Silver Screen: तकदीर से मिली ‘जंजीर’ से बदली अमिताभ की तकदीर!

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Silver Screen: तकदीर से मिली ‘जंजीर’ से बदली अमिताभ की तकदीर!

 

हिंदी फिल्मी दुनिया को 100 साल से ज्यादा हो गए। इस लंबे दौर में कई फिल्में आई, कई एक्टरों और डायरेक्टरों ने हिंदी फिल्मों के उत्थान में अपना योगदान दिया। फिल्म निर्माण का शुरूआती दौर खामोश फिल्मों का था। फिर धीरे-धीरे इनमें बदलाव आता गया। फ़िल्में बोलने लगीं, फिर इनमें गाने सुनाई देने लगे और लंबे अरसे बाद फिल्में रंगीन हुई। आज जो फिल्में थियेटर में रिलीज होती है, उन्हें फिल्म निर्माण का सबसे आधुनिक रूप कहा जा सकता है। समय के साथ थियेटरों का रूप बदला, साथ में फ़िल्में भी और दर्शकों का फ़िल्में देखने का टेस्ट भी।

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हर नई पीढ़ी कुछ नया देखना चाहती है और फिल्म निर्माता उस टेस्ट के मुताबिक भी उसी तरफ मूड जाते हैं। शुरू में धार्मिक गाथाओं और राजा-महाराजाओं पर फ़िल्में बनी। फिर एक लम्बा दौर प्रेम कहानियों का भी आया। इसके साथ ही बदले की भावना पर बनी फ़िल्में बनती रही। एक समय ऐसा भी आया जब डाकुओं की कहानियों पर फिल्म बनाने के प्रयोग हुए। हीरो भी डाकू होता था, पर साथ में उसे दिलदार दिखाया जाता रहा। फिर डिस्को वाली फिल्मों का भी समय आया, जिसने मिथुन चक्रवर्ती को स्टार बनाया! लेकिन, इन सबके बीच गुस्सैल नायक वाली फ़िल्में भी आई, जिसने परदे पर हीरो का नया रूप दिखाया। इस अनोखे युग की शुरुआत की थी अमिताभ बच्चन ने!

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हिंदी में हर साल एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। सवा सौ साल में कितनी फिल्में बनी होगी, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। लेकिन, यदि अच्छी फिल्मों के बारे में बात की जाए या उन्हें याद किया जाए तो फिल्म प्रेमी दस बेहतरीन फिल्मों के नाम भी नहीं बता पाते, जिन्हें वे अपने नजरिए से श्रेष्ठ फ़िल्में मानते हैं। जब कभी ये बात छिड़ती है तो प्यासा, मुग़ल ए आजम, मेरा नाम जोकर, जय संतोषी मां, शोले, जंजीर और ऐसी ही कुछ फिल्मों के जिक्र से आगे बात नहीं बढ़ पाती। आखिर क्या कारण है कि ढेर सारी फ़िल्में देखने के बाद भी दर्शकों को दस अच्छी फिल्मों के नाम याद करने में भी दिमाग पर जोर लगाना पड़ता हैं! इसलिए कि लोग फ़िल्में देखते जरूर हैं, पर ऐसी चंद फ़िल्में ही हैं, जिन्हें वे दिल से लगाते हैं।
दिल में उतारी जाने वाली ऐसी ही फिल्मों में एक है ‘जंजीर’ जिसने अमिताभ बच्चन को एक्टर के रूप में स्थापित किया। फिल्म इंडस्ट्रीज को इस फिल्म ने ऐसा गुस्सैल नायक दिया, जिसका जलवा आज आधी शताब्दी बाद भी बरक़रार है। अमिताभ बच्चन को यदि आज सदी का महानायक कहा जाता है, तो उसमें इस फिल्म का बहुत बड़ा योगदान माना जाना चाहिए। क्योंकि, 11 मई 1973 को फिल्म की रिलीज से पहले अमिताभ बच्चन की एक दर्जन से ज्यादा फिल्में फ्लॉप हो चुकी थीं। ‘बॉम्बे टू गोवा’ और ‘आनंद’ ने उन्हें सहारा जरूर दिया, पर अलग से पहचान नहीं दी, जो ‘जंजीर’ से उन्हें मिली।

