैसे चींटी के किसी बिल में पानी भरने से फ़ौरन चींटियों का रेला बाहर दिखने लगता है ठीक उसी तरह. इस लाश को पानी के जानवर आधे से ज़्यादा खा चुके थे. उसे देखते ही, पसीने से तर-बतर शुभम ने फ़ौरन ढेर सारी कै उलट दी. पहचानना तो दूर की बात थी, इस सड़े-गले वीभत्स शव को तो देखना भी दुरूह मालूम पड़ रहा था. आस-पास खड़े गोताखोर और पुलिस वालों के लिये तो ‘पार्ट औफ़ ड्यूटी’ था, इस लिये उन्हें ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था.
फ़िर दूसरी लाश पर सबकी निगाह गई.. पूरा नंगा, एकदम ही काला दुबला, झुर्रियों वाला बुरी तरह से ऐंठा बदन. नहीं, नहीं ये नही हो सकता, ये तो साठ बरस से भी ज़्यादा किसी बूढ़े का शरीर लग रहा था. ये तो हो ही नहीं सकता था. वो तो सोने-सा चमकता हुये रंग वाला है. बड़ा-ही सुन्दर-प्यारा सा है.. पतले-पतले लाल होंठ हैं, वो तो नादान-नटखट पन्द्रह बरस का मोहिल-सा बच्चा है.. शुभम को उसकी मनोहारी छवि याद आई, और उसकी आंखों में पानी भर आया.
तीसरी लाश सामने लाई गई. ये नई लग रही थी. मुंह का आकार छोटा था, काठी भी लम्बी-दुबली लग रही थी. और रंग, रंग भी झक्क गोरा था. इसे पानी में डूबे ज़्यादा दिन नहीं हुये थे, ऐसा गोताखोरों का कहना था. शक़्ल फ़िर भी चीन्ही जाने लायक नहीं थी. उसकी लम्बी पतली टांगें देखकर, पुलिसवालों में से एक ने पूछा.
“ घर से निकलते वक़्त उसने जूता पहना था, के चप्पल ?”
शुभम का सिर दर्द से फटा जा रहा था. अभी-अभी दो बार कै कर चुका था. वो तो वैसे ही आधा बेहोश हो गया था. जो दोस्त, साथ गया था, उसी ने संभाला. पुलिस वाले को जवाब देने के लिये घर फोन लगाया गया.
घर में तो मुर्दानग़ी पहले ही छाई थी. इस फोन की घण्टी ने कुछ ऐसी अनकही ख़बर जैसे आवाज़ लगाई, जैसे ‘बौडी’ मिल गई है, अंतिम-यात्रा के लिये घर वाले सामग्री जुटा लें.
जब कुछ मिनट तक घण्टी बजती रही, और किसी की भी हिम्मत फोन रिसीव करने की नहीं पड़ी, तब मजबूत दिल के एक पड़ोसी ने फोन उठाया, और फ़िर उसने कहा, “ पूछ रहें हैं कि जूते पहन के निकला था, या चप्पलें….”
सौतेली मां ही चौधरानी बनी, आगे आयी, “ चप्पल पहने था.. यहीं चौराहे की दुकान तक का तो कहकर गया था. हां चप्पल ही पहने था..”
सगी मां पत्थर बनी बैठी थी, बोल कहां से फूटे.. उसने तो घर के भीतर क़दम भी नहीं रखा था.. बाहर बरामदे में ही बुत बनी बैठी, सारी नैराश्य में डूबी हलचलों को देख रही थी.
जब सगी मां को घर से निकाला गया था, उस वक़्त उस नादान-दुलारे की उम्र महज तीन बरस थी. उस गोद के बच्चे को आज किशोर हुआ देखती, लेकिन ख़बर मिली ये कि वो लापता है. अख़बार में ख़बर पढ़कर पता चला कि बच्चा दस दिन से ग़ायब है. ‘रुद्राक्षम’ ये नाम तो पूरे शहर में उसका अकेला ही था. कोई दूसरा कहां था, नागपंचमी को जन्मा था, तभी तो चुनकर ‘पंडितजी’ ने ये नाम दिया था. कैसा नाम दिया था ‘पंडितजी’ ने.. जैसा उसका नाम, उस शहर में, कोई अन्य नहीं था ठीक उसी तरह, उस जैसा अभागा भी दूसरा ना था. बच्चा-सा था तो सौतेली-मां की गोद में जा गिरा. धक्के मार कर निकाली गई, सगी मां आज बारह साल बाद आयी भी वापस इस देहरी पर, तो वो भी ये ख़बर जानकर. ख़बर पढ़ते ही दौड़ी-दौड़ी इस मनहूस दरवाज़े पर आयी थी, और रहस्यमयी गहमागहमी देखकर बरामदे में खड़ी रही.. सौतेली मां ने उसे देखा तो मुंह चुराने लगी.. कुछ कहने का मुंह रह भी कहां गया था..

