Silver Screen : सिनेमा, टीवी और ओटीटी हर जगह पक रही देश प्रेम की रोटी!

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Silver Screen : सिनेमा, टीवी और ओटीटी हर जगह पक रही देश प्रेम की रोटी!

– हेमंत पाल

    फिल्में फार्मूले से चलती है और फिल्मकारों को इस बात का अंदाजा है कि वो कौन सा फार्मूला है, जो दर्शकों को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। क्योंकि, फार्मूले ही दर्शकों को खींचकर बॉक्स ऑफिस की खिड़की तक लाते हैं। एक हिट फार्मूला है देशभक्ति। इस फार्मूले को भी फिल्मकारों ने अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल किया। कुछ फिल्मकारों ने आजादी के दौर की कहानियों को अपने कथानक का हिस्सा बनाया। कुछ ने आजादी के उन हीरो पर फ़िल्में बनाई, जो उस दौर के प्रमुख किरदार रहे। कुछ फिल्मकारों ने भारत के पड़ौसी देशों से युद्ध की किसी एक घटना को आधार बनाकर उसे फिल्म का रूप दिया। ऐसी भी फ़िल्में बनी, जब फिल्मकारों ने दर्शकों के सामने पड़ौसी देशों को किसी मुद्दे पर हारते दिखाकर अपनी झोली भरी।

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इसके अलावा देशभक्ति वाली फिल्मों का फार्मूला जासूसी फ़िल्में भी रही। ऐसी कई फिल्में हैं, जो जासूसी के धरातल पर गढ़ी गई और दर्शकों को पसंद भी आई। इनमें भारतीय जासूसों को पड़ौसी मुल्कों की धरती पर अपना काम मुस्तैदी से करते दिखाया गया। उनके इस काम की सफलता को देशभक्ति के पैमाने पर नापा गया। इसके अलावा कुछ ऐसी भी अनोखी फ़िल्में बनाई गई, जिनमें देशभक्ति को प्रेम कहानियों में भी पिरोया गया। इस तरह की देशभक्ति दिखाई जाने के ताजा उदाहरण है ‘ग़दर’ जैसी फिल्मों के दोनों भाग। इस फिल्म में देशभक्ति को प्रेम के कथानक से जोड़कर कहानी रची गई। इसी तरह एक मेघना गुलजार की फिल्म ‘राजी’ में भी जासूसी को प्रेम से जोड़कर फिल्म का कथानक तैयार किया गया और ऐसी सभी फिल्में हिट भी हुई।

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अब ये सौ टंच हिट फार्मूला सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इन्हें ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज में भी आजमाया जाने लगा है। यहां थ्रिलर, सेंसेशन, इरोटिक जैसे कंटेंट की कमी नहीं, पर अब देशभक्ति बेस्ड फिल्मों और वेब सीरीज भी यहां पसंद की जाने लगी। ‘सरदार उधम सिंह’ बड़े परदे के बजाए ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज की गई। यह फिल्म सरदार उधम सिंह की जिंदगी की कहानी बताती है। देश की आजादी की जंग के कई शहीदों को अभी न्याय और सम्मान मिलना बाकी है। इस लिहाज से सरदार उधम की कहानी के लिए निर्देशक शुजित सरकार के काम को सराहा गया। उन्होंने इसे सिर्फ फिल्म न रखते हुए किसी दस्तावेज की तरह पर्दे पर उतारा है। जाने-माने निर्देशक कबीर खान के निर्देशन में बनी ‘द फॉरगॉटन आर्मी’ एक बेहतरीन और देशभक्ति वाली वेब सीरीज है। इस फिल्म में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज की कल्पना की तस्वीर खींची गई। इसमें वतन पर मिटने जाने के जज्बे को इस तरह दिखाया गया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ‘बोस डेड/अलाइव’ वेब सीरीज भी सुभाषचंद्र बोस पर ही आधारित है। इसमें अंग्रेजों के खिलाफ नेताजी की जंग से लेकर मौत तक के अनसुलझे रहस्यों तक को वेब सीरीज में दिखाया गया है। इसमें राजकुमार राव के अभिनय को काफी पसंद किया गया।

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‘स्पेशल ऑप्स’ वेब सीरीज की स्टोरी लाइन भी कमाल की है, जो संसद पर हुए हमले की याद दिलाती है। उस हमले के सूत्रधार को रॉ एजेंट बने केके मेनन ढूंढ निकालते हैं और अपने मिशन को मुकाम तक पहुंचाते हैं। अभिनेता केके मेनन ने इसमें कमाल का काम किया है। इसी तरह की दूसरी सीरीज है ‘द फैमिली मैन 1-2’ जो एक सीक्रेट एजेंट की कहानी है। वो अपने परिवार से लगाकर देश तक की चिंता करते हुए देश की सुरक्षा पर आंच नहीं आने देता। इस सीरीज के दोनों सीजन में इंटेलिजेंस एजेंसी के एजेंट बने मनोज बाजपेयी ने अद्भुत काम किया है। जेनिफर विंगेट की वेब सीरीज ‘कोड एम’ में वे आर्मी ऑफिसर की भूमिका में हैं। वे एक केस लड़ती हैं और आर्मी की छवि को अलग ढंग से निखारती है। निमरत कौर के अभिनय वाली वेब सीरीज ‘द टेस्ट केस’ भी देशभक्ति वाले कथानक पर गढ़ी गई है। ऑल्ट बालाजी की इस सीरीज में देशभक्ति का जज्बा तो है ही, यह ऐसी लेडी आर्मी ऑफिसर की कहानी भी है जो पुरुषों की दुनिया में खुद को साबित की कोशिश करती है और सफल भी होती है।

