Sad Memory of Corona Era : बर्फ का छोटा सा टुकड़ा और पहाड़ जैसी मुसीबत!
● अभय बेडेकर (IAS) का संस्मरण
ये कोई कहानी नहीं, कोरोना काल की एक ऐसी अनूठी घटना है, जो तकनीक और मानव क्षमता के सामने ईश्वरीय चमत्कार साबित करती है। जब इंदौर में कोरोना चरम पर था, अस्पतालों में ऑक्सीजन की त्राहि-त्राहि मची थी। सबकी नजरें जिला प्रशासन पर टिकी थी और उच्चाधिकारियों के निर्देश पर अस्पतालों को निर्बाध ऑक्सीजन सप्लाय की जिम्मेदारी बतौर अतिरिक्त कलेक्टर मुझे सौंपी गई थी। मुझे इस जिम्मेदारी ने इतना चर्चित कर दिया था कि मुझे ‘ऑक्सीजन मैन’ तक कहा जाने लगा था। ऐसे में लिक्विड ऑक्सीजन के क्रायोजेनिक टैंकर के वेपराइज़र में बर्फ का टुकड़ा फंसना और फिर जुगाड़ से उसका निकलना एक ईश्वरीय चमत्कार ही था।
दरअसल, कोरोना काल सिर्फ एक बीमारी की तरह ही हमेशा याद नहीं किया जाएगा, इसके साथ ऐसी भी कई घटनाएं भी जुड़ गई, जिसने इस आपदा को कई गुना बढ़ाया। इस दौर में भगवान ने भी हर स्तर पर उन लोगों की परीक्षा ली, जो अपनी क्षमता से किसी तरह लोगों की मदद करने में जुटे थे। इंदौर जैसे बड़े शहर में जिसकी जनसंख्या 42 लाख से ज़्यादा है और जहां कोरोना का प्रकोप अपने चरम पर था। हर उस सामग्री की जरुरत थी, जो मरीजों की जान बचा सकती थी। इनमें सबसे ज्यादा जरूरत थी ऑक्सीजन की। शहर के लगभग सारे छोटे-बड़े अस्पताल (150 से ज़्यादा) कोरोना के मरीजों से भरे थे और उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत थी ऑक्सीजन की। मरीजों की एक-एक सांस इस ऑक्सीजन में अटकी थी। जिला प्रशासन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी यही थी, कि कुछ भी करके हर अस्पताल को ऑक्सीजन की समय पर सप्लाय की जाए।
कोरोना प्रकोप के इस दौर में टैंकर से लिक्विड ऑक्सीजन जामनगर रिफाइनरी से इंदौर लाई जाती थी। लिक्विड ऑक्सीजन के 27 टन के टैंकर को राजकोट से इंदौर आने में 20 से 24 घंटे लगते थे। दूरी इतनी ज्यादा नहीं है, पर जिस क्रायोजेनिक टैंकर से ये लिक्विड ऑक्सीजन लाई जा रही थी, वो वजनी ज्यादा होता है, और उसमें लिक्विड ऑक्सीजन होने से उसे तेजी से चलाया जाना भी संभव नहीं था। प्रदेश में ऐसे 7-8 टैंकर ही हैं, जिनसे लिक्विड ऑक्सीजन की सप्लाय की जा रही थी। कोरोना में जिस तरह ऑक्सीजन की जरूरत थी, इन टैंकरों से लगातार काम लेना भी जरूरी था।
अब जानिए वो संकट जो एक लिक्विड ऑक्सीजन के टैंकर से उपजा था। वाकया ये था कि जब लिक्विड ऑक्सीजन का एक टैंकर इंदौर पहुंचा, तो पता चला कि उसकी वेपराइज़र के नोजल में बर्फ का टुकड़ा फंस गया, इस वजह से लिक्विड ऑक्सीजन को छोटे टैंकरों में भरकर अस्पतालों में पहुंचाना मुश्किल है। दिमाग में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इंसुलेटेड टैंकर में बर्फ कहां से आया? सप्लायर नीलेश जैन ने बताया कि वातावरण की ऑक्सीजन को कम्प्रेस्ड करके -183 डिग्री पर उसे लिक्विड ऑक्सीजन में बदलकर टैंकरों में भरकर सप्लाय किया जाता है। जिस क्रायोजेनिक टैंकर से लिक्विड ऑक्सीजन लाई जाती है, वो डबल लेयर होता है। टैंकर में टेम्प्रेचर को -183 डिग्री सेंटीग्रेड मेंटेन करना जरूरी है, अन्यथा सारी लिक्विड ऑक्सीजन, स्वरूप बदलकर ऑक्सीजन गैस में बदल जाएगी।
टैंकर में बर्फ कहां से आया, इस संबंध में सप्लायर नीलेश जैन ने तकनीकी कारण बताया कि टैंकर में किसी कारण से कहीं कोई हेयर लाइन क्रेक आ गया होगा। उससे वातावरण का मॉइश्चर ऊपर की लेयर से अंदर वाली लेयर तक पहुंचा और तापमान इतना कम (-183) होने से वो मॉइश्चर ( नमी) बर्फ के टुकड़े में बदल गई। यही बर्फ का टुकड़ा लिक्विड में तैरता टैंक के वेपराइजर के नोजल में फंस गया, इस कारण टैंक में प्रेशर बिल्ट-अप नहीं हो पा रहा था और इस कारण टैंकर को अनलोड नहीं किया जा सकता था। अर्थात टैंकर से ऑक्सीजन बाहर रखे स्टैंडिंग स्टोरेज सिलेंडर में नहीं जा पा रही थीं।
