
नई सदी में संघ: परंपरा, परिवर्तन और भविष्य की चुनौतियां
**आलोक मेहता**
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे कर रहा है। 2 अक्टूबर की विजयादशमी से संघ अपने शताब्दी वर्ष का आरंभ करने जा रहा है। यह अवसर केवल एक संगठन के सौ वर्ष पूरे होने का नहीं, बल्कि उस विचारधारा और आंदोलन की समीक्षा का भी है जिसने भारतीय समाज, राजनीति और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में रखी गई नींव आज विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन में बदल चुकी है। प्रश्न यह है कि नई शताब्दी में संघ अपने स्वरूप और दिशा में कितना परिवर्तन करेगा और कितना अपनी परंपरा पर अडिग रहेगा।

**एक सदी की यात्रा: हेडगेवार से मोहन भागवत तक**
27 सितंबर 1925 को नागपुर में शुरू हुआ यह संगठन आज देश ही नहीं, विश्व समुदाय के अध्ययन और चर्चा का विषय है। अनुशासन, संगठन और विचारधारा पर आधारित यह शक्ति समय के साथ बदली है, लेकिन उसकी बुनियादी प्रतिबद्धता- भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व अडिग रही है। सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार से लेकर गुरुजी गोलवलकर और अब मोहन भागवत तक की यात्रा में संघ ने वैचारिक दृढ़ता और रणनीतिक लचीलापन, दोनों का परिचय दिया है।

**शाखाएं और अनुशासन: संघ की असली ताकत**
संघ का आधार उसकी शाखाएं हैं। गांवों, कस्बों और महानगरों तक फैली ये शाखाएं केवल व्यायाम या परेड की जगह नहीं, बल्कि संस्कार और संवाद की भूमि हैं। पिछले एक दशक में शाखाओं की संख्या में लगभग 30% की वृद्धि हुई है और स्वयंसेवकों की संख्या एक करोड़ तक पहुँच चुकी है। संघ मानता है कि उसकी असली पहचान अनुशासित और संस्कारित स्वयंसेवकों से ही बनती है।
**बदलाव की मिसाल: गणवेश से विचार तक**
संघ हमेशा रूढ़िवादी कहा गया, लेकिन उसने समय-समय पर बदलावों को स्वीकार किया है। 2016 में गणवेश में किए गए बदलाव इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। केवल ड्रेस ही नहीं, विचारों और रणनीतियों में भी लचीलापन दिखा है। आज का संघ सरकार और समाज दोनों के साथ संवाद करता है और अपनी भूमिका को लेकर अधिक स्पष्ट और सक्रिय है।
**संघर्ष और समर्पण की कहानियां**
इमरजेंसी के दौर (1975–77) में संघ पर प्रतिबंध लगा। हजारों स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए और कई भूमिगत रहकर प्रचार-प्रसार करते रहे। इन्हीं दिनों गुजरात में युवा नरेंद्र मोदी जैसे स्वयंसेवक सक्रिय रहे, जिन्होंने साहित्य तैयार कर जेलों तक पहुँचाया। बाद में यही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और संघ के आदर्शों को नीति और कार्यक्रमों के रूप में लागू करने का प्रयास किया। यह उदाहरण बताता है कि संघ केवल संगठन नहीं, बल्कि समर्पित कार्यकर्ताओं का परिवार भी है।
**संसाधनों से समृद्ध, परंपरा से जुड़ा**
पचास साल पहले झंडेवालान (दिल्ली) स्थित संघ कार्यालय की सादगी आज भी स्मरणीय है- जमीन पर बैठकर भोजन, बिना औपचारिक सदस्यता फॉर्म, केवल डायरी में लिखे पते और फोन नंबर। उस समय ‘गुरु दक्षिणा’ में सौ रुपये भी बड़ी राशि होती थी। अब वही संघ आधुनिक भवनों, सुविधाओं और करोड़ों रुपये के सहयोग के साथ खड़ा है। यह बदलाव संघ की संगठनात्मक ताकत और समाज में उसके प्रभाव दोनों को दर्शाता है।
**संघ और राजनीति का रिश्ता**
संघ स्वयं को राजनीतिक संगठन नहीं कहता, लेकिन भारतीय जनता पार्टी इसका मातृ संगठन मानी जाती है। नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने सत्ता में आने से पहले ही यह स्पष्ट किया था कि संघ का उद्देश्य राजनीति से ऊपर है- यह समाज निर्माण का संगठन है। फिर भी, भाजपा की नीतियों और निर्णयों पर संघ की छाया को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
**विचारधारा और आध्यात्मिक आधार**
संघ की हर शाखा का आरंभ और समापन प्रार्थना और मंत्रों से होता है। “संगच्छध्वं संवदध्वं…” का मंत्र इसकी सामूहिकता और एकता का प्रतीक है। इसी तरह मातृभूमि को समर्पित प्रार्थना “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे…” संघ की पहचान बन चुकी है। ये केवल धार्मिक या सांस्कृतिक भावनाएँ नहीं, बल्कि संघ के कार्यकर्ताओं को एक साझा ध्येय से जोड़ने वाले सूत्र हैं।
*भविष्य की चुनौती: अनुशासन या समावेश?*
आज संघ केवल शाखाओं और स्वयंसेवकों का संगठन नहीं रहा, यह एक विचारधारा और सामाजिक शक्ति बन चुका है। लेकिन अगली शताब्दी में इसकी असली परीक्षा यही होगी कि क्या यह संगठन केवल अनुशासन और एकरूपता तक सीमित रहेगा, या फिर स्वतंत्रता, समावेश और सामाजिक न्याय की धारा का वाहक बनेगा। भारत को विश्व मंच पर सोने का शेर बनाने के लिए संघ, भाजपा सरकार और समाज- तीनों को मिलकर काम करना होगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी यात्रा केवल इतिहास का स्मरण नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने का अवसर है। संघ ने समय-समय पर लचीलापन दिखाया है और साथ ही अपनी मूल विचारधारा पर दृढ़ भी रहा है। अब यह देखना बाकी है कि आने वाली पीढ़ी इसे किस दिशा में ले जाती है—क्या यह केवल परंपरा और अनुशासन का प्रतीक बनेगा, या आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय, समानता और समावेश का भी वाहक होगा। यही प्रश्न संघ की नई शताब्दी की असली कसौटी है।





