कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा को चंद्रमा सभी सोलह कलाओं से युक्त होता है, इसीलिए श्रीकृष्ण ने महारास लीला के लिए इस रात्रि को चुना था। इस रात चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है और मां लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं।वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह रात्रि स्वास्थ्य व सकारात्मकता प्रदान करने वाली मानी जाती है। अपने यहां लगभग सभी पर्व दिन में मनाए जाते हैं, पर शरद पूर्णिमा ऐसा पर्व है, जिसे रात्रि व अर्ध रात्रि में मनाए जाने का विधान है। आश्विन मास की पूर्णिमा को दिन में कोजागर व्रत रखा जाता है और रात्रि में नृत्य के साथ, जिसे ‘कौमुदी उत्सव’ भी कहते हैं, खीर बना कर खुले आकाश के नीचे जाली से ढक कर रख देते हैं। मान्यता है कि इस रात चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है। मान्यता है कि रात भर चांद की रोशनी में शरद पूर्णिमा पर खीर रखने से उसमें औषधीय गुण आ जाते हैं। फिर अगले दिन सुबह-सुबह इस खीर का सेवन करने पर सेहत अच्छी रहती है।हिंदू धर्म में सभी पूर्णिमा तिथियों में अश्विन माह की शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व होता है। शारदीय नवरात्रि के खत्म होने के बाद अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि पर शरद पूर्णिमा या कोजागर पूर्णिमा मनाई जाती है।
इस वर्ष शरद पूर्णिमा 09 अक्टूबर, रविवार को है। शरद पूर्णिमा के दिन मां लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। इस रात को सुख और समृद्धि प्रदान करने वाली रात माना जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि कोजागरी पूर्णिमा पर भी दीवाली की तरह ही मां लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं और घर-घर भ्रमण करती हैं। शरद पूर्णिमा पर मां लक्ष्मी की विशेष पूजा की जाती है और इस दिन घर की साफ-सफाई करते हुए मां लक्ष्मी के मंत्रों का जाप किया जाता है। मान्यता है कि जिन घरों में सजावट और साफ-सफाई रहती है और रातभर जागते हुए मां लक्ष्मी की आराधना होती है, वहां पर देवी लक्ष्मी जरूर वास करती हैं और व्यक्ति को सुख, धन-दौलत और खुशहाली का आशीर्वाद प्रदान करती हैं। इसके अलावा शरद पूर्णिमा पर रातभर खुले आसमान के नीचे खीर रखी जाती है।
मान्यता है कि रात भर चांद की रोशनी में शरद पूर्णिमा पर खीर रखने से उसमें औषधीय गुण आ जाते हैं। फिर अगले दिन सुबह-सुबह इस खीर का सेवन करने पर सेहत अच्छी रहती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार चन्द्रमा को मन और औषधि का देवता माना जाता है। शरद पूर्णिमा की रात को चांद अपनी 16 कलाओं से परिपूर्ण होकर पृथ्वी पर अमृत की वर्षा करता है। इस दिन चांदनी रात में दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है इससे विषाणु दूर रहते हैं। शरद पूर्णिमा की शीतल चांदनी में खीर रखने का विधान है। खीर में मौजूद सभी सामग्री जैसे दूध,चीनी और चावल के कारक भी चन्द्रमा ही है,अतः इनमें चन्द्रमा का प्रभाव सर्वाधिक रहता है। शरद पूर्णिमा के दिन खुले आसमान के नीचे खीर पर जब चन्द्रमा की किरणें पड़ती है तो यही खीर अमृत तुल्य हो जाती है जिसको प्रसाद रूप में ग्रहण करने से व्यक्ति वर्ष भर निरोग रहता है। प्राकृतिक चिकित्सालयों में तो इस खीर का सेवन कुछ औषधियां मिलाकर दमा के रोगियों को भी कराया जाता है। यह खीर पित्तशामक,शीतल,सात्विक होने के साथ वर्ष भर प्रसन्नता और आरोग्यता में सहायक सिद्ध होती है। इससे चित्त को शांति मिलती है। शरद पूर्णिमा पर रात भर जागते हुए मां लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए।
