फिल्मों की त्वचा के नीचे कुरेदी हुई हिंसा की परतें

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फिल्में कोई समाज सुधार का जरिया नहीं हैं। अलबत्ता कभी-कभी बाल विवाह, विधवा विवाह, छुआछूत, जातिप्रथा, दहेज़ प्रथा, सम्प्रदायवाद जैसी सामाजिक कुरीतियों की तरफ फिल्मकारों ने बारीक़ इशारा जरूर किया, लेकिन उससे हमारा समाज रत्तीभर भी नहीं सुधरा। थोड़ी बहुत बदलाव की बयार शिक्षा, रोज़गार, मनोरंजन, बेहतर जिंदगी और संचार के साधन की सुलभता से बेहतर विश्व की झलक से आई है। बहरहाल हिंदी सिनेमा प्रेम, रोमांस, एक्शन, हिंसा इन्ही दो मूल पगडंडियों पर दशकों से चलता आ रहा है। 70 के दशक से आम हिंदुस्तानी के टूटते सपनों, बेतहाशा बढ़ती मँहगाई, बेरोज़गारी और जनतांत्रिक मूल्यों के दमन से प्रतिरोध स्वरूप विकराल हिंसा समाज का हिस्सा बनती चली गईं हैं। ज़ंज़ीर, दीवार, शोले, शान जैसी फिल्में भले एंग्री यंग मैन की छवि के सहारे रची गईं हों। लेकिन, इन फिल्मों की त्वचा को कुरेदने पर हिंसा की परतें साफ दिखती हैं। अब उससे कहीं ज्यादा हिंसा ओटीटी पर फिल्माई जाने लगी है।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट-2’ झारखंड के कोयला बाहुल्य क्षेत्र धनबाद में रंगदारी और आपराधिक प्रभुत्व के लिए भयंकर हिंसात्मक गुटों के लंबे संघर्ष की लोमहर्षक कहानी है। फ़िल्म की कथानक दो गुटों की निर्मम लड़ाई का विस्तृत वर्णन हैं। सरदार खान (मनोज वाजपेयी) की हत्या सुल्तान कुरेशी (पंकज त्रिपाठी) द्वारा की जाती है। यहाँ से कहानी में दोनों पक्षों के एक-दूसरे को मारने-काटने, डराने, धमकाने का सिलसिला शुरू होता है।
फैज़ल (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) सुल्तान का बेटा है, जो दिन रात गांजे की चिलम में धुत्त रहता है। सुल्तान की मां-बहन उसे अपने बाप और भाइयों की हत्या का बदला लेने के लिए उकसाते रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे जैसे सोया शेर प्रतिशोध की ज्वाला में धधक कर अपने रक़ीबों की लंका को जलाने निकल पड़ता है। हिंसा की इस कहानी में धनबाद में आयरन स्क्रैप के धंधे की कालाबाज़ारी, रंगदारी से सारे टेंडर हथिया लेना, इंटरनेट के द्वारा निष्पक्ष टेंडर होने पर, टेंडर जीतने वाले व्यापारी को रांची एयरपोर्ट से पीछा कर निर्मम हत्या करना, आधुनिकतम मोबाइल की जगह 90 के दशक के आरंभिक नोकिया के मोबाइल सेट और पेजर, घरों में ‘कहानी घर घर की’ जैसे सीरियल देखते लोग उदारीकरण से दो-चार होते भारत की जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
हिंसा के इस खेल में पहले सुल्तान खान, फिर रामाधीर सिंह (तिग्मांशु धूलिया) और आखिरी में फैज़ल खान की निर्मम हत्याएं होती हैं। पूरी फिल्म में देसी कट्टे, पिस्तौल, बंदूक और असाल्ट राइफल, एलएमजी जैसे हथियार दीवाली के पटाखों सरीखे चलते रहते हैं, खून बहते रहते हैं, अपराधी बेख़ौफ घूम रहे हैं।यह एक जंगल राज की कहानी है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि उस दौर में अपहरण, फिरौती, रंडी, हत्या और कानून के लगभग असरहीन होते भयावह माहौल में अधिकांश बड़े व्यापारी बिहार,झारखंड छोड़ दूसरे सूबे में चले गए।
हिंसा के इस अतिरंजित खेल में झारखंड भटके हुए युवाओं, उनमें व्याप्त चेतना का अभाव, बेरोजगारी के आलम में कट्टा थामकर, धौंस जमाकर अपना इलाका निर्मित करने की वजह से एक बेचारगी का आलम प्रस्तुत करता है। इस प्रकार धनबाद इन गोली चलाते गुंडों, रंगदारों से ऊपर सबसे बड़ा किरदार बनकर उभरता है। फ़िल्म में भयंकर रक्तपात से निजात एक खास गीत से मिलती है। बिहार की ख्यात लोक गायिका शारदा सिन्हा द्वारा एक अत्यंत लोक प्रिय लोकधुन को फिल्मी अंदाज में पेश कर गाया गीत बरबस झूमा देता है।
“तार बिजली से पतले हमारे पिया,
ओरी सासु बता तूने ये क्या किया,
सूख के हो गए हैं छुहारे पिया, हारे पिया,
कुछ खाते नहीं हैं हमारे पिया।”

राज कुमार राव (शमशाद आलम), हुमा कुरेशी (मोहसिना-फैज़ल की बीवी) और यशपाल शर्मा (डीजे गायक) के रूप में खूब फबते हैं। परपेंडिकलर और डेफिनिट जैसे किरदार भी फ़िल्म में अनोखा असर छोड़ते हैं। फ़िल्म के स्क्रीनप्ले और गीत के लेखन में पीयूष मिश्रा की प्रभावी भूमिका है, जिन्होंने फैज़ल के बड़े भाई का रोल बखूबी से निभाया है। धनबाद के सबसे बड़े उद्योग अपहरण,गुण्डागर्दी, हत्या लूटमार को दर्शाता एक गीत बेहद छू लेता है।

सैंया काला रे,
तन कला रे,मन काला रे,
काली जुबान की काली गारी,
काले दिन की काली शामें,
सैंया करते जी कोल बज़ारी,
बैरी कोल,कोल,कोल,
छीने तोल, तोल, तोल,
छत आंगन चार दिवारी।

स्नेहा खानविलकर के गाये इस गीत में मानो फ़िल्म की आत्मा ही रो रोकर गा रही है। हिंसा की कीमत बचे हुए लोग किश्तों में ताउम्र चुकाते हैं। फैज़ल की बेवा बीवी मोहसिना अपने छोटे बेटे और जेठ के साथ मुम्बई के एक मकान में रहते हुए बस आने वाले दिन के सपने देखते हैं। फ़िल्म की पटकथा में कई सारे प्लाट हैं, लेकिन इसकी गर्भनाल दो गुटों की भीषण खूनी अदावत है। 90 के दशक की हिंदी पट्टी के कस्बों को उनके जीवंत स्वरूप में पेश करने के लिए निर्देशक, कैमरामैन को बधाई। पूरी फिल्म में रात का हिस्सा ज्यादा है। मानो हिंसा और गैर कानूनी काम रात में सुभीते से किए जाते हैं।

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Sanjay Kumar
संजय कुमार

संजय कुमार अपर संचालक (वित्त), संचालनालय लोक शिक्षण, भोपाल में कार्यरत हैं। उन्हें फिल्में देखना, उस पर अपनी राय लिखना और कविताएं करना पसंद है। एमए (अंग्रेज़ी साहित्य) तक शिक्षित लेखक के शौक़ क्रिकेट खेलने और देखने के साथ साहित्य पढ़ना भी है।