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इस फिल्म की रिलीज को 50 साल पूरे हो गए। वक्त गुजरते देर नहीं लगती, पर अमिताभ बच्चन 50 साल बाद भी उसी लोकप्रियता के उसी शिखर पर हैं, जहां से वे ‘जंजीर’ की कामयाबी के बाद खड़े हुए थे। किसी एक्टर को कोई एक फिल्म इतनी ऊंचाई दे सकती है, ‘जंजीर’ इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। इस फिल्म के साथ कई ऐसे प्रसंग जुड़े हैं, जिन्हें याद करके लगता है कि शायद ‘जंजीर’ अमिताभ बच्चन के लिए ही लिखी, बनी और फिर हिट भी हुई। जबकि, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि जिस एक्टर की दर्जनभर से ज्यादा फ़िल्में असफल हुई, कई डायरेक्टरों ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री से वापस लौटने तक की सलाह दी थी। उसी एक्टर ने 50 साल पहले जो झंडा गाड़ा, वो आज भी लहरा रहा है। यही कारण है कि ‘जंजीर’ को हिंदी फिल्मों का मिल का पत्थर माना जाता है, जिसने ऐसा एक्टर दिया जो आज भी तीन पीढ़ियों की पहली पसंद है।

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अमिताभ बच्चन ने अपने फिल्म करियर की शुरुआत ‘सात हिंदुस्तानी’ से की। लेकिन, उन्हें उसके बाद की कई फ़िल्में ऐसा कोई मुकाम नहीं दे पाई, जिसकी उन्हें तलाश थी। ‘जंजीर’ की रिलीज के बाद किस्मत पलटी और उन्हें ‘यंग एंग्रीमैन’ ख़िताब मिला। उन्होंने बाद में अपनी इसी इमेज को मजबूर, दीवार, काला पत्थर, त्रिशूल और उसके बाद ‘शोले’ जैसी कई फिल्मों में बनाए रखा। लेकिन, ये कामयाबी उन्हें किस्मत से नहीं मिली। अमिताभ ने इसके लिए लम्बा इंतजार और अथक मेहनत की थी। ‘जंजीर’ से पहले कई फिल्में फ्लॉप हुई, इसलिए उनकी सारी उम्मीदें इसी एक फिल्म पर टिकी थी। इस फिल्म में उस समय के बड़े कलाकार जया भादुड़ी, ओम प्रकाश, अजीत और प्राण थे। अमिताभ तब इस स्थिति में भी नहीं थे, कि उनके नाम से कोई फिल्म चल सके। जब ‘जंजीर’ बनकर तैयार हुई, तो कई टेरिटरी में उसे प्राण की फिल्म बताकर बेचा गया।

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बताते हैं कि फिल्म की रिलीज से पहले कोलकाता में एक इवेंट ऑर्गेनाइज हुआ तो पूरा थिएटर प्राण के नाम से गूंज पड़ा! ये देखकर अमिताभ बच्चन टूट से गए थे। कहते हैं कि ये सब देखकर अमिताभ इतने दुखी हुए थे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए। डायरेक्टर प्रकाश मेहरा ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा था ‘फिल्म रिलीज तो होने दो, ये सब अमिताभ-अमिताभ न करें तो बोलना!’ फिल्म रिलीज हुई तो हालात ठीक यही थे। फिल्म की कामयाबी का सारा श्रेय अमिताभ लूट ले गए। बताते हैं कि जब आरके स्टूडियो में फिल्म की शूटिंग चल रही थी और राज कपूर वहीं पास वाले सेट पर मौजूद थे। वहां अमिताभ बच्चन की आवाज उन्हें सुनाई दे रही थी। उन्होंने प्रकाश मेहरा को बुलाया और कहा कि इस लड़के की आवाज में बहुत दम है। ये लड़का एक दिन सुपरस्टार बनेगा। कहा जाता है कि राज कपूर की ये भविष्यवाणी सही निकली। ‘जंजीर’ ने अमिताभ की नाकामयाबी का सिलसिला तोड़ा और वे हिंदी फिल्मों के पहले एंग्री यंगमैन बने!