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‘पीओडब्ल्यू बंदी युद्ध के’ वेब सीरीज दो जवानों की रियल लाइफ पर बेस्ड है। वे करीब 17 साल तक युद्ध बंदी रहने के बाद परिवार से मिले हैं। सीरीज देशभक्ति तो जगाने के साथ एक पॉलिटिकल थ्रिलर भी है। इसे बेस्ट एशियन शो का भी खिताब मिला है। ’21 सरफरोश: सारागढ़ी 1897′ की कहानी विख्यात सारागढ़ी युद्ध पर आधारित है। इसमें 21 वीर सिखों ने देश पर प्राण त्याग दिए थे, पर दुश्मन को जीतने नहीं दिया। इसी कहानी पर बाद में अक्षय कुमार की फिल्म ‘केसरी’ बनी। ‘द फाइनल कॉल’ वेब सीरीज नॉवल ‘आई विल गो विद यू, द फ्लाइट ऑफ अ लाइफटाइम’ पर आधारित है। देशप्रेम की इस कहानी में न फौज है न सिपाही। एक सिरफिरा पायलट है जिसके मंसूबों में देशवासियों को बचाने की कोशिश है। ‘जीत की जिद’ मेजर दीप सिंह सेंगर की जिंदगी से प्रेरित है। कारगिल में दिखाए शौर्य के लिए उन्हें राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया। वेब सीरीज तमाम सिनेमाई छूट लेते हुए उनकी कहानी दिखाती है। इसमें उनकी बहादुरी के साथ व्हीलचेयर पर आने के बाद अपनी इच्छा शक्ति के बल पर फिर पैरों पर खड़े होते दिखाया गया है।

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फिल्मकारों के लिए कारगिल युद्ध ऐसी फिल्मों के लिए नया पड़ाव रहा। इस युद्ध का कई फिल्मों में जिक्र भी आया! एलओसी, लक्ष्य, स्टंप, धूप, टैंगो चार्ली और ‘मौसम’ से लेकर ‘गुंजन सक्सेना’ जैसी कई फिल्में बनाई गई। इन्हीं में से एक ‘शेरशाह’ भी है, जो इन सबसे से अलग है। यह एक शहीद की बहादुरी की सच्ची पर आधारित है। इस फिल्म में दिखाया है कि सेना के जांबाज कैसे 18 हजार फीट ऊंची बर्फीली चोटियों पर चढ़कर दुश्मन को परास्त करते हैं। ये फिल्म कैप्टन विक्रम बत्रा और उनके जैसे बहादुर की कहानी है जिनकी बदौलत देश ने भारतीय सीमा में घुसी पाकिस्तानी सेना को ठिकाने लगाया था। ‘लाहौर कॉन्फिडेंशियल’ भी बेहद कसी हुई सवा घंटे की फिल्म है। यह फिल्म शुरू से अंत तक रोमांच को बरकरार रखती है। कुणाल कोहली ने निर्देशन में बनी इस फिल्म में देश प्रेम का अलग ही अंदाज है। चाहे एक-दूसरे के यहां सेंध मारने की कोशिश हो या मोहब्बत का ड्रामा। इस लिहाज से ‘लाहौर कॉन्फिडेंशियल’ अब तक भारत-पाक पर आधारित फिल्मों में अलग है। ऐसी ही एक फिल्म है ‘मुंबई डायरीज 26/11’ जिसका कथानक सच्ची घटना पर तो गढ़ा गया, पर है पूरी तरह फ़िल्मी है।

मेघना गुलजार की फिल्म ‘राजी’ में भी अलग तरह की देशभक्ति दिखाई दी। निर्देशक इस बात को लेकर साफ़ थी कि वे फिल्म के लिए पाकिस्तान को निशाना बनाने वाले हथकंडों या पाकिस्तान विरोधी नारों का सहारा लेना नहीं चाहती। हरिंदर सिक्का के उपन्यास ‘कॉलिंग सहमत’ पर बनी ‘राजी’ एक ऐसी भारतीय लड़की की कहानी है, जिसकी शादी 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जासूसी करने के मकसद से पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी से होती है और वो लड़की अपने मकसद में सफल भी होती है। इस फिल्म में देशभक्ति दिखाने के लिए किसी हंगामे या नारेबाजी की जरूरत नहीं दिखाई दी। जबकि, फिल्मकारों का शिगूफा है कि वे देश भक्ति दिखाने के लिए पड़ौसी देश को निशाना बनाने का कोई मौका नहीं चूकते! यहां तक कि ‘ग़दर’ जैसी फार्मूला फिल्म का हीरो तो पाकिस्तान जाकर हैंडपंप तक उखाड़ देता है।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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