भारत पर पड़ेगा असर रूस-यूक्रेन विवाद का

रूस और यूक्रेन में तनातनी का भारत पर क्या असर पड़ रहा है? सरल शब्दों  में समझिए  - क्या है यह विवाद और क्या है इसकी जड़? क्या है नाटो और क्या करता है यह? अमेरिका पूरी तरह यूक्रेन के साथ है और चीन रूस के साथ जा सकता है तो भारत किसके साथ रहेगा?

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भारत पर पड़ेगा असर रूस-यूक्रेन विवाद का
रूस और यूक्रेन युद्ध के मुहाने पर हैं। कभी भी युद्ध शुरू हो सकता है। रूस, यूक्रेन से 28 गुना बड़ा है, जिसका क्षेत्रफल 1 करोड़ 70 लाख वर्ग किलोमीटर है। यानी रूस भारत से करीब 5 गुना बड़ा है। यूक्रेन, रूस की तुलना में छोटा है और भारत यूक्रेन से तीन गुना बड़ा कहा जा सकता है।आम बोलचाल में लोग सोवियत संघ को रूस कहा करते थे, लेकिन 1991 में सोवियत संघ के 15 खण्डों में बंट जाने के बाद रूस और यूक्रेन अब एक अलग देश हैं। यूक्रेन में करीब 20 हज़ार भारतीय हैं। अमेरिका अपने नागरिकों को यूक्रेन से सुरक्षित निकाल चुका है, लेकिन भारत ने अपने नागरिकों के लिए अभी कोई एडवाइजरी जारी नहीं की है।

दुनिया की दो बड़ी सामरिक शक्तियां अमेरिका और चीन इंतजार कर रहे है कि वहां क्या होता है। अमेरिका के सैन्य अधिकारी इस बात की चेतावनी दे चुके है कि अगर दोनों देशों में युद्ध होता है, तो सीरिया सहित पश्चिम एशिया में व्यापक अस्थिरता पैदा होने की आशंका है। अमेरिकी लेफ्टिनेंट जनरल एरिक कुरैला का कहना है कि रूसी सेना ने यूक्रेन को 9 ठिकानों पर घेर रखा है। यूक्रेन की राजधानी कीव तक रूसी सेना पहुंच सकती है। इसलिए अमेरिका यूक्रेन की मदद करने की कोशिश कर रहा है। अमेरिकी सेना अब तक कुल 10 विमान हथियारों खेप यूक्रेन पहुंचा चुका है। लगभग 400 टन गोला बारूद इन हथियारों में शामिल है। अभी लगभग 5 गुना अमेरिकी मदद और पहुंचनी है।

जब मिखाइल गोर्बाचोफ़ अमेरिका के राष्ट्रपति थे, तब पूरा पश्चिम मीडिया उनकी जय-जयकार करता था। उन्हें उद्धारक और न जाने क्या-क्या उपाधियां देता था। सोवियत संघ के अनेक हिस्सों में उन दिनों अलगाव की आग सुलग रही थी, लेकिन गोर्बाचोफ़ मीडिया की वाहवाही में लहालोट थे। 1917 की बोल्शेविक क्रांति से जिस सोवियत संघ नामक साम्यवादी राष्ट्र का विलय हुआ था, उसी में लेनिन की मौत के बाद स्टालिन सर्वोच्च नेता के रूप में घोषित किए गए और साम्यवादी पार्टी की तानाशाही सरकार बन गई। स्टालिन की मौत के बाद खुश्चेव और ब्रेझनेव के शासन में भी यही तानाशाही प्रवृत्ति रही। नागरिक आजादी खत्म हो गई और जनता की भावनाएं आयरन कर्टेन में दबी रही।

26 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ का विघटन हो गया। उसके एक दिन पहले मिखाइल गोर्बाचोफ़ ने इस्तीफा दे दिया था। सोवियत संघ 15 गणतांत्रिक गुटों का संघ था, जो जार-जार हो गया। सोवियत संघ एक ऐसा साम्राज्य था, जिसने हिटलर की जर्मनी को परास्त कर दिया था और जिसने वियतनाम तथा क्यूबा में अनेक क्रांतियों को जन्म दिया था। सोवियत संघ विश्व के खेल, सिनेमा, कला और विज्ञान के क्षेत्र में सबसे आगे पहुंच चुका था। अंतरिक्ष में पहला उपग्रह और पहला यात्री भेजने वाला भी सोवियत संघ ही था। उस महाशाक्ति का सूर्य 1991 में अस्त हो गया।