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‘जंजीर’ के प्रदर्शन के साथ ही मिली सफलता से सलीम-जावेद इतने उत्साहित हुए थे कि उन्होंने चार जीपें किराए पर ली और पतरे का एक स्टेंसिल बनवाया ‘रिटन बाय सलीम जावेद’ और सड़क पर दीवार पोतने वाले पेंटरों को पैसे देकर कहा कि शहर पर जहां कहीं भी जंजीर के पोस्टर लगे हों, यह स्टेंसिल रखकर पोत देना। उन्होंने इस कला में अपना हुनर कुछ यूं दिखाया कि कहीं बिंदू के अधोवस्त्र पर, कहीं अमिताभ के हाथों पर, कहीं जया की छुरियों पर तो कहीं प्राण के ऊपर उठे दोनों हाथों पर ‘रिटन बाय सलीम जावेद’ का ठप्पा लग गया। यह ठप्पा इतना चर्चित हुआ कि इसके बाद उनकी सभी फिल्मों में धमाकेदार म्यूजिक के साथ बड़े शब्दों में लिखा दिखाई देने लगा। सलीम-जावेद पहले ऐसे फिल्म राइटर थे, जिनका नाम बाद में पोस्टरों पर लिखा गया। खास बात यह भी है कि यह मूल कहानी भी सलीम-जावेद की अपनी नहीं थी। वास्तव में यह फिल्म देव आनंद की फिल्म ‘सीआईडी’ और हॉलीवुड के प्रसिद्ध एक्टर ली वान क्लिफ की हिट फिल्म ‘डेथ राइड्स ऑन अ हॉर्स’ का मिश्रण थी।

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‘जंजीर’ ने सिर्फ अमिताभ को ही नई पहचान नहीं दी, इस फिल्म को हिंदी सिनेमा का ट्रेंड सेटर भी कहा जाता है। ये फिल्म जब रिलीज हुई, उस समय प्रेम कहानियों और नायक-नायिका के पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने और गाने वाली फ़िल्में ज्यादा आती थी। तब नायक को समाज और दुनियादारी से कोई ख़ास सरोकार नहीं होता था। हर फिल्म का अंत भी नायक-नायिका के मिलन और खलनायक को पुलिस के पकड़ ले जाने से होता था। लेकिन, ‘जंजीर’ का नायक उन सबसे अलग था। नायक विजय खन्ना फिल्म के खलनायक तेजा को ख़त्म करने तक चैन से नहीं बैठता। बचपन में आंखों के सामने हुई मां-बाप की हत्या और तेजा के हाथ में लटकी आकृति उसे रात में सोने भी नहीं देती थी। कई रातों को वो बैचेन होकर उठ जाता! नायक की यही बेचैनी फिल्म का मूल भाव था, जिसे अमिताभ ने पूरी शिद्दत से जिया। जिस समय पर नायक को नायिका के साथ प्रेमालाप करते और नाचते-गाते बताने का चलन था, तब ‘जंजीर’ का नायक मुस्कुराया भी नहीं था। पूरी फिल्म में प्राण के गाने के समय कुछ पल के लिए अमिताभ के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट दिखाई दी थी।