व्यक्ति को शरद पूर्णिमा की रात को कम से कम कुछ घंटों के लिए चंद्रमा की शीतल चांदनी में बैठना चाहिए।
इस दिन बनने वाला वातावरण दमा के रोगियों के लिए विशेषकर लाभकारी माना गया है। शास्त्रों के अनुसार लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। मान्यता है कि इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है,जिससे स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
शरद पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा की तरफ एकटक निहारने से या सुई में धागा पिरोने से नेत्र ज्योति बढ़ती है।
शरद पूर्णिमा की रात को 10 से 12 बजे का समय जब चंद्रमा की रोशनी अपने चरम पर होती हैं, इसलिए इस दौरान चंद्रमा के दर्शन जरूर करना चाहिए। यह पर्व बृजवासियों को सर्वाधिक प्रिय है। कारण यह कि इस रात कृष्ण ने गोपियों के साथ रास नृत्य किया था। श्री कृष्ण को समझ भी लें तो भी महारास को समझने के लिए गोपी चरित्र को समझना जरूरी है।वास्तव में श्री कृष्ण ही रस स्वरूप हैं। रसानाम समूह: इति रसा:, अर्थात रसों के समूह को ही रास कहते हैं। परब्रह्म परमात्मा जो रस स्वरूप हैं,उनकी रसमयी क्रीड़ा जो रसों का समूह हैं,अर्थात रसों का यह समूह ही रास है। संत गण इसलिए कहते हैं कि परमात्मा का अहसास ही, आत्मा का परमात्मा से मिलन ही रास है। जीवात्मा का परमात्मा से मिलन ही महारास है। महारास की गोपियां कोई साधारण स्त्री नहीं हैं। जिनकी आंखों में काजल बनकर बसे हुए हैं कृष्ण,वही जीव गोपी है। पुरुष हो या स्त्री,जो कृष्ण प्रेम में डूब गया,जिसे आठों याम कृष्ण का ही अहसास होता हो,वही गोपी है। वहीं भक्ति की बड़ी खूबसूरत परिभाषा नारद जी बताते हैं,परमात्मा का विस्मरण होते ही यदि ह्रदय व्याकुल हो जाए ,वही भक्ति है। इंद्रियों का भी एक अर्थ गोपी होता है।
तो जो अपनी इंद्रियों से भगवत रस का पान करे ,वही गोपी है। अतः महारास नृत्य व संगीत की ऐसी अनुपम लीला है, जिसमें सदेह धारी भी विदेह हो जाए,चेतना का परम चेतना से मिलन हो जाए। भक्ति की शुद्धतम स्थिति भी यही है। यह भी माना जाता है कि गोपियां तो वेदों की वे एक लाख ऋचाएं हैं, जिनमें से करीब ८० हजार तो कर्मकांड हैं,१६ हजार उपासना कांड व ४ हजार ज्ञान कांड की हैं। यह भी कहा जाता है कि गोपियां तो त्रेता युग की जनकपुरी की वे स्त्रियां हैं, पंचवटी की वे भीलनियां हैं, जिन्होंने श्री राम के स्वरूप को अपने मन मंदिर में बसा लिया था। भीलनियाँ तो विरह में आत्महत्या तक करने जा रहीं थीं,तब मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने उन सबको द्वापर में मिलने का वचन दिया था। इसी तरह अन्य कई द्वापर युग के पूर्व के श्री हरि विष्णु के अवतारों की भक्ति व कृपा से गोपी बनने की कई मान्यताएं संत गण बताते हैं। दंडक वन के ऋषियों, दैत्य कन्याओं,सच्चे भक्तों ने ही जन्म जन्मांतर की भक्ति के बाद गोपी के रूप व भाव को प्राप्त किया है। श्री कृष्ण द्वारा खेली गई लीला, जिसे महारास लीला कहते हैं, को समझने की दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक तो यह कि सारा ब्रह्मांड नृत्य रत है, बीच में प्रकाश पुंज स्वरूप कृष्ण तत्व स्थिर है और समस्त तारामंडल हैं बृज की गोपियां। इसी दृश्य की तुलना वृंदावन में हुए महारास से की जा सकती है। दूसरा अर्थ है इंद्रियों से बंधे जीव का पूर्ण पुरुष कृष्ण के साथ नर्तन।इंद्रियों का अर्थ ‘गोपी’ भी होता है। जो अपनी इंद्रियों से भगवत रस का पान करे, उसे गोपी कहा जाता है। रासलीला में गोपियों के भी दो भेद हैं। नित्यसिद्धा व साधनसिद्धा।