टैंक को खाली करने के लिए टैंक प्रेशर बाहर से सिलेंडर इंजेक्ट करके बढ़ाया गया। जब ये घट रहा था तो मैं सोच रहा था कि भगवान भी इस मुसीबत के समय में कितनी कठिन परीक्षा ले रहा है। ऑक्सीजन की वैसे ही बहुत कमी है, लोग अस्पतालों में ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं और हम ऑक्सीजन होते हुए भी उसे मरीजों तक पहुँचा नहीं पा रहे।
लिक्विड ऑक्सीजन बनाने की प्रक्रिया को हम संक्षिप्त में समझते हैं। वातावरण की हवा को एयर कंप्रेसर से कम दाब पर दबाव बनाकर कूलिंग सिस्टम में (12 डिग्री सेंटीग्रेड) तक ठंडा करा जाता है। फिर हवा को धूल आदि से मुक्त कर मैग्नेटिक फ़िल्टर, कार्बन फ़िल्टर के द्वारा धातु तत्व आदि से मुक्त करके अंत में मॉलिक्यूलर सीव ड्रायर के माध्यम से अत्यंत शुद्ध बनाया जाता है। इसके बाद इस शुद्ध हवा को टर्बो एक्सपेंडर के माध्यम से क्रायोजेनिक कूलिंग कर -165 से -183 डिग्री तक ठंडा किया जाता है, जो शीतलीकरण की ऐसी अवस्था है जो मनुष्य की कल्पना से परे है।
इस अतिशीत लिक्विड ऑक्सीजन को स्टोर करना भी बेहद जटिल प्रक्रिया है। जितने भी क्रायोजेनिक लिक्विड होते हैं उनका सामान्य बॉयलिंग पॉइंट (क्वथनांक) -90 डिग्री सेंटीग्रेड होता है। लिक्विड ऑक्सीजन का बॉयलिंग पॉइंट -183 डिग्री होता है। यानी जैसे ही तापमान इससे ज्यादा बढ़ेगा तो ऑक्सीजन लिक्विड से गैस बन जाएगी। ऑक्सीजन को लिक्विड बनाए रखने और उसे स्टोर करने के लिए हमें क्रायोजेनिक स्टोरेज टैंक की जरूरत पड़ती है। क्रायोजेनिक टैंक एक वैक्यूम सिलेंडर की तरह होता है। आंतरिक और बाह्य वैसल के बीच एक तापमान रोधी पदार्थ (पर्लाइट पाउडर) डाला जाता है और फिर उसमें से हवा खींच कर उसे वैक्यूम बना दिया जाता है। यह अंदर रखी गयी लिक्विड ऑक्सीजन का तापमान बढ़ने से रोक देता है। इस तरह टैंकर में भरी लिक्विड ऑक्सीजन लिक्विड ही बनी रहती है जिसे परिवहन करना आसान होता है।
पहली बात तो ये कि थोड़ी सी नमी (मॉइश्चर) अंदर जाकर बर्फ बन गई और फिर बर्फ का वो टुकड़ा टैंक के वेपराइज़र के वाल्व में फंस गया। बर्फ के उस टुकड़े को कैसे निकाले, ये सबसे बड़ा संकट था। ईश्वर से प्रार्थना की कि हे प्रभु, मदद कर। भगवान का नाम लेकर, देसी जुगाड़ लगाकर टैंक को हिलाकर तथा टैंक में बाहर से एयर प्रेशर लगाकर जब प्रेशर बढ़ाया गया, तो शायद उस दबाव से वो बर्फ का टुकड़ा वेपराइज़र के नोजल से हट गया और लिक्विड ऑक्सीजन बाहर निकलने लगी। ये हमारी सफलता थी या किसी की दुआ कि हमारी मेहनत सफल हुई। अब इस ऑक्सीजन को बाहर निकालकर दूसरे टैंकरों में भरकर पीथमपुर से इंदौर रवाना किया गया। क्योंकि, वो क्रायोजेनिक टैंकर जिसमें जामनगर से ऑक्सीजन आयी थी, उसमे से बर्फ का टुकड़ा निकालना अभी बाक़ी था।
इंदौर शहर के पास स्थित जो ऑक्सीजन सिलेंडर फ़ीलिंग प्लांट थे, वहां ये टैंकर ऑक्सीजन लेकर पहुंचा और फिर ऑक्सीजन के छोटे-छोटे सिलेंडरों में ऑक्सीजन को भरा गया। फिर ऑक्सीजन के इन छोटे-छोटे सिलेंडर को लेकर प्लांट्स की गाड़ियां अस्पतालों की तरफ रवाना हो गई। इस तरह एक दु:स्वप्न का अंत हुआ और जनता को ऑक्सीजन की निर्बाध आपूर्ति जारी रखी जा सकी। लेकिन, ये तो संकट का आधा हल था। बर्फ तो टैंकर में ही मौजूद था, क्योंकि टैंकर में टेंप्रेचर तो मेंटेन ही था। उसके बाद टैंकर को खाली करके करीब 8 दिन तक हॉट एयर देकर उस बर्फ के टुकड़े को पिघलाकर बाहर निकाला गया। तब तक ये टैंकर बिना किसी उपयोग के वहीं खड़ा रहा जो कि पूरे कोरोना के संकटकाल में बहुत बड़ी चिंता का विषय था। क्योंकि, क्रायोजेनिक टैंकर प्रदेश में गिनती के ही थे और किसी भी टैंकर का बिना उपयोग के खड़े रहना बहुत ही कष्टकारी ही था।