

Silver Screen : देश भक्ति के फार्मूले के साथ फ़िल्मी मसाला मनोज कुमार की पहचान!
– हेमंत पाल
मनोज कुमार के न रहने को आज के दौर से ज्यादा 90 के दशक से पहले के दर्शकों ने गंभीरता से महसूस किया। उस दौर के सिनेमा में जिन अभिनेताओं को पसंद किया जाता रहा, उनमें मनोज कुमार भी एक थे। वे सिर्फ अभिनय ही नहीं करते रहे, उन्होंने फ़िल्में बनाने का जोखिम भी मोल लिया, जो आज के मुकाबले उस समय ज्यादा मुश्किल था। उन्होंने ऐसे विषयों का चुनाव किया, जो लीक से हटकर कहे जा सकते हैं। इन्हीं में एक देशभक्ति और सामाजिक समस्याएं था। उनकी फिल्मों के देशभक्ति वाले कथानक की वजह से मनोज कुमार के नाम के साथ ‘भारत कुमार’ ऐसे चस्पा हो गया कि उन्हें इसी नाम से पुकारा जाने लगा। ‘उपकार’ से उन्होंने फिल्म निर्माण में कदम रखा और सामाजिक विषयों को ऐसी पहचान बना लिया कि दर्शक उनसे ऐसी ही फिल्मों की अपेक्षा करने लगे। अपने आधे चेहरे को हाथ की उंगलियों से ढकने की उनकी स्टाइल उनकी पहचान जैसी बन गई थी।
उनकी यादगार फिल्मों में ‘शहीद’ (1965) शामिल है, जो भगत सिंह के जीवन पर बनी थी। पूरब और पश्चिम (1970) की कहानी सांस्कृतिक पहचान पर बनाई गई, रोटी कपड़ा और मकान (1974) जीवन की जरूरतों और सामाजिक मुद्दों को कुरेदती थी और ‘क्रांति'(1981) देश के स्वतंत्रता संग्राम पर बनी एपिक फिल्म रही। जबकि, ‘शोर’ पारिवारिक फिल्म थी, जिसमें भी एक संदेश दिखाई दिया। लेकिन, मनोज कुमार के फिल्म निर्माण का भी एक फार्मूला था। उनकी देशभक्ति वाली फिल्मों में दर्शकों को बांधने के लिए वो सब कुछ होता था, जो जरूरी है। फिल्मों में नए-नए प्रयोग करते हुए मनोज कुमार इतने विश्वसनीय हो गए थे कि उनकी फिल्म में वे जो भी प्रयोग करते, सहयोगी कलाकार आंख मूंदकर सब करते जाते।
इस विश्वसनीयता का फायदा उठाते हुए मनोज कुमार ने देशभक्ति का मुलम्मा चढ़ाते हुए अपनी फिल्मों में वह सब शामिल कर लिया, जो आमतौर पर मुश्किल होता है। मनोज कुमार ही थे जिन्होंने ‘रोटी कपडा और मकान’ में हाय हाय रे यह मजबूरी में जीनत अमान को जी भरकर भिगोया। आटे की बोरियों और तराजू के पलड़ों पर मौसमी के रेप सीन को लसलसे तरीके से फिल्माकर दर्शकों की सांसों को गर्म किया। उन्होंने इसी फार्मूले को अपनाते हुए ‘पूरब पश्चिम’ में सायरा को ग्लैमर में ढालकर दिखाया, ‘यादगार’ में नूतन जैसी पारिवारिक अभिनेत्री को स्विमिंग सूट पहनाया और ‘क्रांति’ में हेमा मालिनी जैसी सात्विक समझी जाने वाली नायिका को न केवल पानी में तरबतर किया, बल्कि चतुराई से उनके मादक शरीर को परोसकर बॉक्स ऑफिस पर सिक्के बरसवा लिए। बावजूद उनकी फिल्मों में देशभक्ति का जज्बा जरा भी कम नहीं हुआ।
साल 1961 में मनोज कुमार को बतौर हीरो ‘कांच की गुड़िया’ से ब्रेक मिला। इसके अगले साल विजय भट्ट की फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ ने उनकी ज़िंदगी का रास्ता बदल दिया। 40 साल के फिल्म करियर में मनोज कुमार ने कई फिल्मों में काम किया और खुद भी फिल्में बनाई। इन सभी फिल्मों में उन्होंने फिल्म के कॉन्टेंट और फ़ॉर्म पर लगातार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। कहानी लिखने में उनकी महारत थी। वो जानते थे, कि भारतीय दर्शक भावुक होते हैं, इसलिए वो ऐसी कहानियां रचते थे, जिनसे दर्शक आसानी से जुड़ाव महसूस कर सकें। उनकी हर फिल्म में हर दर्शक के लिए कुछ न कुछ होता था। ‘शोर’ एक परिवार की खूबसूरत कहानी थी, जिसने मनोज कुमार को निर्देशक के तौर पर स्थापित किया।
मनोज कुमार के करियर की शुरुआत 1975 में आई फिल्म फैशन (1957) में एक छोटे से किरदार से हुई। पर, उन्हें असली पहचान 1962 में आई फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ से मिली। अभिनय के बाद उन्होंने निर्देशन में भी हाथ आजमाया और इसकी शुरुआत 1965 में आई फिल्म ‘शहीद’ से की। इसकी कहानी भगत सिंह के जीवन पर आधारित थी। 1967 में मनोज कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर उनके ‘जय जवान जय किसान’ नारे पर ‘उपकार’ बनाई। ‘उपकार’ भले ही लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर बनी, लेकिन वे इसे देख नहीं सके। 1966 में शास्त्री जी ताशकंद के दौरे पर गए थे। लौटने के बाद वे फिल्म देखते, लेकिन ताशकंद में ही इंडो-पाकिस्तान वॉर में शांति समझौता साइन करने के अगले दिन 11 जनवरी 1966 को उनकी मौत हो गई। इसके एक साल बाद 11 अगस्त 1967 को फिल्म रिलीज हुई। शास्त्री जी को फिल्म न दिखा पाने का अफसोस ताउम्र मनोज कुमार को रहा। फिल्म हिट रही और इसके गाने ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम, सरफरोशी की तमन्ना और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ काफी पसंद किए गए।