जब वो और इन दोनों का पति, इस बूढ़ी औरत को घर से निकाल रहे थे, तो यही दूसरी औरत चीख चीखकर कह रही थी, “ जा मैं पाल लूंगी. निकल जा अभी इसी वक़्त.. मेरी औलाद है, मैं पालूंगी, तेरा कुछ भी नहीं यहां, जा निकल जा.”
अपने पति की निगाह में ऊंचा बनने का सुख तो पा ही लिया, लेकिन दुर्गति तो बच्चे की हुई थी. गोद उजड़ी थी, इस लाचार मां की. उस दूसरी ब्याहता का तो कुछ भी नहीं गया. सच कहा जाये, तो उसकी राह का एक कांटा ही तो दूर हुआ था, ना.
पूरा शहर जान रहा था, ‘वक़ील साहब’ का बच्चा खो गया है. कोई कहता, “ पैसों की लालच में उठा लिया गया है…”
कोई समझाता, “ सौतेली मां ने खाने तक को रुला दिया होगा तभी घर छोड़ गया..”
किसी ने कहा, “ सगी मां के ना रहते संगत बिगड़ गई थी, कोई समझाने वाला था ही कहां घर में.. उचक्कों के संग भाग निकला..”
कोई बताता, “ संत बच्चा था, साधु-संन्यासी के फ़ेर में पड़ गया था. कोई मन्तर मार के नन्हीं-मासूम जान को ले गया.”
वक़ील साहब का रुआब और पैंतरे जानने वाले कहते, “ कोई नीच-कमीने ने वक़ील साहब का ग़ुस्सा बच्चे से निकाला है…”
दार्शनिक अन्दाज़ में किसी ऐसे वैसे तैसे ने फ़ैसला तक सुना दिया, “ रंजिशन उठाया गया है लड़का. देख लेना बात सामने आ के रहेगी..”
फ़िर मनोवैज्ञानिक क्यूं पीछे रहता, उसने भी ज्ञान बघारा, “ ये उमर ही नाज़ुक होती है… सौतेली क्यों संभालेगी, और वक़ील साहब के पास वक़्त कहां…”
समाजशास्त्री को भी हेकड़ी झाड़ना और विद्वता का परिचय देना, ज़रूरी लगा, ” भई बड़ा संभालना पड़ता है आजकल के बच्चों को.. ज़माना देख रहे हैं, किस दिशा में जा रहा है, कहना बड़ा मुश्किल है.. समाज, पंरम्परा, मूल्य, आदर्श, नैतिकता कहां बची है अब…”.
जितना मुंह उतनी बातें. इधर-उधर, चाय के गुमटियों, पान के ठेलों, परचून की दुकानों, सभी जगह यही एक मुद्दा ग़रम था, कि वक़ील साहब का बच्चा गायब हो गया है.. अगर पैसों की लालच में कोई उठा ले गया है तो कोई ना कोई फोन/संदेसा भी अब तक आ जाना चाहिये था. वो भी नहीं आया पूरे दस दिन बीत चुके हैं.
किसी ने रंजिशन मारा होता, तो भला बच्चे का किसी से क्या बैर हो सकता था. रही वक़ील साहब की बात तो पूरा शहर उनका बर्ताव, उनका चाल-चलन, उनका रवैया अच्छी तरह जानता है. दुई-दुई मेहरारू सामने ही बैठी हैं.. इन सबके चलते सामने से भले ही कोई कुछ ना बोले, लेकिन पीठ पीछे सारे ही वक़ील साहब के बैरी ही हैं.
और तो और वक़ील साहब की अपनी पहली बीवी, अपनी पहली औलाद, अपने सगे भाई-बहन, नातेदार-रिश्तेदार, सभी उनके धुर विरोधी हैं. ख़ानदान में भी उन्हें कोई भी पसंद नहीं करता. कितनी ब्याह-बारातों में तो उन्हें कोई पूछता भी नहीं. लेकिन इन सबके बावज़ूद उस दुलारे-सलोने-सुन्दर लाडले से किसी को भी क्या ईर्ष्या हो सकती थी. उस मासूम को कोई कैसे छू भी सकता था. उसने किसी का क्या बिगाड़ा था.

