

Review of Madhu Kankaria’s new book: भाषा सौंदर्य, शैली की मनोहरी विदग्धता और जीवन बोध हमें कदम कदम पर विमुग्ध करता है !
मेरी ढाका डायरी : मूल्यांकन, डॉ.विजय बहादुर सिंह

अपने कई उपन्यासों और कहानियों से हिन्दी कथा साहित्य को अपने विचलित कर डालने वाले अनुभवों की तीक्ष्णताऔर मार्मिकता से
चकित कर डालने वाली कथाकार मधु काँकरिया, इस बार एक और ही अंदाज में उपस्थित हुई हैं. उनका यह नया अंदाज भले ही कहने को डायरी शिल्प में है किन्तु है यह किसी भी कथा से अधिक जीवनदर्शी और विचलनकारी. जीवनदर्शी इस रूप में कि
यह केवल बाँग्ला देशी इस्लाम और उसके अति विख्यात ढाका की जीवनकथा नहीं है, उस भूले बिसरे हिन्दुस्तान की कहानी भी है जब ढाका आज के महानगर कोलकाता से भी अधिक विश्वख्यात था अपने वस्त्र शिल्प और उद्योग के रूप में.

जानने वाले जानते हैं कि अविभाजित भारत और अविभाजित बंगाल के दिनों में ढाका, चटगाँव, नोआखाली की भूमिका क्या रही है.
मधु जी ने यद्यपि उस पुराने इतिहास को बहुत याद नहीं किया है पर भारत और बाँगला देश के बनते बिगड़ते रिश्तों, उठती गिरती सत्ता राजनीति, पनपती और पनपाई जा रही साम्प्रदायिकता, सत्ता और सत्ता राजनीति के मानव विरोधी चेहरे की पहचान करते हुए, अवाम, खासकर दोनों ही देशों में सदियों से अभिशापग्रस्त स्त्री, धर्म और राजनीति की घृणित मिलीभगत, इन दोनों के बीच सैण्डविच बन चुके अवाम की त्रासद नियति का मार्मिक साक्षात्कार यहाँ किया है.
पुस्तक के शुरुआती पन्ने ही यह संकेत देने लगते हैं कि लेखिका को इस डायरी तक आने की चुनौती मंजूर ही क्यों करनी पड़ी—
“मेरी यह डायरी बाँग्लादेश को सम्पूर्णता में जानने का कोई दावा नहीं करती. मार्केस ने कहा था कि आप को यथार्थ का एक टुकड़ा भर देखना और महसूस करना होता है….उससे पूरा दृश्य दिख जाता है. तो बस टुकड़ा भर यथार्थ हाजिर है.”
इस टुकड़े भर यथार्थ की बानगी आप चाहें तो डायरी लेखिका के इन वाक्यों में महसूस कर सकते हैं—
सारा इस्लाम यहाँ औरत की देह पर टिका हुआ है. हर औरत अपने औरतपन के बंधन को वजूद की तरह अपने सीने से चिपकाए हुए. देह ही देह. हर पुरुष और औरत अपने देह की चौकसी में, इस्लाम के अनुसार, डूबा हुआ,।दाढ़ी, टोपीऔर बुर्के चहुँ ओर.
मैंने तो सोचा था ढाका कोलकाता जैसा होगा. लेकिन यहाँ देखाहर पुरुषऔर स्त्री की हाट लाइन अल्लाह नामक किसी अदृश्य सत्ता से जुड़ी रहती है.”
2) “जहाँ धर्म नहीं है, वहाँ स्त्री तन और मन, दोनों से जरूरत से ज्यादा आजाद है.” पृष्ठ -64.
“उन्हीं दिनों सरे राह चलते -चलते मुझे गुलशन पार्क में कुछ नवयुवतियाँ मिलीं…. मैंने यूँ ही पूछ डाला,
क्या आप इस्लाम को नहीं मानतीं?
मानती हैं.
क्यों नहीं मानतीं?