मनोज कुमार ने देश भक्ति की आड़ में केवल अंग प्रदर्शन का फार्मूला आजमाकर ही सफलता नहीं बटोरी। फिल्मों के तकनीकी पक्ष, कैमरा और फाइटिंग सीन में भी उनकी जबरदस्त पकड़ थी। ‘उपकार’ और ‘शोर’ की फाइटिंग सिक्वेंस एकदम वास्तविक जैसी लगती है। ‘शोर’ में झूले का प्रयोग और बिजली की लुकाछिपी के दृश्य अद्भुत थे। ‘पूरब पश्चिम’ की पहली कुछ रील ब्लैक एंड व्हाइट थी। लेकिन, ब्रिटिश सरकार यूनियन जैक के उतरते ही तिरंगे के चढने के साथ फिल्म का कलर में बदलना ऐसा प्रयोग था, जिसे उस समय करना तो दूर सोचना भी मुश्किल था। भाई की असफलता, पिता की मौत और पारिवारिक विवाद से तंग आकर मनोज कुमार ने शराब में डूबकर अपना तो बड़ा नुकसान किया लेकिन उन दर्शकों का भी भारी नुकसान किया जो आज के परिप्रेक्ष्य में देश की समस्याओं का कुछ सार्थक समाधान ढूंढने के लिए सिनेमाघर का अंधेरा कौना तलाशते नजर आते हैं।
बचपन से ही वे दिलीप कुमार के बड़े प्रशंसक थे। दिलीप साहब की फिल्म शबनम (1949) मनोज कुमार को इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने उसे कई बार देखा। फिल्म में दिलीप कुमार का नाम मनोज था। जब मनोज कुमार फिल्मों में आए तो उन्होंने दिलीप कुमार के नाम पर ही अपना नाम भी मनोज कुमार कर लिया। बाद में मनोज कुमार ने अपने निर्देशन में बनी फिल्म क्रांति (1981) में दिलीप कुमार को डायरेक्ट भी किया। उन्हें फिल्म मिलने की घटना भी किसी फ़िल्मी घटना से कम नहीं थी। एक दिन जब लाइट टेस्टिंग के लिए मनोज कुमार हीरो की जगह खड़े थे। लाइट पड़ने पर उनका चेहरा कैमरे में आकर्षक लग रहा था। एक डायरेक्टर ने उन्हें 1957 में आई फिल्म ‘फैशन’ में एक छोटा सा रोल दिया। रोल छोटा जरूर था, लेकिन मनोज कुछ मिनट की एक्टिंग में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे। उसी रोल की बदौलत मनोज कुमार को फिल्म कांच की गुड़िया (1960) में लीड रोल दिया गया। पहली कामयाब फिल्म देने के बाद मनोज ने रेशमी रुमाल, चांद, बनारसी ठग, गृहस्थी, अपने हुए पराए, वो कौन थी जैसी कई फिल्में दीं।
मनोज कुमार को विलेन का किरदार निभाने वाले प्राण की इमेज बदलने का भी श्रेय दिया जाता है। 1966 में आई फिल्म ‘दो बदन’ में मनोज कुमार ने पहली बार प्राण के साथ काम किया और दोनों दोस्त बन गए। प्राण को तब फिल्मों में निगेटिव रोल मिलते थे। ऐसे में उनकी छवि बदलने के लिए मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म ‘आह’ में पॉजिटिव रोल दिया। पर, ये फिल्म फ्लॉप रही, दर्शकों ने प्राण को नापसंद किया। इसके बाद मनोज कुमार ने अपनी फिल्म ‘उपकार’ में उन्हें मलंग बाबा का रोल देने का फैसला किया। फिल्म में अपना किरदार पढ़ने के बाद प्राण ने कहा भी था कि स्क्रिप्ट और मलंग का किरदार दोनों बहुत खूबसूरत हैं। लेकिन, एक बार सोच लो। मेरी छवि खूंखार, शराबी, जुआरी और बलात्कारी की है। क्या दर्शक मुझे किसी साधु के रोल में अपना सकेंगे। इसके बाद फिल्म में मलंग बाबा का किरदार जिस तरह लोकप्रिय हुआ वो आज भी याद किया जाता है।
‘पूरब और पश्चिम’ में उन्होंने मदन पुरी के साथ यह फार्मूला अपनाया। घाघ और स्वार्थी इंसान की भूमिका के लिए बदनाम मदनपुरी को मनोज कुमार ने विदेशी में बसे एक असहाय बाप के रूप में इतनी सहजता से पेश किया कि उनका रंग ही बदल गया। प्राण और मदन पुरी के अलावा प्रेमनाथ से भी उन्होंने ‘शोर’ में दबंग और दयावान पठान की भूमिका करवाकर उनका कायाकल्प कर दिया। इसी तरह प्रेम चोपड़ा, जोगिंदर और मनमोहन की इमेज को बदलने में भी मनोज कुमार कामयाब रहे। वे पहले फिल्मकार थे, जिन्होंने पाकिस्तानी कलाकारों को हिंदी फिल्मों में मौका दिया। लेकिन, अब ये सब बीती बातें हो गई। अब सिर्फ उनकी फ़िल्में ही बची हैं, जो उनकी याद को ताजा करती रहेंगी।