सांच कहे ता ! दिग्विजय के ‘दलित एजेन्डे’ ने विन्ध्य-चंबल में कांग्रेस को पहुँचाया था रसातल में!
मध्यप्रदेश की सत्ता के संकेतक बन चुके विन्ध्यक्षेत्र में किसी भी दल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि मैदान में प्रत्याशी कौन है। फिलहाल कांग्रेस और भाजपा का फोकस इसी पर है। पट्ठेबाजी से हटकर कांग्रेस नई जमावट के लिए कसरत कर रही है, तो भाजपा के सामने रिटायर्ड हो रहे विधायकों की विकल्प ढूँढने की कश्मकश है।
10-11 मार्च को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह रीवा-सतना के दौरे पर थे। उन्होंने मंडलम की बैठकों और जनसभा में जोर देकर यह बात कही कि इसबार ठोकबजाकर जीतने का सामर्थ्य रखने वाले प्रत्याशियों को ही उतारा जाएगा। श्री सिंह ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उनकी कांग्रेस कैसे ठोस बजाकर तय कर पाएगी कि यह चना घुना नहीं है..कांग्रेस में तो ‘थोंथे चने ही ज्यादा घने’ बजते आ रहे हैं।
विन्ध्य के संदर्भ में देखें तो यह कांग्रेस के लिए 2003 में ही ‘वाटरलू’ बना हुआ है और इसका श्रेय भी दिग्विजय सिंह को उसी तरह जाता है जैसा कि यूपी में सीताराम केसरी को कांग्रेस को डुबाने का। केसरी ने बीएसपी से समझौता करके वहाँ कांग्रेस को दूसरे नंबर की पार्टी बन दी और तभी से कांग्रेस रसातल की ओर चलती चली गई।
2003 में ठीक यही वर्कप्लान दिग्विजय सिंह ने विन्ध्य और चंबल में लागू किया। यद्यपि बसपा से यह समझौता खुलेआम नहीं दबे पाँव था, लेकिन यह सब 2002 के दलितों के ‘भोपाल डिक्लेरेशन’ के चलते हुआ।
दलित एजेंडा तैयार करने वाली टीम में डा.अमर सिंह(मुख्यमंत्री के तत्कालीन सचिव) बैरवा साहब और लखनऊ से आयातित थिंक टैंक चन्द्रभान प्रसाद थे। अंदर खाने तय यह हुआ कि जिन सीटों में बसपा मजबूत है वहाँ से कमजोर कांग्रेसी उम्मीदवार दिए जाएं और ऐसा ही बसपा भी करें। फिर बसपा के समर्थन से सरकार बना ली जाएगी।
रीवा-सतना-सीधी की सीटों में मैहर, रामपुर बघेलान, गुढ़, देवतलाब, मऊगंज, सिहावल से ऐसे ही उम्मीदवार उतारे गए। कमाल यह कि इनमें चार सीटें ऐसी महिलाओं को दी गईं जो तब की कांग्रेस की राजनीति में गुमनाम ही रहीं। यही नहीं दिग्विजय सिंह की ओर से प्रचारित किया गया कि ये टिकटें कहा गया कि ये श्रीनिवास तिवारी की सिफारिश पर दी गई तो हैं। दरअसल योजना श्रीनिवास तिवारी जी को निपटाने की भी थी और वे अच्छे से निपट भी गए। इन सीटें से सभी उम्मीदवार न सिर्फ धराशायी हुए अपितु तीसरे चौथे नंबर पर आकर जमानतें भी जब्त करा दीं। इनमें से तीन सीटों पर बसपा के उम्मीदवार जीते भी लेकिन दिग्विजय सिंह और उनके रणनीतिकारों को यह नहीं मालुम था कि यह चुनाव एक और बीएसपी(बिजली-पानी-सड़क) लड़ रही है। इस चुनाव ने ही विन्ध्य में भाजपा को पाँव जमाने का अवसर दिया जो अबतक चुनावी मैदान में ‘अंगद’ की तरह जमा है।