तो फिर आपने बुर्का क्यों नहीं पहना है?
एक ने हँस कर कहा–
कुरान में कहीं बुर्का या नकाब का ज़िक्र है ही नहीं, हिजाब का जरूर ज़िक्र है, वह भी हदीस में…..
बाँगला देश की आधुनिक पीढ़ी को बुर्का में कोई दिलचस्पी नहीं है.” पृष्ठ-66.
“दरअसल, वर्तमान सत्ताधारियों के राष्ट्- राज्य का दर्शन, जिस बुनियाद पर टिका है, वह है –एक नस्ल, एक भाषा और एक मज़हब, जिसके लिए उन्हें हमेशा एक काल्पनिक दुश्मन की जरूरत होती है. पर वे यह भी भूल जाते हैं इन्द्रधनुष इसीलिए तो खूबसूरत होते हैं कि उसमें धरती के सभी रंगों का समावेश होता है.”
पृष्ठ -67.
“हर धर्म के रंग एक जैसे. रमज़ान हो या जैनियों की तपस्या या वैष्णवों के व्रत उपवास, किसी का भी आत्मा के सत्य, सौंदर्यऔर मन की शु्द्धता से कुछ लेना -देना नहीं था. बस एक तय शुदा कार्यक्रम कीखानापूर्ति भर थी.” पृष्ठ-126.
“गाँधी जी की यादों में रचे -बसे नोआखाली के गाँधी आश्रम में गाँधी जी की चरखा चलाती तस्वीर के साथ जगह जगह पोस्टर लगे हैं उनके अमृत वचनों के. एक पोस्टर पर लिखा हुआ था —
आमि मानुषेर विश्वास करि तार एकमात्र कारण
आमि सृष्टिकर्ता के विश्वास करि
(मैं इंसान पर विश्वास करता हूँ एकमात्र कारण है कि मै ईश्वर पर विश्वास करता हूँ.)” पृष्ठ–134.
पुस्तक में इसका एक जीता जागता सबूत भी लेखिका ने अपनी घरेलू सहायिका फातिमा के प्रसंग से दिया है.
लेखिका की पुत्रबधू की अठमासी बच्ची ने जन्म लेते ही दम तोड़ दिया. कोशिश की गई कि दोनों की जान बचा ली जाय. उसी दौरान रक्त की जरूरत हुई. “कौन दे रक्त? विदेश में बहुत कम जान पहचान थी, उस पर कोरोना और रमज़ान. कोई ऐसा नज़र न आया, जो दुख और संकट की इस घड़ी में कंधे पर हाथ रख दे. मैंने न फातिमा को बताया था, न ही सलमा को. जाने कैसे, किस बिस्तर ने चुगली खा दी कि सूरज की पहली किरण के साथ ही दोनों की गुजारिश –‘हम देंगे रक्त’.
जरूरत तो थी, कैसे करते इनकार. तीन दुख एक हुए. बदरी सी बरसी आँखें!. ले गए दोनों को.. फातिमा का रक्त काम आ सकता था, पर उसका रमज़ान था. डाक्टर ने मन कर दिया–रमज़ान में रक्त नहीं ले सकते. घायल पाखी की तरह वह फड़फड़ाई. फिर कुछ देर बाद दृढ़ स्वर में कहा फातिमा ने- यदि ऐसा है तो इसी पल मैं रमज़ान तोड़ देती हूँ, पर मेरा रक्त ले लें.
फातिमा का रक्त ले लिया गया.” पृष्ठ-146.
पुस्तक अनेक ऐसी गहरी, मार्मिक और करुण गाथाओं को लिए हुए शब्द प्रतिशब्द इस वर्तमान से उस भविष्य की ओर बढ़ती गई है जो हर युग और सभ्यता का सबसे खूबसूरत सपना रहा है.
लेखिका का भाषा सौंदर्य, उसकी शैली की मनोहरी विदग्धता और जीवन बोध हमें कदम कदम पर विमुग्ध करता चलता है. {नयी पुस्तक -मधु कान्करिया की वाल से}
लेखक –डॉ. विजय बहादुर सिंह वरिष्ठ कवि, लेखक और आलोचक हैं.