1991 में सोवियत संघ के टूटने से जो 15 देश बने थे, उनमें रूस और यूक्रेन पड़ोसी  देश थे। विघटन के 23 साल बाद रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया पर हमला किया और उसे अपने देश में मिला लिया। तभी से यूक्रेन और रूस में तनातनी जारी है।

रूस की आबादी करीब 15 करोड़ है और यूक्रेन करीब 4.5 करोड़ का देश। दोनों ही देश तेल और गैस के मामले में बहुत समृद्ध है। रूस के गैस भंडार के 70 प्रतिशत हिस्से पर वहां की सरकार का कब्जा है और रूस उसमें से बड़ी मात्रा में प्राकृतिक गैस सप्लाय करता है। अप्रैल 2021 में रूस ने तेल और गैस की सप्लाय में कटौती कर दी। यूक्रेन में गैस और तेल के बड़े भंडार है, लेकिन अब तक यूक्रेन रूस के गैस भंडारों को यूरोपीय बाजारों में पहुंचाने के लिए एक कड़ी का काम करता था। 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा किया था, तब दुनिया के देशों ने रूस पर कई सारे प्रतिबंध लगा दिए थे। आर्थिक मुद्दों की बात करें, तो प्रति व्यक्ति जीडीपी में रूस यूक्रेन से चार गुना आगे है। इस सबके बाद भी रूस और यूक्रेन बड़े बिजनेस पार्टनर रहे है। अब यूक्रेन सबसे ज्यादा आयात चीन से करता है, उसके बाद रूस से और फिर जर्मनी से। यही क्रम निर्यात का भी है।

जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, तब यूक्रेन को लगने लगा कि कहीं ऐसा न हो कि रूस पूरे यूक्रेन को ही अपने देश में मिला लें। इसके जवाब में यूक्रेन ने नाटो से हाथ मिला लिया। नाटो यानी नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन, जो  एक सैन्य गठबंधन है। इस संगठन का एक ही लक्ष्य है रूस और उसके समर्थकों को बाहर रखो। अमेरिका और उसके सहयोगियों को अंदर रखो। जर्मनी और उसके मित्रों को जमीन के नीचे रखो। अभी इस संगठन में दुनिया के 30 देश है और यह संगठन पुराने सोवियत संघ और साम्यवादी व्यवस्था के खिलाफ बना था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापान आत्मसमर्पण करने को तैयार था, लेकिन फिर भी अमेरिका ने जापान पर दो बार परमाणु बम बरसाए, इससे सोवियत संघ खासा खफा हुआ, क्योंकि अमेरिका ने यह बात दुनिया को बताई नहीं थी कि उसके पास जो परमाणु बम है, उसका उपयोग वह विश्व युद्ध में कर सकता है। उसके बाद ही सोवियत संघ और अमेरिका की राहें न केवल अलग-अलग हुई, बल्कि उनमें प्रतिस्पर्धा भी हो गई। मामला चाहे अंतरिक्ष में जाने का हो या ओलंपिक में पदक लाने का। दोनों ही देशों की प्रतिस्पर्धा पूरी दुनिया में चल रही थी। दुनिया भी उस वक्त सोवियत संघ और अमेरिका के खेमें में बंटी हुई थी।

अब नए वैश्विक जगत में सोवियत संघ बिखर चुका है और उसी के दो पुराने साथी आमने-सामने है। सोवियत संघ की जगह अब चीन एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरा है, जो अमेरिका को चुनौती दे रहा है। अगर रूस और यूक्रेन के बीच तनातनी बढ़ती है, तो उसका असर पूरी दुनिया में होगा और दुनिया एक बार फिर खेमेबाजी में बंट जाएगी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम 93.90 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच चुके है, जो कुछ समय पहले तक इसके आधे ही थे। युद्ध हुआ, तो कच्चे तेल के दाम और बढ़ सकते है और दुनिया इससे प्रभावित हो सकती है।

