Sidhi Urination Act: आदिवासियों को रिझाने के जतन पर “मूत्रपात”
सीधी की घृणित घटना पर डॉ स्वाति तिवारी की त्वरित टिप्पणी
विंध्य के वरिष्ठ पत्रकार जयराम शुक्ल ने आज फेसबुक पर लिखा है कि सीधी जिले में हुई घिनौनी घटना सीधी-सिंगरौली इलाके में कोई नई बात नहीं है। बस ऐसी घटना का वीडियो पहली बार सामने आया। उन्होंने विंध्य इलाके की इस सच्चाई को बहुत कम शब्दों में विस्तार से कह दिया। जबकि, मालवा क्षेत्र में ऐसी अति को ‘आग मूतना’ कहा जाता है।
नया तो यह है कि इस मूत की आग पर सियासत की रोटियां सेंकने का यही तो अवसर है। इस गंगा में हाथ धोने के बहाने जब एक पार्टी आदिवासी संस्कृति को अपना आदर्श बताने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती!
यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने आदिवासियों को रिझाने के लिए जितने भी जतन किये, उस पर इस घिनौनी घटना ने पानी फेर दिया है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की यात्रा से लेकर,रानी कमलापति , शंकर शाह, रघुनाथ शाह, टंट्या मामा, सबके नाम को लेकर किए गए उपक्रम, कार्यक्रम का असर बौना साबित न हो जाय । हालांकि सरकार अपने स्तर पर इस घटना के बचाव और उपाय के सभी स्तरों पर प्रयास कर रही है लेकिन जनता उसे कैसे लेती है यह तो भविष्य के गर्त में छुपा हुआ है।
आज रानी कमलापति कितनी दुखी और भयभीत होगी! … क्या पता कल कोई सत्ता का साथी सिरफिरा कहीं स्टेशन पर उनकी ही मूर्ति के पीछे यही वीडियो सीन न फिल्मा ले!
रानी दुर्गावती के वंशजों पर यह दृश्य अत्याचारों और शोषण का कितना और कैसा भयावह परिदृश्य रच बैठा है, जिसने राजनीति के इस नंगे और घिनौने, वीभत्स सच को उजागर कर दिया। यह नंगा ही नहीं घिनौना खेल इतना वीभत्स है कि इसकी कल्पना से ही उबकाई आ जाए। यह सोचना भी मुश्किल है कि कोई उस वीडियो को बना ही कैसे सकता है, देख भी कैसे सकता है। … उससे भी कहीं ज्यादा एक व्यक्ति इस घटिया हरकत को होशो-हवास में कर भी कैसे सकता है! समाज और लोग उसे झेल भी कैसे सकते हैं। इस तरह के घिनौने अत्याचार तो शायद अंग्रेजों ने भी नहीं किए होंगे, जो हमारे आज — प्रतिनिधि महोदय कर रहे हैं!
मुझे जयराम शुक्ल की इस बात में सच्चाई लग रही है। वे उस क्षेत्र के ही पत्रकार है और उनसे बेहतर कौन बता सकता है कि उस इलाके में यह घटना उजागर पहली बार हुई। यानी वहां ऐसी घटनाएं होती रहती है। इस समय इस वीडियो का सामने आना या लाया जाना क्या कोई साजिश का हिस्सा है! आशंका यह भी है कि यह वीडियो तीन माह का है। यह भी बताया जा रहा कि साल भर पुराना है। ऐसी शर्मनाक घटना आज की हो, कल की हो या साल भर पुरानी उससे अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती।
देखिए थाने में किस शान से चलकर जा रहा है और पुलिस का हाथ उसकी पीठ पर है।”
आदिवासियों के नाम पर संविधान की अनुसूची और धाराओं का बखान करने वाली सरकारें किसी भी पार्टी की क्यों न हो, आदिवासियों के नाम पर सभी ने अपने फायदे गिन लिए। वास्तव में तो आदिवासियों का भला किसी ने नहीं किया। सीधी जैसी बड़ी जगह पर घटित यह घटना इस बात की तरफ भी इशारा करती है, कि आदिवासियों की दूरस्थ दुर्गम स्थानों पर क्या दुर्गति होती होगी!