जैसे ही ख़बर मिली कि आख़िरी बार यमुना के पुल पर टहलता देखा गया था, वहीं से पुलिसवाले, पत्रकार, करीबी जानने वाले सभी यमुना किनारे पंहुच गये. गोताखोर वहीं उसे खोज रहे थे, और बड़ा भाई बेहाल वहीं यमुना किनारे अपना हाड़ सुखा रहा था. उसके दो-एक सगे दोस्त उसके साथ वहीं उसका संबल बने, खड़े हुये थे.
कहते हैं, यमुना नदी के भीतर नागों का जमावड़ा रहता है. नागपंचमी की रात जन्मे इस नादान को भी क्या यमुना लील गई थी. आख़िर कहां चला गया रुद्राक्षम. किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, और कुछ भी, कोई भी एक बात कहना कठिन हो गया था.
सब एक-एक कर निराश होकर लौट गये, जब कोई भी लाश बच्चे से मिलती नहीं दिखी. लेकिन घरवालों के दिल में रुद्राक्षम के जीते रहने की उम्मीद की लौ फ़िर टिमटिमाने-सी लगी. पूरा घर-बार फ़िर बच्चे की ख़ोज में जुट पड़ा.

वक़ील साहब दमड़ी-दमड़ी बचाते फ़िरते थे, तिनका-तिनका जोड़ते थे, पहली बीवी की क़ूबत से गृहस्थी खिंच रही थी. लेकिन वक़ील साहब अपनी करके माने. दूसरी ले आये. और आज दस लाख रुपये के तो केवल पोस्टर छाप दिये गये, जिसमें रुद्राक्षम की तस्वीर बनी थी. जिन्हें शहर के कोने-कोने में चिपका दिया गया और खोजने वाले को अस्सी लाख और महज पता बताने वाले को बीस लाख दिये जाने का ऐलान किया गया.
हज़ारों की तादाद में फोन आये, सैकड़ों की संख्या में गाड़ियां हर दिशाओं में दौड़ाई गईं. पुलिस हरसम्भव प्रयास करती रही. ख़ास तौर से एस.टी.एफ़. गठित की गई. अख़बार और टी.वी. चैनलों में ‘रुद्राक्षम लापता काण्ड’ का जैसे रोज़ाना का कौलम ही बन गया.
अनगिनत लोगों से पूछताछ हुई. बेशुमार लोगों से सम्पर्क किये गये, पता नहीं कितनों को डराया-धमकाया गया, जेल में ठूंसा गया लेकिन नतीजा सिर्फ़ और सिर्फ़ सिफ़र रहा.
उस बच्चे का कोई भी सुराग़, कोई भी चिन्ह, कोई भी एक सूत्र नहीं ही मिला. हर तरफ़ चर्चा शान्त होने के बजाय, मामला दिन-ब-दिन ग़र्म होता गया. हल्ला बढ़ता गया. हर तरफ़ यही एक शोर था कि वक़ील-साहब का सबसे छोटा बेटा ग़ुम गया है. वही रुद्राक्षम बेटा जिसकी दो-दो मांएं थीं. अब तो वक़ील-साहब की तीसरी औरत जिसे वो रख़ैल बना के कहीं लुका-छुपा के रखे थे, उसकी बातें भी सामने आने लगीं. सारा लुका-छुपा कच्चा-चिठ्ठा आम होने लगा, सिर्फ़ एक नादान क़मसिन बच्चे के बहाने.
पुलिस अपना काम तेज गति से कर रही थी, क्योंकि वक़ील-साहब के अनुनय-विनय को जजेज़ टालते नहीं थे, इसलिये हाईकोर्ट से तीख़ा निर्देश मिलते ही पुलिस को ज़ाहिर तौर पर तेज होना ही पड़ता था. घरवाले अपने प्रयासों पर आमादा थे. महा-मृत्युजंय जाप बिठाया गया.
पंडितों की, ओझाओं की, औलियाओं की और कुछ चिरकुट रिश्तेदारों, वगैरह-वगैरह की भी तो लाटरी ही लग गई थी. क्या जीजा, क्या जीजा का कुनबा, सभी धधकती चिता में हाथ सेंक रहे थे, और खूब कमा-खा रहे थे. यही तो सुनहरा मौक़ा हाथ आया था, वरना वक़ील साहब से कोई फूटी कौड़ी भी नहीं निकलवा पाता था. अपनी स्वार्थ-सिद्धी के लिये, हर कोई नई तरह से अपने नये-नये प्रयोग कर रहा था.