चतुर सुजान दिग्विजय सिंह जब भी विन्ध्यक्षेत्र आते हैं निश्चित ही उनके सामने का 2003 का दृश्य सामने आता होगा जब उन्होंने विन्ध्य की कुशाग्र राजनीतिक समझ का मजाक बनाया था। उनकी जुबान से जिताऊ उम्मीदवार देने की बात इसी पृष्ठभूमि से निकली होगी ऐसा मानता हूँ। कांग्रेस के सामने इसबार यही बड़ी चुनौती है। पिछली मर्तबा बसपा छोड़कर आए पूर्व विधायकों पर एक मुश्त दाँव लगा दिया था इसलिए कांग्रेस यहाँ मुँह के बल गिरी। इसबार बसपाइयों को टिकट दिलाने के पैरोकार के तौरपर अजय सिंह राहुल को प्रचारित किया गया। कांग्रेस तो निपटी ही श्रीनिवास तिवारी की भाँति अर्जुन सिंह का भी राजनीतिक कुल निपट गया। राहुल न घर के रहे न घाट के। संभव है कि राहुल ने पैरवी की हो या साजिश में फँसगए, या उनका ही विवेक था, ये वो जाने पर वे विन्ध्य के क्षत्रप आज भी हैं? ऐसा न तो अब कमलनाथ मानते और न ही दिग्विजय सिंह।
नए उम्मीदवारों की खोज इसबार गैर राजनीतिक तरीके से हो रही है। निजी एजेंसियों से त्रिस्तरीय सर्वे करवाए गए हैं। फायनल सर्वे अभी शेष है। यदि कांग्रेस वाकय पट्ठेबाजी से उलट अच्छे उम्मीदवार दे पाने में सफल होती है तो आज की तारीख में मैं यकीन से कह सकता हूँ कि वह 15 से 20 सीटों तक कामयाब हो सकती हैं। संदर्भ के लिए बता दें कि विन्ध्य में चुनावी राजनीति का चलन जरा लीक से हटकर चलता आया है..इतिहास बताता है कि यह क्षेत्र कभी किसी रौ में नहीं बहा..77 में जब देश से कांग्रेस खारिज हो गई तो विन्ध्य कांग्रेस के साथ खड़ा रहा और 2018 में बीजेपी जब प्रदेश भर में खारिज हो गई तो इस क्षेत्र ने उसका मेरूदंड बनकर सहारा दिया।
प्रत्याशियों के चयन को लेकर इस बार भाजपा भी घन चक्कर में फँसने वाली है। 2003 से लगातार चुनाव जीत रहे इस क्षेत्र के दर्जन भर ज्यादा नेता रिटारमेंट की दहलीज पर खड़े हैं उनका विकल्प ढूँढना बीजेपी को टेढ़ीखीर साबित होने वाला है। इनमें से ज्यादातर अपने ही पुत्र-पुत्रियों-भतीजों को उत्तराधिकारी के तौरपर प्रस्तुत करना शुरू भी कर दिया है।
सतना के नागेन्द्र सिंह नागौद चुनाव लड़ने से संन्यास की घोषणा कर चुके हैं। यहाँ भाजपा ने जब भी किले से बाहर का प्रत्याशी दिया हारी सो उसे सोचना होगा। किले के वंशजों को आगे लेकर बढ़े या नया उम्मीदवार दे। दूसरे नागेन्द्र सिंह गुढ़ पिछली बार ही ऐलान कर चुके हैं कि यह उनका आखिरी चुनाव है। उन्होंने ठेकेदार भतीजे प्रणव प्रताप सिंह को आगे किया है। वे रीवा जिला पंचायत के उपाध्यक्ष हैं। स्पीकर गिरीश गौतम पचहत्तर पार हैं लेकिन मैदान पर डटे रहने की मुद्रा में हैं। पुत्र को स्थापित ककरने की कोशिशों में विफल रहे। सीधी के केदारनाथ शुक्ल भाजपा सरकार बनने के बाद से ही बागी की मुद्रा में हैं। बेटे गुरूदत्त शरण को आगे कर रखा है। केदार जी हर वक्त आरपार लड़ने के तेवर में लहते हैं चाहे पार्टी के भीतर हो या बाहर। सिंगरौली से रामलल्लू वैस की सेवानिवृत्ति तय है। अपराधों के आरोपी बच्चों दूर रहने का अखबारी ऐलान भी कर चुके हैं। रामलल्लू जैसी ही स्थिति अनूपपुर के बिसाहूलाल की भी है। रीवा के त्योंथर से श्यामलाल द्विवेदी और मनगवाँ के पंचूलाल को संकेत मिल चुके हैं कि दोहराए नहीं जाएंगे। जीते-हारे ऐसे ही कईएक उम्मीदवार हैं जो अब पचहत्तर पार की लाइन पर खड़े हैं। भाजपा यहाँ उनका विकल्प देगी या उनके उत्तराधिकारी यह तय कर पाना उसके लिए काफी मुश्किल होगा।
टिकट कटे हुए लोगों के लिए आम आदमी पार्टी एक नया विकल्प तो है ही बसपा हालफिलहाल अपनी लोकतांत्रिक जन्मभूमि विन्ध्य को छोड़ने वाली नहीं..।
अब सवाल उठता है कि अगर आज चुनाव हो जाएं तो क्या स्थिति बनेगी.. जवाब यह है कि उम्मीदवारों को लेकर दोनों पशोपेश में है।
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