इन दिनों मध्यप्रदेश ही नहीं देश भर में आदिवासियों को एक बड़े वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रदेश के स्टेशन आदिवासी रानी के नाम हो गए। इंदौर के चौराहे टंट्या भील को समर्पित कर दिए गए। क्योंकि, राजनीतिक पार्टियां भयाक्रांत है कि देश का सबसे वोट बैंक तो आदिवासी है, उन्हें कैसे साधा जाए! उन्हें तमाम लालच भी ज्यादा लुभा नहीं पाते। वे अब भी जंगल के भोले भाले लोग है। पर, लालच और लॉलीपॉप बांटने वाली पार्टियां आदिवासी भाई-बहनों से मुखातिब है, तो जाहिर है कि सत्ता के नशेडी माथे पर आग तो मूतेगें ही! सत्ता चाहने वाले गंजेड़ी उसे बटोरकर जनता को यह अभिषेक भी दिखाएंगे। लेकिन, सच यह है कि आदिवासी अब भी केवल उनके बड़े-बड़े कार्यक्रमों में नाचते झूमते दिखाए जाने के लिए ही इस्तेमाल होंगे। उस नाचने के बाद असली नाच यही है जो हमने वीडियो में देखा।
भरोसा न हो तो देख सकते है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराध के अलग से आंकड़े इकठ्ठा करता है। ब्यूरो की रिपोर्ट दिखाती हैं कि इस तरह के मामलों में कोई कमी नहीं आ रही। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में देश में अनुसूचित जनजाति के लोगों के साथ अत्याचार के 8,272 मामले दर्ज किए गए, जो 2019 के मुताबिक 9.3 प्रतिशत का उछाल आया है। इन मामलों में सबसे आगे रहा मध्य प्रदेश, जहां कुल मामलों में से 29% मामले (2,401) दर्ज किए गए। अदालतों में आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार के कम से कम 10,302 मामले लंबित हैं।
जिन मामलों में सुनवाई पूरी हुई उन्हें कन्विक्शन या सजा होने की दर महज 36% है। इसका मतलब यह कि आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार के मामलों में पुलिस की जांच में कमी रह जाती है। इस वजह से आरोपियों को सजा नहीं हो पाती। अब कमी क्यों रह जाती है, यह भी सर्वविदित है। अत्याचार सहने वाला कमजोर है, तो उसे दबा दिया जाता है और करने वाला बलवान इसलिए अच्छे से अच्छे पहलवान भी अंत में चुप हो गए। लोकतंत्र भी सामंती मानसिकता को समाप्त करने में कामयाब नहीं हो पाया। दरअसल, सत्ता का अर्थ ही सामंती हो जाना है! आदिवासी उत्पीड़न की घटना कोई भी हो, जब तक किसी वजह से हो-हल्ला नहीं मचता। पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। तभी तो लिखा जा सकता है कि पहली बार उजागर हुई सिर पर मूतने की ऐसी हरकतें पहले भी की जाती रही होंगी।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (इसका सही नाम) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अत्याचार और घृणा अपराधों को रोकने के लिए भारत की संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था। यह अधिनियम लोकप्रिय रूप से एससी/एसटी अधिनियम, पीओए या केवल ‘अत्याचार अधिनियम’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन, इसका भय कहां दिखाई देता है! यदि वास्तव में होता, तो क्या इस तरह का वीडियो कैसे बनता!
सवाल यहीं ख़त्म नहीं होते, बल्कि यहाँ से शुरू होते हैं। अब सरकार इसका जवाब दे। सीधी कर्मयोद्धा बंका बैगा की भूमि है, ऐसी वीभत्स ठसक को उनके वंशधर कैसे भूल पाएंगे और भूलना भी नहीं चाहिए और जनता की याददाश्त कमजोर होती है, पर राजनेताओं की नहीं! … तो जरा याद करें –
सीधी में पत्रकारों और रंगकर्मियों की वो परेड बाजार की नहीं, पुलिस थाने की थी!
… और ताजा घटना सत्ता जनित रसूख की उसी ठसक का विस्तार है!