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फिल्म के नाम को लेकर भी कुछ लोगों को असमंजस रहा है। लोग आज भी ‘जंजीर’ को हथकड़ी समझने की गलती कर बैठते हैं। जबकि, जंजीर का आशय खलनायक के हाथ में लटका हुआ वो ब्रेसलेट था, जिसकी जंजीर में एक घोड़ा लटका था। उसे देखकर ही अमिताभ अपने परिवार के हत्यारे को पहचान कर बदला लेता है। इस फिल्म का एक लोकप्रिय और दमदार डायलॉग ‘ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं’ डायलॉग भी ‘सीआईडी’ फिल्म से लिया गया था। ‘सीआईडी’ में जब जॉनी वॉकर को पुलिस थाने ले जाया जाता हैं, तो वो बड़ी अदा से जाकर सीधे कुर्सी पर बैठ जाता है। तब उसे यह डायलॉग मारा जाता है। जबकि, ‘जंजीर’ में यह डायलॉग अमिताभ थाने में तब बोलते हैं, जब शेरखान (प्राण) थाने आकर कुर्सी पर बैठने वाले होते हैं और थानेदार विजय खन्ना कुर्सी में लात मारकर यही डायलॉग मारते हैं।

‘जंजीर’ के साथ कुछ ऐसे अजीब संयोग भी जुड़े थे, जिनसे लगता है कि ये फिल्म कई नायकों के हाथ से निकलने के बाद अमिताभ के पास इसलिए आई कि इससे एक नए नायक को जन्म लेना था। दरअसल, ‘जंजीर’ की स्क्रिप्ट धर्मेंद्र ने सलीम-जावेद से खुद के लिए खरीदी थी। वे इस फिल्म को प्रकाश मेहरा के निर्देशन में मुमताज के साथ बनाना चाहते थे। लेकिन, उनके पास शूटिंग के लिए वक़्त नहीं था। जब फिल्म अटकी रही, तो प्रकाश मेहरा एक दिन गुस्से में धर्मेंद्र के घर पहुंचे और फिल्म को लेकर साफ़ बात करने को कहा! धर्मेंद्र ने प्रकाश का मूड देखा तो उन्हें लगा कि कहीं फिल्म के चक्कर में उनकी दोस्ती में खटास न आ जाए, तो उन्होंने वो स्क्रिप्ट प्रकाश मेहरा को ये कहते हुए सौंप दी कि वे किसी को भी लेकर ये फिल्म बना लें! क्योंकि, फ़िलहाल वो इसके लिए समय निकालने की स्थिति में नहीं हैं।

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इसके बाद ये प्रकाश मेहरा ने देव आनंद से लगाकर राजकुमार और दिलीप कुमार तक से बात की, पर बात नहीं बनी। देव आनंद की मांग फिल्म में खुद पर चार गाने की थी। राजकुमार की शर्त थी कि फिल्म की शूटिंग मद्रास में हो। जबकि, दिलीप कुमार को फिल्म के नायक का किरदार ही पसंद नहीं आया। फिल्म के लिए प्राण और मुमताज को पहले से तय कर लिया गया था, बस नायक फ़ाइनल नहीं हो पा रहा था। प्राण ने अमिताभ बच्चन का नाम सुझाया और उन दिनों रिलीज ‘बॉम्बे टू गोआ’ देखने को कहा!

प्रकाश मेहरा ने प्राण की सलाह मानी और वो फिल्म देखकर अमिताभ को नायक बनाने का फैसला कर लिया। लेकिन, तभी मुमताज ने फिल्म से कन्नी काट ली। बहाना ये बनाया कि मैं शादी करने का मूड बना रही हूं। जबकि, असल कारण ये था कि उन्हीं दिनों अमिताभ की फिल्म ‘बंधे हाथ’ रिलीज हुई, जो फ्लॉप हो गई थी। इसके बाद अमिताभ के साथ जया भादुड़ी लेकर फिल्म की तैयारी की गई। उसके बाद जो हुआ, वो आज फिल्म इंडस्ट्री में एक इतिहास बन गया। फिल्म ने कामयाबी की वो ऊंचाई को छुआ कि अमिताभ का डंका बजने लगा, जिसकी गूंज आज भी सुनाई दे रही है।