सबक सिखा रहे साय …
छत्तीसगढ़ की राजनीति में नंदकुमार साय का दायरा कितना बचा था, यह मायने नहीं रखता लेकिन साय अब भाजपा के पर्याय बन गए थे, इस बात को कोई नकार नहीं सकता। साय के हिस्से में क्या आता है, साय क्या खोते हैं और कौन क्या पाता है…बात यह भी कोई खास नहीं है। पर खास बात यह है कि पांच साल सरकार चलाने के बाद साय जैसे तपे तपाए नेता को अपने दल में पाकर कांग्रेस का मनोबल आसमान छू रहा है। कांग्रेस के हाथ में वह हाथ आया है, जिसमें संघ भी समाया है, कार्यकर्ता आधारित पार्टी की विचारधारा का भी साया है और जिसने अटल-आडवाणी का साथ निभाते हुए राजनीति को खूब खुलकर जिया भी है।
अविभाजित मध्यप्रदेश में तीन बार के विधायक रहे साय तीन बार लोकसभा सांसद और दो बार राज्यसभा सांसद रह चुके हैं तो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष भी रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के पहले नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी भी निभाई। 77 वर्ष के साय 1977 में जनता पार्टी से पहली बार विधायक बने तो 1980 से भारतीय जनता पार्टी में ही शानदार पारी खेली। कमल खिलाने की उम्मीदों पर खरे भी उतरे, पर जब मन से खिन्न हुए तो दल छोड़ने में भी देर नहीं की। ठीक उसी तरह जैसे कभी आदिवासियों से शराब छोड़ने के आग्रह पर मिली चुनौती पर नमक छोड़ा तो 53 साल से नमक नहीं खाया। वह एक आदिवासी का वचन था जिसे उतनी ही शिद्दत से निभाया गया, तो यह आत्मसम्मान की बात थी जिसके चलते रग-रग में समाई भाजपा को खुशी-खुशी त्यागा गया। साय भाजपा को सबक सिखा गए हैं कि चुनावी साल में अपनों के सम्मान का ध्यान रखना भी बहुत जरूरी है।
अब बात करें मध्यप्रदेश के भाजपा के दिग्गज नेता तीन बार के विधायक और पूर्व मंत्री दीपक कैलाश जोशी की। जो पार्टी में अपनी उपेक्षा के चलते आहत हैं और हाथ में हाथ मिलाने का ऐलान कर चुके हैं। दीपक जोशी की मानें तो उनका कहना है कि मेरे पिताजी स्व कैलाश जोशी की ईमानदारी की विरासत को भाजपा सहेजना नहीं चाहती है इसलिए मैंने भाजपा छोड़ने का निर्णय लिया है। और भाजपा नेताओं को भी अपने निर्णय से अवगत करा दिया है। तो छत्तीसगढ़ में भाजपा नेता नंदकुमार साय के पार्टी छोड़ने पर अपनी प्रतिक्रिया में मप्र कांग्रेस के अध्यक्ष कमल नाथ का उत्साह दिख रहा है कि ये तो ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी है। कैलाश जोशी जनता पार्टी सरकार में पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे। और जब तक उनकी सांस चली, तब तक कमल खिलाने में खुद को पूरी तरह समर्पित रखा। ऐसे में यह बात भी गौर करने वाली है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता पिछले दिनों भाजपा के दूसरे स्तंभ रहे स्वर्गीय सुंदरलाल पटवा के निवास पर भी पहुंचे थे। ऐसे समय विधायक सुरेंद्र पटवा भी मौजूद थे। ऐसे में कहीं कांग्रेस ने भाजपा के उन सभी चेहरों को चिन्हित तो नहीं कर लिया है, जिनके मन में भाजपा से मिल रही उपेक्षा पर खिन्नता पसरी है। तब फिर और बड़ा सवाल है कि ऐसे अपनों को मनाकर पार्टी में बनाए रखने के लिए क्या भाजपा ने कोई सेल बनाकर नहीं रखी है? निष्कासित नेताओं की भाजपा में वापसी हो रही है, तो क्या दूसरे पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं को रोकने का कोई प्लान नहीं है? यदि यह सिलसिला चला तो कल जिन विधायकों के टिकट कटेंगे, फिर क्या वह भी रातों रात पाला बदलकर पार्टी को नुकसान पहुंचाने की कवायद में जुटे नजर आएंगे? मध्यप्रदेश में सत्ताधारी दल भाजपा को इन चुनौतियों से जूझना ही पड़ेगा।
पर एक बात साफ है कि जिस तरह छत्तीसगढ़ में साय के ‘मन की बात’ सुनकर उसका समाधान करने में भाजपा नेताओं ने देर की और साय ढोल ढमाकों संग कमल दल को बाय-बाय कहकर हाथ संग हाथ मिला लिए। उसी तरह मध्यप्रदेश में दीपक जोशी ने भी अपनी उपेक्षा के चलते ऐसा फैसला कर लिया है। उनके ‘मन की बात’ समय पर सुनकर भाजपा में बनाए रखने की सच्ची कवायद तो होना ही चाहिए।
साय के जीवन की यह झलक काबिले गौर है कि 23 सितंबर 1970 को डुमरमुड़ा गांव में शराब बेचने वालों की पहल पर आदिवासियों की बैठक बुलाई गई। साय को तर्क दिया गया कि जैसे भोजन से नमक को अलग नहीं किया जा सकता, उसी तरह शराब आदिवासी की संस्कृति का हिस्सा है। आदिवासी को शराब से अलग नहीं किया जा सकता। और नंद कुमार साय को इस बैठक में चुनौती दी गई कि क्या वे भोजन से नमक छोड़ सकते हैं? साय का दावा है कि उन्होंने उसी समय सबके सामने प्रतिज्ञा ली कि आज के बाद मैं अपने भोजन में नमक का उपयोग नहीं करुंगा। इस बात को 53 साल होने को आए, उन्होंने फिर कभी नमक को अपने भोजन में शामिल नहीं किया। वचन से इस तरह बंधे लोग अपनी विचारधारा से भी उसी तरह बंधे हैं। साय सबक सिखा रहे हैं कि ऐसे लोगों को सहेजने का जतन करना भाजपा नेताओं का असल फर्ज है…।