कोई बड़ा-सा आईना सामने रखकर उसमें जाने, क्या-ना-क्या देख लेता और फ़िर बड़े आवेश में चिल्लाकर कहता,
“ तुम्हारा बेटा वो जा रहा है.. देखो इसमें दूर तक देखो.. वो चला जा रहा है.. उसे कलकत्ते वाली माता ने बुलाया है. वो कलकत्ते की दिशा में मिलेगा..”
बेचारा सगा बड़ा भाई अभिन्न दोस्तों के साथ गाड़ी लिये कलकत्ता रवाना होता. कलकत्ते के रास्ते में हर सम्भव जगहों पर पूछता जाता… पुलिस का स्पेशल टास्क फ़ोर्स वक़ील-साहब के बताये रास्तों पर जाता. लेकिन फ़िर, फ़िर भी कुछ हासिल ना होता.
कोई ओझा बच्चे के जीजा को अचानक फ़तेहपुर में फ़लां मज़ार के आस-पास भेज देता. और जीजा मय अपने लफ़ंगे दोस्तों, वक़ील-साहब से भरपूर धन उगाही करके मौज-मस्ती करने निकल पड़ता. अरे इतने बड़े घर-ख़ानदान की बेटी ऐसे ही दिनों के लिये तो फ़ांसी थी.
कोई भी इस मौक़े को हाथ से निरर्थक क्यूं जाने देता. किसी ने ताबीज़ बंधवाया, किसी ने गण्डा पहनवाया. किसी ने चांदी के छत्र चढ़वाये तो किसी ने ग्यारह सौ नारियल फ़ोड़वाये. किसी को चिलम-गांजा चाहिये था, तो कोई को तैंतीस बकरों की बलि चाहिये थी. किसी ने इत्र का स्नान ख़ुद किया और पिता को करवाया. किसी ने कोरा घड़ा मंगवाया, उसमें रुद्राक्षम का पहना हुआ कपड़ा गर्भ में रखे हुये भ्रूण की तरह कई विधि-विधान करके रख दिया, और माता को कोई विचित्र-सा मन्त्र दिन भर में इक्कीस बार, घड़े के सामने बैठकर पढ़ने को कहा. उसका कहना था, इस मन्त्र के उच्चारण से ‘ बच्चा मां की ओर खिंच कर आ जायेगा..’ सौतेली मां को प्रेम दिखाने का मौक़ा मिला और लगी वो भी मन्त्र बांचने. बच्चा खिंचेगा या नहीं, अगर खिंचा भी तो किधर खिंचेगा.. वास्तव में खिंचेगा या फ़िर और दूर से और दूर चला जायेगा. किसी ने एक सौ एक परिक्रमा यहां, वहां, न जाने कहां-कहां करवाईं.
किसी ने पूरे परिवार को भोर में सुबह के चार से छ्ह बजे तक, बासी मुंह श्मशाम के किनारे रोज़ाना, इक्कीस दिन तक बुलाया और कई सारे कर्मकांड रचे.. कई बार तो वो खुद नहीं आया, और परिवार वालों के फोन करने पर कहा कि ‘बस जलपान करके आता हूं.’ पूरा परिवार भीषण गर्मी में श्मशाम के किनारे तपता रहा था.
सारे के सारे घरवाले यन्त्रवत सभी का कहा मानते चल रहे थे. उनके पास कोई और चारा जैसे रह ही ना गया हो.
इन्हीं घर की ढेर-सारी, नामालूम कितनी-कितनी फ़ज़ीहतों से रुद्राक्षम निकला होगा.. आत्महत्या भी अगर उसने की होगी, तो यही सारा रोज़ का ड्रामा देखकर की होगी.
सगी मां बूढ़ी हो गई थी, इतनी सबल, इतनी सक्षम नहीं रह गई थी कि अपने जिगर के टुकड़े को अपने पास रख सके, दो रोटी खिला सके. उसका तो कोई अपना ख़ुद का ही ठिकाना नहीं था, तो भला इस फूल जैसे बच्चे को कहां रखती. इसी लिये, दिल पर पत्थर रखकर कसाई-बाप के पास छोड़ना पड़ा था. अगर वो बूढ़ी ना हुई होती तो, वक़ील साहब को क्या पड़ी थी कि दूसरी घर आते, उन्हें तो हमेशा जवान औरत चाहिये थी, वो भी विवश थे.. घर छोड़ते वक़्त बूढ़ी मां बार-बार लाडले को समझाती रही थी,
“ पापा के पास रहो बेटा, वहीं खाना मिल सकेगा, वहीं पढ़ाई हो पायेगी.. वहीं कार-मोटर में घूमेगा मेरा चन्दा.. मेरा बेटा मेरी बात मान लेगा.. वो अपनी अम्मा को दुख नहीं देगा.. मेरे साथ कहां-कहां फ़िरेगा मेरा लाल.. किस-किसके दरवाज़े भीख मांगेगा…”
जब मन्त्र पढ़ने के लिये घड़े के सामने बैठती तो यही सोचती कि,
“ भले ही भीख मांगती और बच्चे को भिखारिन का बेटा कहलवाती, लेकिन साथ रखती वही बेहतर होता. कम से कम आज मेरे लाल का मुंह तो मैं देख पाती.. पता नहीं इस डायन ने क्या बर्ताव किया मेरे चांद से बच्चे के साथ, कि आज उसकी एक झलक को तरस गई मैं..”
