Sidhi Urination Incidence: बिना अपराध एक स्त्री को सजा ?

उसे तो वैसे ही सजा मिल गई, बेघर करने की सजा क्यों ?

Sidhi Urination Incidence: बिनाअपराध एक स्त्री को सजा ? 

स्त्री अस्मिता पर डॉ. स्वाति तिवारी की संवेदनशील टिप्पणी 

बहुत साल पहले मैंने एक लेख लिखा था उन बच्चों के लिए जो बिना अपराध अपनी  माँ  के साथ कारावास में रहते है .उन नन्हे बच्चो का क्या कसूर जो बिना  अपराध बंद होते है जेलों में ,जो  पलते है उन  अपराधियों के बीच .यह उन बच्चों के स्वस्थ जीवन में बाधक परिवेश है ,उनका विकास असम्भव ना सही लेकिन सामान्य भी नहीं होता ,आज फिर एक सवाल है ,घर एक व्यक्ति  से नहीं बनता घर एक साझा आशियाना होता है उन सभी का जो उसमें रहते है ,प्रवेश शुक्ला  के घिनोने अपराध के बाद सरकार ने आनन् फानन में उसके घर पर बुलडोजर चलवा दिया . उस घर में प्रवेश शुक्ला अकेला नहीं रहता था ,ना ही वह घर अपराधियों की शरण स्थली था  यह विडम्बना ही थी कि प्रवेश शुक्ला  जैसा असंस्कारी,अहंकारी   बेटा उस घर में जन्मा था .

ये सवाल और यह संवेदना ना तो उस अपराधी के प्रति है ,ना ही जातिगत ,धर्म का भी कोई प्रभाव नहीं है , ब्राह्मण होने का तो बिलकुल भी नहीं ,एक स्त्री होने से एक स्त्री को लेकर मन में उठे है.इसदृष्टि से भी विचार उठना स्वाभाविक है, यहाँ स्त्री प्रश्न या स्त्री दृष्टि ही महत्पूर्ण है.

प्रवेश शुक्ला को कठोर दंड दिया जाना ही चाहिए क्योंकि अक्षम्य अपराध था उसका .लेकिन एक बार विचार कीजिये एक पराये घर की बेटी उस घर में बहू बन कर आई थी ,वह बेटी किसी की भी हो सकती  है ,आपकी ,हमारी ,माननीय लोगों, की भी? क्या एक आदमी हत्या करे तो सारे खानदान को फांसी दी जाने का कोई  प्रावधान कानून में है ?बहनों की हिमायती सरकार ने एक पीड़ित दलित के तो पैर धो लिए लेकिन एक ब्राहण बेटी ,एक संस्कारी बहू जिसने कैमरे के सामने भी अपना घूँघट नहीं हटाया उसे किस अपराध की सजा दी गयी ?उसे बेघर करके ?उसने बार बार कहा भी की मैं बच्ची को लेकर कहाँ जाउंगी ?हमें बेघर ना करें .मेरा क्या कसूर है ?उसने जो भी किया उसके लिए उसे सजा  दीजिये मुझे क्यों ?वो घर, जिसपर बुलडोजर चला है वो भी उसके पति के नाम नहीं, बल्कि दादी के नाम है फिर भी उसे गिरा दिया गया।

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फोटो -प्रवेश शुक्ल की माँ रोते हुए

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घर तोड़ने का लाजिक क्या कि अवैध निर्माण था ?तो पहले क्यों नहीं तोडा गया जब वह मुस्टंडा  वहां रह रहा था ?उस घर में एक स्त्री अपनी गोद के बच्ची के साथ  अपने पति की इस भयानक करतूत के बाद सुरक्षित ,और शर्मिंदगी से बचते हुए रह सकती थी ,बेटे के अपराध से सामाजिक प्रताड़ना और उपेक्षा झेलते बुजुर्ग ब्राह्मण दंपत्ति उसके माता पिता चुप चाप अपनी पीड़ा झेलते रह लेते . सामाजिक जीवन में इस बोध के साथ जीना ही क्या कम सजा थी कि अपराधी उनका बेटा है  ? उस स्त्री  का पति है ? यह मानवीय संवेदना का  समय था .इन परिस्थितियों में  ओरतें बहुत संवेदनशील मानसिक उलझनों को फेस करती है ,अन्दर से टूट जाती है ,बर्दाश्त नहीं कर पाती पीड़ा का अपमान ,मायेक तक जाने से बचती है .वे घर की इज्जत उछलते नहीं देख  सकती तब वे एक आड़ ,एक छत का सहारा लेती है जो उसे उन नज़रों से बचा सके जो उन पर हंस रहे होते है . सीता जी ने तक कठिन समय में एक तिनके/ कुश की आड़ की थी .यह ओट स्त्री की अस्मिता होती है .

उस स्त्री  के लिए इससे बड़ी सजा क्या हो सकती  थी की इस घटना के बाद वह अपना दाम्पत्य जीवन कभी सामान्य नहीं जी पायगी ?उसे और उन्हें तो सजा प्रवेश शुक्ला  ने ही दे दी थी .हमें देने की जरुरत ही क्या थी ? हुआ ये की  अपराधी तो सरकारी घर सरकार की रोटियों के साथ सुरक्षित  छत के नीचे सुरक्षाकर्मियों  के साए में रह रहा है ,और परिवार सड़क पर खाना बना रहा है ,बहू किसी आड़ रहना भी चाहे तो कहाँ ?एक नन्ही बच्ची मौसम की मार सहे ?नहीं ये उचित नहीं है सजा उन्हें क्यूँ जो बिना अपराध उस घर में रहते थे .क्या जब हम अपनी बेटी ब्याहते हैं तो इस दिन की कल्पना कर सकते है ? घर किसी एक व्यक्ति का नही होता .वह साझा होता है उन सबका जो उसमें रहते है .आप  हत्यारे ,गुंडे ,सभी के घर तोड़ देते हैं यह सोचे बिना की उस घर की ओरतें बेवजह ,बेपर्दा हो जायेंगी . यह न्याय प्रणाली का कोई हिस्सा नहीं ,यह एक स्त्री की अस्मिता पर चोंट  है . क्या  पति के अपराध की सजा एक स्त्री को, एक माँ को ,एक बहन को, एक नन्ही बेटी ,को नहीं दे दी गयी ? घर तोड़ने के लिए नहीं होते .सरकारें तो बेसहारा लोगों के लिए आश्रय स्थल ,अपना घर जैसी  संस्थाएं बनाती और  चलाती है .फिर तोड़ने के निर्णय जल्द बाजी तो नहीं ? प्रवेशने अपने परिवार ,समाज सबको शर्मिंदा किया .भयानक अपराध ,लेकिन सिर्फ वे तीन स्त्रियाँ ,एक माँ ,एक पत्नी और एक बच्ची को लेकर  ये बात है .

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