इनमें साधनसिद्धा गोपियों के भी कई प्रकार हैं। जैसे श्रुतिरूपा, ऋषिरूपा, अन्यपूर्वा व अनन्यपूर्वा आदि। जिन वेदाभिमानियों ने सिद्ध तो कर दिया कि ईश्वर है, पर स्वयं जिनका कृष्ण से साक्षात्कार नहीं हुआ, वे श्रुतिरूपा गोपी बन कर बृज में पैदा हुए। ऋषि जीवन जीकर भी जो श्रीकृष्ण को समझे नहीं सके, वे ऋषिरूपा गोपी बन कर बृज में पैदा हुए। वैवाहिक जीवन जीते हुए उस जीवन के प्रति अरुचि होने पर जो कृष्णोन्मुख हुए, वे अन्यपूर्वा गोपी बन कर वृंदावन में पैदा हुए और जो जन्म से ही वैरागी पैदा हुए, जैसे- मीरा या कि व्यासपुत्र, उन्हें अनन्यपूर्वा गोपी कहा जाता है। गर्ग संहिता में आया है कि एक बार श्रीकृष्ण को कुंज तक आने में देर हुई। गोपियां बेहाल। कुछ देर बाद जब श्रीकृष्ण आए तो उन्होंने बताया कि यमुना के उस पार उनके गुरु दुर्वासा ऋषि ठहरे हैं। उन्हीं के दर्शन करके आते हुए देर हो गई। गोपियां चकित। उन्होंने कहा- अगर दुर्वासा ऋषि आपके भी गुरु हैं तो हमारा कर्तव्य बनता है कि उनके लिए पकवान बना कर ले जाएं। श्रीकृष्ण ने कहा- दुर्वासा सिर्फ दूर्वा का रस ही पीते हैं, फिर भी क्या पता, तुम्हारी निष्ठा देख कर पकवान ग्रहण कर लें। कई सारी गोपियां दुर्वासा के सत्कार के लिए स्वादिष्ट आहार का थाल लेकर चलीं। मगर यह क्या? यमुना में बाढ़ आई हुई थी। उदास गोपियां श्रीकृष्ण के पास दुखड़ा रोती हुई आईं। श्रीकृष्ण ने कहा- दोबारा फिर यमुना के पास जाओ और कहो कि अगर कृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी रहा है और नितांत अनासक्त है तो हमें मार्ग दें। गोपियां मन ही मन हंसी कि हमेशा तो हमारे साथ रास रंग खेलते हैं और कह रहे हैं अपने को अनासक्त योगी। फिर भी उन्होंने यमुना तट पर जाकर वही शब्द दोहराए। यमुना ने उसी क्षण गोपियों को राह दे दी।
यमुना पार जाकर गोपियों ने दुर्वासा ऋषि को अपने हाथ से थाल पर थाल खिलाए। गोपियां जब लौट कर चलीं तो यमुना में फिर बाढ़ आई हुई थी। गोपियों ने दुर्वासा के पास लौट कर अपनी परेशानी व्यक्त की। दुर्वासा ऋषि ने पूछा- आ कैसे पाई थीं? गोपियों ने श्रीकृष्ण के शब्द दोहरा दिए। उत्तर सुन कर दुर्वासा ने गोपियों से कहा- जाओ और जाकर यमुना से कहो कि दुर्वासा अगर नित्य उपवासी है तो हमें राह दें। वैसा ही हुआ। अचरज में डूबी गोपियां सोचने लगीं कि ये गुरु-शिष्य दोनों विचित्र हैं। एक ओर ढेर सारे पकवान भरे थाल डकार जाने वाला गुरु स्वयं को नित्य उपवासी कह रहा है और हमारे साथ रास रंग करने वाला उनका शिष्य स्वयं को योगी ब्रह्मचारी बताता है। गोपियां नादान हैं। दरअसल श्रीकृष्ण और दुर्वासा दोनों आसक्ति रहित थे। श्रीधर स्वामी के अनुसार श्रीकृष्ण ने गृहस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम दोनों को एक में मिला दिया था। ऐसे अनासक्त योगी श्रीकृष्ण की आराधना करने वाला धीरे-धीरे स्वयं भी निष्काम हो जाता है। कर्म वो भी करता है, मगर नितांत अनासक्त भाव से। (याद करें गीता का अनासक्त कर्म सिद्धांत) रासलीला में गोपियां पार्थिव शरीर का अतिक्रमण कर गई होती हैं। वे मात्र चिति तत्व हैं। इसीलिए भागवतकार ने कहा है- मायारहित शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है। रास में आत्म तत्व का परम तत्व में निर्विकार मिलन होता है। सच तो यह है कि यह कोई लौकिक काम लीला नहीं, वरन अलौकिक काम विजय लीला है। आत्मा के परमात्मा से मिलन की अलौकिक प्रेम व समर्पण की लीला है। जय श्री कृष्ण।