सौतेली मां को लाख-लाख गालियां दिल-ही-दिल में दे रही थी, लेकिन चुप बैठी बच्चे के वापस आने की बाट जोह रही थी.

वक़ील साहब के यूं तो और भी चार बेटे थे, लेकिन ये सबसे छोटा उनका सबसे दुलारा था. वो था भी बड़ा मोहिल. अजनबी भी उससे मिलता तो उस पर प्यार लुटाये बिन नहीं रह पाता था. वक़ील साहब को जैसे एक भ्रम ये भी बैठा था कि इसी रुद्राक्षम के आने के बाद से उनकी तिजोरी अचानक ज़्यादा भर गई थी. परमात्मा जाने ये सच था या कि निरा भ्रम, लेकिन वो आया और जैसे कोई ख़ज़ाना साथ लेकर आया. ये बात जग-ज़ाहिर थी. यही कारण था कि वक़ील साहब ने उसकी ख़ोज-ख़बर के लिये पैसों के लिहाज से रत्ती भर भी कोताही नहीं बरती.
रुद्राक्षम के गायब होने से वक़ील साहब ऐसा मानते थे, जैसे उनकी तिजोरी में सेंध लग गई थी और उनका ख़ज़ाना ख़ुद-ब-ख़ुद ख़ाली होने लगा था. उनके ख़ानदानी बाप-दादाओं ने भी माशाअल्लाह अकूत दौलत जमा कर रखी थी, लेकिन रुद्राक्षम क्या गया, सब कुछ जैसे ख़ुद-ब-ख़ुद घटने लगा.
नाम-यश-सम्पदा-रौनक तो जो डूबी सो डूबी ही, दिल भी पूरा का पूरा जैसे टूट गया वक़ील साहब का. वक़ील साहब को ना दिन में चैन था ना रात में आराम. रुद्राक्षम जितना सूरत से कंटीला और सुन्दर था उतना ही चितवन का बांका और छबीला था. सगी मां से दूर उसने बाप के दामन में ही अपने लिये महीन किनारा पा लिया था. वो वक़ील साहब से चिपका रहता था. “ कोर्ट से मेरे लिये क्या लाये पापा..”
“ पापा कोर्ट जाईयेगा तो अपनी बन्दूक साथ ले जाईयेगा, फ़िर आपको कोई हरा नहीं पायेगा…” “ पापा ये देखो मैंने आपके उस फ़लां-फ़लां मुवक्क़िल की कैसी तस्वीर उतारी है…” “पापा ये, पापा वो…” “पापा यहां, पापा वहां…” मां के साथ होने वाली सारी-सारी शरारतें-चुहलें सब वो लाडला रुद्राक्षम वक़ील साहब के साथ ही तो करता रहता था.
वकील साहब को ये भी याद आता कि यदा-कदा रुद्राक्षम घर के कोने-अंतड़े में पड़ी अपनी मां की साड़ी वो उनके पास ले आता था और कहा करता था, “ पापा देखो, इसमें से मम्मी की महक आती है..”
वकील साहब का दिल ये सब याद कर-करके भर आता था, वो घण्टों चिन्ता में डूबे ख़ामोश बैठे जाने क्या-क्या सोच रहते थे. उनका जीवन जैसे सिर्फ़ रुद्राक्षम के बग़ैर रुक गया था.