भारत फिलहाल दोनों ही देशों से दोस्ताना संबंध बनाए हुए है। अगर इन दोनों देशों में टकराव हुआ, तो भारत को किसी एक के पाले में जाना पड़ेगा। भारतीय कूटनीति इसकी इजाजत नहीं देती। भारत के लिए निष्पक्ष रहना सबसे अच्छी स्थिति हो सकती है, लेकिन भारत की निष्पक्षता ने अमेरिका की त्यौरियां चढ़ा दी है। भारत के लिए मुश्किल यह भी है कि वह अपनी सैन्य जरूरतों का 55 प्रतिशत सामान रूस से आयात करता है। एस400 मिसाइल सिस्टम देने के लिए भारत रूस से संपर्क साधे हुए है और अमेरिका इस कोशिश में है कि भारत इस प्रस्तावित सोवियत से दूर रहे। भारत के लिए एक और मुश्किल यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के भी मित्र हैं और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के भी। अमेरिका के लिए मुश्किल यह है कि अगर वह रूस पर दबाव बनाएगा, तो चीन रूस के करीब पहुंच सकता है और रूस तथा चीन जैसी महाशक्तियां कोई नया बखेड़ा खड़ा कर सकते है। भारत अगर अमेरिका का समर्थन करता है, तो उसका असर रूस से उसके रिश्ते पर पड़ेगा। भारत और चीन में लंबे समय से सीमा विवाद चल रहा है और रूस अभी तक निष्पक्ष है। अगर भारत अमेरिका का पक्ष लेता है, तो हो सकता है कि रूस चीन का पक्ष लेने लगे। सीधे-सीधे शब्दों में यह कहें कि अगर भारत को चीन का सामना करना है, तो वह अमेरिका की अनदेखी नहीं कर सकता।

जब अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाया और वहां तालिबानियों ने कब्जा किया, तब चीन ने एक कदम आगे बढ़कर तालिबान को मान्यता दे देती थी। चीन को उसका फायदा हुआ, क्योंकि उसे वहां निवेश के मामले में बढ़िया संभावनाएं मिल गई, जबकि भारत अफगानिस्तान में पहले ही बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश कर चुका था।

फिलहाल भारत ‘रुको और देखो’ की नीति का पालन कर रहा है। भारत चाहता है कि रूस आक्रामक रवैया नहीं अपनाए। जब रूस ने 2014 के शुरू में क्रीमिया पर कब्जा किया था, तब भारत में यूपीए की सरकार थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस वक्त इसका विरोध किया था। 2020 में यूक्रेन ने क्रीमिया में मानव अधिकारों के उल्लंघन का मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाया, तब भारत ने इस प्रस्ताव के विरोध में वोट दिया था। जाहिर है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार रूस के समर्थन में थी। अब कहां जा रहा है कि रूसी राष्ट्रपति कभी भी यूक्रेन पर हमले का आदेश दे सकते है। अगर ऐसा हुआ, तो दुनिया के कई देश रूस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा देंगे। अमेरिका इस तरह के प्रतिबंधों को लगाने की अगुवाई करेगा। अगर अमेरिकी समर्थक देश रूस पर प्रतिबंध लगाते है, तो रूस उन प्रतिबंधों के खिलाफ चीन की मदद लेगा और चीन से अपना कारोबार बढ़ा लेगा। भारत के साथ मुश्किल यही है कि वह न तो रूस के खिलाफ जा सकता है और न ही अमेरिका के। अभी तक भारत का रूख यही है कि वह दोनों देशों के बीच टकराव से दूर रहेगा। भारत को यह भी देखना है कि अगर क्रीमिया में कथित मानव अधिकारों की बात होती है, तो कुछ देश भारत के कुछ हिस्सों में भी मानव अधिकारों के मुद्दे को लेकर बखेड़ा खड़ा कर सकते है।

चीन में हो रहे विंटर ओलंपिक में भारत ने हिस्सा नहीं लिया है, लेकिन रूस के राष्ट्रपति पुतिन खेलों के बहाने ही सही, चीन की यात्रा पर चले गए। उन्होंने वहां चीनी राष्ट्रपति से मुलाकात की। पाकिस्तान ने भी इस मौके का फायदा उठाया और प्रधानमंत्री इमरान खान अपने 7 मंत्रियों को लेकर इस खेल आयोजन में पहुंच गए। सबसे मजेदार बात यह रही कि पाकिस्तान की तरफ से केवल 1 ही खिलाड़ी चीन में हुए विंटर ओलंपिक्स में शामिल हुआ था और इमरान खान सहित 8 मंत्री चीन पहुंच चुके थे। जाहिर यह सभी वहां अपनी रणनीति के तहत गए थे। पाकिस्तान का उद्देश्य चीन से नजदीकी पाना रहा होगा। जो भी हो भारत चाहे या ना चाहे रूस और यूक्रेन के बीच अगर युद्ध होता है, तो इससे हमारी परेशानी बढ़ेगी ही।