Shivraj Singh Chouhan’s Stature: केंद्र की राजनीति में ‘मामा’ के कद का जवाब नहीं!
शिवराज सिंह चौहान अब मध्य प्रदेश की राजनीतिक सीमा से बाहर निकलकर केंद्र की राजनीति का हिस्सा बन गए। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, इससे कहीं बहुत ज्यादा है। इसलिए कि प्रदेश के इस पूर्व मुख्यमंत्री के राजनीतिक भविष्य लेकर पिछले चार महीने में बहुत सारे अनुमान लगाए गए। लेकिन, किसी भी अनुमान में यह पुख्ता तथ्य नहीं था कि वे राज्य के मुख्यमंत्री पद से निकलकर केंद्र में कोई बड़ी जिम्मेदारी निभाएंगे। केंद्रीय मंत्री बनना बड़ी बात है, पर उससे भी बड़ा है पार्टी में तवज्जो मिलना, जो आज शिवराज सिंह को मिली। एनडीए सरकार के शपथ समारोह में शिवराज सिंह को जो जगह दी गई, यह एक तरह का इशारा है कि उनका भविष्य किस दिशा में जाएगा! उन्होंने प्रधानमंत्री के बाद 6ठे नंबर पर शपथ ली।
राजनीति में अमूमन दो तरह के नेता होते हैं। एक वे जो सत्ता के समीकरण गढ़ने में माहिर होते हैं और हर स्थिति में खुद के लिए जगह बना लेते हैं। ऐसे नेताओं की संख्या अनगिनत है। लेकिन, जब वे राजनीति के दायरे बाहर होते हैं, तो उन्हें पहचाना भी नहीं जाता। दूसरी तरह नेता लोगों के दिलों में जगह बनाकर राज करते हैं। राजनीति तो वे करते ही हैं, पर जनता से उनका जुड़ाव दिल से होता है और यह दिखाई भी देता है। भारतीय राजनीति के केंद्र में ऐसे नेताओं में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद अटल बिहारी का नाम लिया जा सकता है। राज्यों की राजनीति में यह जगह पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु, तमिलनाडु में जयललिता, ओडिसा में वीजू पटनायक और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह को ही मिली! ये चार नेता बरसों तक अपने राज्यों में मुख्यमंत्री रहे, लेकिन जनता के दिलों में बसकर। उन्होंने कोई जादू नहीं चलाया, बस अपनी काम करने की शैली ऐसी रखी जिसमें जनभावना झलकती रही।
शिवराज सिंह ने मुख्यमंत्री पद के अपने करीब 18 साल लम्बे कार्यकाल में सबसे बड़ा कमाल यह किया कि जनता ने उन्हें अपना मान लिया। जबकि, किसी नेता के प्रति जनता ऐसी भावना कम ही रखती है। इसका कारण यह कि नेताओं को कभी ईमानदार जनसेवक के रूप में नहीं देखा जाता। लोगों को लगता है कि नेता जो करते हैं, दिखावे के लिए करते हैं। उनकी हर बात में राजनीतिक स्वार्थ छुपा होता है। लेकिन, शिवराज सिंह अपने पूरे कार्यकाल में उससे परे रहे। उनके काम करने शैली, जनता से जुड़ाव का तरीका और उनके फैसलों से भी अलग झलक दिखाई देती रही।
वे बालिकाओं के ‘मामा’ बने रहे, तो महिलाओं के ‘भाई।’ ये दोनों सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि एक नजदीकी रिश्ते का प्रतीक है, जो शिवराज सिंह ने प्रदेश में बनाया और उसे निभाया भी। आज प्रदेश में शिवराज सिंह अपने नाम से ज्यादा ‘मामा’ नाम से लोकप्रिय है। उन्होंने गरीब लड़कियों की पढाई और शादी के लिए जो योजनाएं चलाई, वे बाद में देश के कई राज्यों ने अपनाई। इसके बाद अपने चौथे कार्यकाल से कुछ पहले उन्होंने ‘लाड़ली बहना’ नाम से गरीब महिलाओं की आर्थिक मदद की जो योजना संचालित की, उसने उनकी जड़े तो मजबूत की ही, मध्यप्रदेश में भाजपा की जड़ें भी इतनी गहराई तक उतार दी कि जिन्हें न तो विधानसभा चुनाव में हिलाया जा सका और न लोकसभा चुनाव में। इसका श्रेय सिर्फ शिवराज सिंह के खाते में हो दर्ज होगा।
जिन्होंने शिवराज सिंह को नजदीक से देखा और समझा है, वे जानते हैं कि वे सिर्फ कार्य शैली से ही जनता के नेता नहीं हैं, उनकी भाव भंगिमाएं और भाषा शैली भी जनता और खासकर महिलाओं को प्रभावित करती है। इसे उनका राजनीतिक चातुर्य ही समझा जाना चाहिए कि उन्होंने परिवार की महिलाओं के दिलों में ‘भाई’ की तरह जगह बनाई। उससे पहले बालिकाओं के ‘मामा’ बनकर जिम्मेदारी निभाई। उनके इन दो फैसलों ने मध्यप्रदेश में भाजपा की राजनीति का चेहरा ही बदल दिया। इसी का नतीजा है कि उन्हें सम्मान के साथ केंद्र में जगह दी गई। अब वे सिर्फ केंद्र सरकार के ही बड़े नेता नहीं हैं, पार्टी में ओबीसी का भी बड़ा चेहरा हैं।
शिवराज सिंह में और अच्छी बात ये भी है, कि वे कभी पार्टी लाइन लांघने की कोशिश नहीं करते। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने हमेशा राजनीतिक मर्यादा का पालन किया। इस बार के विधानसभा चुनाव में सारी मेहनत के बावजूद जब उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तब भी वे संयत बने रहे और पार्टी के फैसलों को शिरोधार्य किया। उनमें एक अच्छाई यह भी है कि वे पार्टी के आदेश का पालन करने में कार्यकर्ता बन जाते हैं, जो बड़े नेताओं में दिखाई नहीं देता। जबकि, शिवराज सिंह ने मुख्यमंत्री पद न मिलने के बाद भी वही किया, जो पार्टी ने कहा। उनके किसी बयान और भाव से कभी नहीं झलका कि उन्हें पांचवी बार मुख्यमंत्री न बनाए जाने की पीड़ा है। वे हमेशा कहते आए हैं, कि वे पार्टी के कार्यकर्ता हैं, पार्टी उन्हें जो काम सौंपेगी, वे उसे जिम्मेदारी से निभाएंगे। उन्हें विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ने का निर्देश मिला, वे लड़े और 8 लाख से ज्यादा वोटों से जीते भी। यही वजह है कि आज वे ऊंचाई पर पहुंच गए जहां से आगे बढ़ने के सारे रास्ते खुले दिखाई देते हैं।
हेमंत पाल
चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।
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