ये सच भी था, सौतेली मां से उस बच्चे का ज़्यादा बात-व्यवहार नहीं था, वो तो बस “पापा-पापा” करता बड़ा हो रहा था. वक़ील साहब को उसकी तमाम बाल-सुलभ बातें याद आतीं तो वो बहोत ही ज़्यादा बेचैन होकर टहलने लगते. कभी रात-बेरात कार स्टार्ट करते और अकेले ही यमुना के किनारे रुद्राक्षम को जैसे ख़ोजने निकल पड़ते. वक़ील साहब की बेचैनी का कोई पारावार नहीं था. दिन-दोपहरी मन ही मन रुद्राक्षम की आवाज़ सुन लेते तो मारे तक़लीफ़ के दारू चढ़ाने लगते. धीरे-धीरे करते जब रात सिर्फ़ काली-काली दिखने लगती और नींद आंखों को छू भी ना पाती तो वक़ील साहब दारू की बदौलत ही घण्टा-दो-घण्टा सोने का प्रयास करते. वक़ील साहब का मन वक़ालत से जैसे उचट गया था. कई मुव्वक़िल अपनी फ़ाइल ले लेकर लौट गये थे. लेकिन वक़ील साहब को इसकी ज़रा परवाह नहीं हुई थी.. उनका जी कहीं-कहीं-कहीं नहीं लगता था. वक़ील साहब यदा-कदा अपना जी लगाने इधर-उधर की औरतों के पास भी हो आते थे, लेकिन अला-भला वहां भी कुछ ज़्यादा ना हुआ. वक़ील साहब को बस रुद्राक्षम की एक झलक चाहिये थी, और कुछ भी नहीं. रुद्राक्षम का हंसता-खिलखिलाता चेहरा याद करते तो चढ़ी हुई, उनकी दारू भी दिमाग़ से उतर जाती.
इन्हीं बेहद संजीदा हालातों और बेहिसाब तक़लीफ़ों के दौर से गुज़रते हुये वक़ील साहब को एक दिन कुछ ख़ास, कुछ अलग सूझा. वो एक दिन रुद्राक्षम की असली मां के मामूली से किराये के मकान पर जा पंहुचे. हर तरफ़ से टूटी हुई मां, अकेली बैठी गीता का पाठ कर रही थी.
मां ने वक़ील साहब को देखते ही दुखी मन से एक ही वाक्य बोला,
“ कुछ पता चला ?”
“ नहीं..” वक़ील साहब ने ख़ुद को दृढ़ बनाने की चेष्टा करते हुये कहा.
“ फ़िर अब क्या लेने आये हैं..” मां ने निरपेक्ष भाव से कहा.
कोई मैल-मलिनता रखने की जगह दिल में बची भी कहां थी. पहाड़ जैसा दुख जो समाया हुआ था, शायद, दोनों के ही दिल में.
“ तुमसे कुछ बात करनी थी…” वक़ील साहब ने साहस बटोर कर कहा.
“ कहिये..” वो भारी मन वाली मां को तो वक़ील साहब को बिठाने या अन्दर आने को, कहने की सुध भी नहीं रही.
वक़ील साहब ख़ुद ही अन्दर चले आये. मेज़ पर, बिस्तर पर और उस छोटे-से कमरे के हर कोने में लाल स्याही से ‘राम-राम’ लिखे बेहिसाब पन्ने और ढेर सारी किताबें फ़ैली हुईं थीं, जिनमें किताबें भी ज़्यादातर धार्मिक ही थीं.
वक़ील साहब ने अपने लिये जगह बनाई और शान्ति से साधारण-सी चारपाई पर बैठ गये.
वक़ील साहब ने ख़ुद पानी मांगकर पिया और बिना कोई भूमिका बांधे, फ़ैली हुई, नीरवता को उन्होंने भंग किया.
“ देखो, तुम्हारे साथ मैंने बड़ा अपराध किया है. मुझे अपने किये का पता है, और सन्ताप भी. अब बहोत हुआ, मैं पश्चाताप करना चाहता हूं. मैं समझ सकता हूं जो दुख-तक़लीफ़ तुम्हें मैंने दीं हैं. मेरा बच्चा चला गया, कोई नहीं बता पाया कि वो कहां गया, कैसे गया, क्यूं गया. मेरे बच्चे के बग़ैर, और ख़ुद मेरे ही कुकर्मों के चलते आज मैं मरने की क़ग़ार पर आ ख़ड़ा हुआ हूं… मुझे लगता है मेरा रुद्राक्षम सिर्फ़ तुम्हारे कारण ही, तुम्हारे साथ किये हुये, हज़ार दुर्व्यवहारों की वजह से ही, मेरे पास न रह सका. तुम उसकी अपनी मां थीं. तुमने ही उसे जन्मा था. और तुम्हें ही घर से निकाल दिया मैंने.. सच में, बड़ा पाप किया है मैंने….”
वक़ील साहब धारा-प्रवाह बोले जा रहे थे और रुद्राक्षम की मां की आंखों से आंसुओं के धारे, उसी रफ़्तार से प्रवाहित हुये जा रहे थे.
दोनों ही समान रूप से जारी थे.
