आरक्षण एवं जातिगत जनगणना
भारतीय संविधान की ड्राफ़्टिंग कमेटी के अध्यक्ष एवं प्रमुख निर्माता डाक्टर भीमराव अम्बेडकर भारत की जाति प्रथा के विरोधी थे। वे इस प्रथा को समाप्त कर के एक समरूप समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे संवैधानिक संस्थाओं के द्वारा वंचित लोगों के लिए अवसरों का मार्ग अग्रसर कर उन्हें समाज में समान भागीदारी देना चाहते थे। इसीलिए संविधान में निहित समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी कमज़ोर वर्गों के लिए विशेष अधिकारों का प्रावधान किया गया। आरक्षण का सिद्धांत वहीं से आता है। डॉक्टर अम्बेडकर जानते थे कि आरक्षण से विशाल भारत में वंचित जातियों के हर सदस्य को शासकीय नौकरी नहीं दी जा सकती है। उनकी सोच थी कि आरक्षण से शताब्दियों से प्रताड़ित अनुसूचित जाति और जनजाति के कुछ लोगों के उच्च पदों पर पहुँचने से इस वर्ग में सामाजिक रूप से आत्मविश्वास उत्पन्न होगा। उनके लिए आरक्षण सामाजिक उत्थान का साधन था न कि आर्थिक विकास का कार्यक्रम।संविधान में केवल 10 वर्ष के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी जिसे विवेकानुसार बढ़ाया जा सकता था। आरक्षण शासकीय सेवाओं, विधायिका तथा शैक्षणिक क्षेत्र में दिया जाना था। स्वतंत्रता के बाद भारत के अधिकांश सामान्य जन तथा प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने आरक्षण का समर्थन किया क्योंकि अनुसूचित जाति तथा जन जाति के लोग शताब्दियों से अत्याचार के शिकार थे तथा उनके के प्रति सहानुभूति थी।
स्वतंत्रता के पूर्व कोल्हापुर और मैसूर के राजाओं ने दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी।1932 की राउंड टेबल कांफ्रेंस के बाद धर्म तथा जातियों के आधार पर आरक्षण देने की बात स्वीकार की गई। डॉक्टर अम्बेडकर तथा महात्मा गांधी के समझौते के बाद हिन्दुओं के लिए आरक्षित सीटों में से अनुसूचित जाति तथा जनजातियों के लिए एसेंबली में आरक्षण दिया गया।
संविधान में शताब्दियों से वंचित अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के सामाजिक उत्थान की परिकल्पना की गई थी। 75 वर्ष बाद इन वर्गों में भी एक सशक्त वर्ग उत्पन्न हो गया है जो आरक्षण के सभी लाभ ले रहा है तथा निम्नतम तबकों को अभी तक कोई लाभ नहीं मिला है। अतः इस वर्ग के आरक्षण के अंदर ही अत्यंत वंचित जातियों को विशेष आरक्षण देने की व्यवस्था करनी होगी।
1979 में तत्कालीन जनता पार्टी ने बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान करने के लिये कमीशन गठित किया। अगले वर्ष कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दे दी।इसने हिंदुओं सहित अन्य धर्मो की 3743 जातियों (देश के 52% जनसँख्या) को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मापदंडो के आधार पर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा घोषित करते हुए 27% आरक्षण देने की रिपोर्ट दी। इंदिरा गाँधी और राजीव गांधी की सरकारों ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। परन्तु विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अगस्त 1990 में इसे लागू करने की घोषणा की। इस घोषणा के विरुद्ध उत्तर भारत में सवर्ण नवयुवकों द्वारा हिंसक आंदोलन प्रारंभ कर दिया गया। अनेक आत्मदाह हुए। उस समय मैं ग्वालियर में पुलिस अधीक्षक था तथा वहाँ पर 9 आत्मदाह या इसके प्रयास हुए।महीनों तक कर्फ्यू और धारा 144 लगी रही। पिछड़ी जातियाँ सामाजिक रूप से शक्तिशाली थी तथा इनके के कुछ सम्पन्न लोग बेहद प्रभावशाली थे। इसलिए आरक्षण का भारी विरोध हुआ। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने एक लाख रुपये ( अब 8 लाख) की क्रीमी लेयर के ऊपर के इस वर्ग के लोगों को आरक्षण से हटा दिया, जिससे आंदोलन ठंडा पड़ गया।
डॉक्टर अम्बेडकर की मूल भावना के विपरीत राजनैतिक दलों के स्वार्थों के कारण आरक्षण की माँग बढ़ती चली गई। सामाजिक रूप से उन्नत जातियों को आर्थिक लाभ मिलने की आशा में आंदोलन होने लगे और वे हिंसक भी हो गए।
मंडल कमीशन के आरक्षण आंदोलन से लेकर हरियाणा में जाट, गुजरात में पाटीदार(पटेल) और राजस्थान में गुर्जर आंदोलन बहुत उग्र हुए। इनमें कई लोगों की जानें भी गईं तथा सम्पत्ति का भारी नुक़सान हुआ। अनेक जातियां पिछड़ों में शामिल होना चाहती थी और पिछड़ी जातियाँ अपने लाभ के लिए अनुसूचित जन जातियों तथा जन जातियों में सम्मिलित होना चाहती थी। अभी हाल में महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का आंदोलन हो रहा है। आरक्षण देने वाली राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट में अनेक बार झटका लगा है।
पिछले 30 वर्षों में भारत ने बहुत आर्थिक प्रगति की है। उसी के साथ असमानता और बेरोज़गारी भी बढ़ी है।सवर्ण सहित प्रत्येक जातियों में गरीबों और बेरोजगारों की कमी नहीं है। इन सभी बेरोजगारों का सपना शासकीय नौकरियां है जहाँ काम कम और सुविधाएँ अधिक हैं। राजनैतिक पार्टियां इन नवयुवकों की भावनाओं को भड़काने में पीछे नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने अपने सवर्णों के वोट बैंक को प्रसन्न करने के लिए 10% आरक्षण की इनके लिए व्यवस्था कर दी है। दुर्भाग्यवश सरकारी नौकरियां इतनी कम है कि उसकी बैसाखी से किसी भी जाति का आर्थिक उत्थान असंभव है।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही सर्व- समावेशी पार्टी रही कांग्रेस के वर्तमान नेता राहुल गांधी द्वारा अचानक जातिगत जनगणना की माँग की जा रही है। भारतीय राजनीति में अत्यधिक दयनीय स्थिति में आ चुकी कांग्रेस जाति के भावनात्मक मुद्दे उठाकर अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर ढूंढ रही है। जातिगत जनगणना होने के बाद निश्चित रूप से विभिन्न प्रकार के आरक्षणों की माँगों की बाढ़ आ जाएगी। इनके आंदोलनों से देश में एक सामाजिक अस्थिरता की स्थिति आ जाएगी।ओबीसी में आने वाली जातियों के बीच भी संघर्ष हो सकता है। इसके अतिरिक्त ओबीसी से ऊपर की तथाकथित सवर्ण जातियों में से कुछ में आरक्षण पाने की होड़ लग सकती है। आरक्षण पर सभी पार्टियों के बीच में किसी भी नीतिगत समझौते की आशा करना बेकार है। सम्भवतः इस सामाजिक उथल पुथल के पश्चात मजबूरी में सुप्रीम कोर्ट की सहायता से एक स्थायित्व आ सकता है।