“…….. मेरा ऐसा मानना है कि अब मुझे अपनी ग़लती जल्द से जल्द सुधार लेनी चाहिये.. तुम मेरे पांच सुन्दर और सुयशी बेटों की मां हो. सारा दोष मेरा है, उस दूसरी औरत का भी नहीं.. ये सिर्फ़ मेरा अकेले का दोष है.. मुझे तुम्हारा ऐसा निरादर नहीं करना चाहिये था.. तुम्हारे रहने से ही मेरा घर आबाद था, मेरा घरबार समृद्ध था. मेरे बच्चे खेल-खा रहे थे. वो सब पढ़ रहे थे, बढ़ रहे थे. अगर तुम मुझे कुछ भी समझती हो, रत्ती भर भी अगर तुम्हें मेरी फ़िक्र है तो मुझे माफ़ कर दो.. इन्सानियत के नाते मुझे माफ़ कर दो.. मेरे सिर पर लगा ये कलंक मिटा दो… मेरी शान्ति, मेरा सुक़ून, मेरा बसा हुआ घर मुझे लौटा दो.. तुम अपने घर लौट चलो. तुम घर आ जाओ तो क्या पता मेरा हीरा, मेरा मोती, मेरा चांद, मेरा सूरज, मेरा लड़का मेरे पास लौट आये… यही बिनती करने आया हूं तुम्हारे दरवाज़े….”
इतना कहते-कहते वक़ील साहब रो पड़े.. ये वही वक़ील साहब हैं, जिनके घमण्ड की कोई सीमा नहीं, जिनके अहम और क्रूर बर्तावों की उस शहर में कोई सानी नहीं. हर किसी को अपने आगे दो कौड़ी का जताना जिनका सबसे मशहूर शगल रहा है. आज उनके रोने की भी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही. बस आंसू बहे जा रहे हैं, आंसू पर आंसू बहे जा रहे हैं.
मूक पछतावा, मौन प्रायश्चित, नीरव पश्चाताप.
फ़िर कमरे को जैसे दोबारा मौत आ गई हो.
एकदम वही सन्नाटा फ़िर से पसर गया, जो पहले से वहां मौजूद था. मां के आंसू धीरे-धीरे बहते रहे, लेकिन किसी तरफ़ से, आवाज़ कोई भी ना आयी.
कुछ देर बाद मां ने अपने आंसू पोछे और बड़ी ही सधी हुई गति में बोलना शुरू किया,
“ माफ़ी मत मांगो. तुम्हारा झुका हुआ सिर अच्छा नहीं दिखता.. इस शहर में तुम बड़े शान से जीते आये हो.. इस लिये निराश न रहो… बच्चे का बहोत दुख तुम्हें है, मैं जानती हूं. बारह साल से तुम्हीं तो कमा-खिला रहे थे उसे. तुम्हीं ने पाला था अब तक.. तुम्हीं उसे बड़ा कर रहे थे.. अब जी छोटा ना करो. तुमने मुझे घर से निकाला तो मैं भी तो चली आयी थी. देखो, उस बच्चे की तरफ़, यहां मैं भी दोषी हूं.. वहीं तुम्हारी देहरी पर प्राण दे देने चाहिये थे, ऐसा तो नहीं किया था ना मैंने. लेकिन अब.. अब बहोत देर हो चुकी है.. अब यहीं, इसी झोपड़ी में ट्यूशन पढ़ाती हूं और नमक-रोटी खाकर भगवान का नाम लेती हूं.. यहीं पड़ा रहने दो मुझे..
और, देखो, वो जो दूसरी है, अब… उसके लिये भी तो तुम्हारी ही सारी ज़िम्मेदारी बनती है. अब उसे इस उम्र में कहां फेंकेगो. उसका तो कोई बेटा भी नहीं… बस बेटी हैं. आज नहीं तो कल उसकी भी शादी-ब्याह करना ही होगा तुम्हें..
मेरा घर-संसार जो उजड़ा सो उजड़ा.. अब उसका तो मत उजाड़ो.. उसका मान बना रहने दो.. इसी में तुम्हारा मान है….
मैं तुम्हारे पास अपने पांच लड़के रेहन रखकर आयी थी, वही धरोहर थी मेरी, मेरी कुल जमा पूंजी भी वही हैं. देखो वक़ील साहब, अब जब मेरे पांचों लड़कों को मैं सही-सलामत देखूंगी तुम्हारे पास, तो एक दिन लौट के चली आऊंगी. जब तक देह में कूबत है, मुझे अपनी कमाई रोटी खा लेने दो.. मैं फ़िर कहती हूं, अपना जी छोटा ना करो. मैं यहां बैठी भी तुम्हारे घर को दुआ और नेकनियामत ही देती रहूंगी. कोई बात नहीं कि अब मैं उस घर में नहीं. मेरे लड़के तो हैं ना. बस, तुम यही समझ लो कि उन बेटों के रूप में, उनकी मां हर वक़्त वहां उसी घर में मौजूद है……….
रही बात रुद्राक्षम की, तो जो कुछ भी तुमसे बन पड़ रहा है, वो तो तुम कर ही रहे हो. करते रहो, और मैं तुमसे क्या कहूं… सी.बी.आई की जांच चल ही रही है.. क्या पता कोई दिन सामने आकर मुस्कुरा ही हमारा लाल….”
वक़ील साहब मूर्ति बने सब सुनते रहे और रुद्राक्षम का नाम आते ही फ़िर उनकी आंखें डबडबा आयीं.
रुद्राक्षम की मां ने अपना मजबूत निर्णय सुना दिया था. दोनों मियां-बीवी का दुख एकदम एक समान था. कोई भी किसी को क्या धीरज बंधाता, या क्या नसीहतें देता. दोनों तक़लीफ़ के मारे बस अपनी-अपनी बात कहकर दिल से हल्का होने की कोशिश कर रहे थे..
वक़ील साहब को जब ये यक़ीन हो गया कि वो बूढ़ी स्त्री, जो कि उनकी पहली बीवी और उनके पांच बेटों की मां है, वो वापस उस घर नहीं जायेगी, जहां से उसे प्रताड़ित और बेइज़्ज़त करके ख़ुद वक़ील साहब ने निकाला है, तो फ़िर कुछ देर के इन्तज़ार के बाद, आख़िरकार वो उठ कर खड़े हो गये.
और चुपचाप बोझिल क़दमों से बाहर निकल आये.
बूढ़ी महिला कुछ भी ना बोली, किसी भी औपचारिकता की ना तो ज़रूरत थी, ना ही कोई प्रश्न. कोई भी वहां अजनबी कहां था.
सारे रिश्ते, सारे सम्बन्ध, सारे कर्म-कुकर्म, सारा किया-धरा, सब कुछ तो सामने था. शीशे-सा एकदम ही पारदर्शी था, स्पष्ट था. कुछ भी किसी को बताने की, पूछने की, समझाने की, और जताने की ग़रज़ भी अब शेष नहीं थी.
वक़ील साहब के क़दमों का बोझ बेटे के मातम का था, बेटे की मां का उन्हें वास्तव में माफ़ ना करने का था, अय्याशी छूटने के भय का था, या फ़िर वक़ील साहब को बार-बार, अपनी ख़ाली होती तिजोरी का ख़्याल आ रहा था…
पता नहीं, वक़ील साहब के ये, प्रायश्चित के भारी क़दम थे और सच में उनके ह्रदय में हल्का-सा भी पश्चाताप था कहीं, कहना निहायत ही दुष्कर है.
क्योंकि मां का दुख तो साफ़ था, किसी भी कैसे भी आडम्बर से दूर, एकदम शुद्ध था. उसे ना वक़ील-साहब की वैभव-सम्पदा-नाम-यश-दौलत या किसी भी चीज़ की कोई दरक़ार बाक़ी रही थी, ना ही उसके बीते हुये पीड़ा, दारिद्र्य और अपमान से भरे बारह साल वापस ठीक होने थे. वो तो गुज़र चुके थे, और बूढ़ी के नरम-दिल को पाषाण बना चुके थे.
और बनाते भी क्यूं ना, सबकुछ तो गुज़र चुका था उस पर. बस एक ये ही क़सर बाक़ी थी, वो भी अब सुन लिया कि बेटा ही भरे-पूरे परिवार के बीच से उठ गया. अब तक यही एक सन्तोष लिये वो जी रही थी कि उसका हाल चाहे जितना भी दयनीय और शोचनीय हो, वो चाहे जितना भी दाने-दाने को मोहताज रही हो, लेकिन उसके जाये बच्चे तो सम्पन्न, सुखी और संतुष्ट थे. लेकिन अब तो वो तसल्ली भी दिल से जाती रही. अब उस बेचारी बुढ़िया को क्या लोभ, और किसका मोह.
दरअसल, वक़ील साहब के पास अब कुछ बचा ही ना था, जिससे वो इस बूढ़ी को फ़िर से आबाद कर पाते.
घर के बाहर कार स्टार्ट करने की आवाज़ आयी, और रुद्राक्षम की मां ने गीता फ़िर से पढ़ना शुरू कर दिया.
“ वासांसि देहानि यथा विहाय………………………………

भूमिका द्विवेदी