Silver Screen: हर दौर में नायक पर सद्चरित्रता हावी रही!
जब कोई फिल्म बनती है, तो उसके कथानक से ही उसके पात्र तय हो जाते हैं। कथानक में ही नायक को आदर्शवादी, सद्चरित्र और समाजवादी मूल्यों को मानने वाला बताया जाता है! नायिका इन्हीं सदगुणों पर फ़िदा होती है। फिल्म में खलनायक वो है, जो नायक के विपरीत चरित्र वाला खूंखार सा व्यक्ति होता है! यही कारण है कि उसे क्लाइमेक्स में अपने दुर्गुणों की सजा भोगना पड़ती है। फिर इन्हीं सब पात्रों को निभाने वाले कलाकारों का उनकी इमेज के मुताबिक चयन किया जाता है! सौ साल से ज्यादा के फिल्म इतिहास में समय बदला, हालात बदले और दर्शकों की रूचि बदली! पर, नहीं बदला तो नायक का आदर्शवादी सद्चरित्र! जबकि, फिल्मों के शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था! वास्तव में समाज के आदर्श चरित्र वाले नायक की पहचान आजादी के बाद बनी फिल्मों से बदली जो आज तक चल रही है। सालों में इक्का-दुक्का ही कोई फिल्म आती होगी, जिसमें नायक को उसकी पहचान से अलग दिखाया जाता है! अन्यथा नायक तो फिल्मों के आदर्शवाद का प्रतीक आज भी है।
वास्तव में आजादी के बाद 1950 के दशक में ही परदे के नायक को बदलने का दौर आया! क्योंकि, उस वक़्त फिल्मकारों के जहन में देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। आजाद देश के जिम्मेदार नागरिक का किरदार सभी अपने-अपने तरीके से निभाया! आजादी पहले जो नायक क्रांति का अलख जगाए घूमता था, वो समाज का सबसे आदर्शवादी व्यक्ति बन गया! यह महबूब खान, दिलीप कुमार, राज कपूर, बिमल राय, ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरुदत्त, चेतन आनंद और देव आनंद का दौर था। उधर, बंगाल में सत्यजित राय ने भी इसी वक़्त में अपनी सजग चेतना से भारतीय चिंतन को प्रभावित किया। आवारा, मदर इंडिया और ‘जागते रहो’ जैसी फ़िल्में भी इसी दौर में बनी। 1955 में राजकपूर की ‘श्री 420’ आई, जिसमें नायक अमीर होने के लिए गलत रास्ते पर चल पड़ता है! लेकिन, नायिका आदर्शवाद पर अड़ी रहती है और क्लाइमेक्स तक आते नायक को भी सही रास्ते पर ले आती है। आदर्श की जीत इस दौर में आम बात थी।
इस दौर में फिल्मकार का पूरा चिंतन समाज के प्रति सरोकार उसके नायक में झलकता था! कई बार तो खलनायक भी नायक के आदर्शवाद से प्रभावित हो जाता था। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता, तो अंत में उसके लिए पुलिस आ ही जाती थी! शंभु मित्रा की फिल्म ‘जागते रहो’ भी इसी आदर्शवादी समयकाल का निर्माण था! फिल्म में दिखाया गया था कि अमीर होने के लिए नायक सबकुछ करता हैं! जबकि, ईमानदार गरीब आदमी पानी तक के लिए भी तरसता है। पानी भी पीता है, तो उसे चोर करार दिया जाता है। शम्भू मित्रा के इस गरीब नायक ने पूरे समाज को आईना दिखाया था! समय के साथ फिल्मों का नायकत्व भी सशक्त हुआ! इसलिए कि हमारा समाज हमेशा ही ऐसे नायक की तलाश में रहा है, जो खुद की नहीं सबकी बात करे! समाज के लिए खड़ा हो और जिसमें हर वर्ग का नेतृत्व करने की क्षमता हो!
इसका सबसे बड़ा कारण था कि इस दशक में देश की नई सरकार में ही कई नायक थे, जो आजादी की जंग से उभरे थे। महात्मा गांधी वाला युग बीत चुका था, नेहरू का दौर समाज पर हावी था। पं नेहरू की अपनी अलग आइडियोलॉजी थी! वे प्रैक्टिकल लाइफ को समझते थे! फिल्म प्रेमी भी थे और फिल्मकारों की लोकप्रियता से प्रभावित रहते थे। इस दौर में उन्होंने फिल्मों के विकास के लिए कुछ कदम भी उठाए गए! इससे भी फिल्मों में नायकत्व को आधार मिला! पिछले दशकों के मुकाबले आजादी के बाद के इस दशक में फिल्में ज्यादा बेहतर ढंग से अपनी बात कहने लगी! फिल्मों में भाषणबाजी से हटकर मनोरंजन का मसाला दिखाई देने लगा! अभाव, भेदभाव, जातिवाद, गरीबी, सांप्रदायिकता, हिंसा और महिलाओं पर जुल्म जैसी समस्याओं के बीच कहीं न कहीं मसाला और रोमांस नजर आने लगा!
इस दौर की एक और खास बात रही कि नायक आदर्श और समाजवादी मूल्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक था। लेकिन, उसे ठीक से प्यार करना नहीं आता था। प्यार की अनुभूति मजबूत आकार नहीं ले सकी थी। ‘अरेंज्ड मैरेज’ का समाज था, जैसी समाज और परिवार की इच्छा होती थी, युवा वैसा ही करते थे। अपने प्यार की बलि चढ़ा देते थे या समझ ही नहीं पाते थे कि प्यार में क्या किया जाए। इसी दौर में बिमल राय ने ‘देवदास’ बनाई! एक ऐसा नायक जो न ठीक से प्यार कर सका, न प्यार पा सका। गुरुदत्त की ‘प्यासा’ में भी यही हुआ। देवदास अगर चाहता तो बहुत आसानी से पारो से शादी करके सुखी जीवन बितता। पारो उसे चाहती भी बहुत थी। लेकिन, फिर वही जमींदारी, लोकलाज, परिवार, समाज आड़े आ गए। फिर उसे चंद्रमुखी से प्यार हुआ, लेकिन वह भी मुकाम पर नहीं पहुँच सका। कारण वही लोकलाज, परिवार और समाज का भय। शायद यह एक तरह से प्रगतिशीलता का आह्वान था कि देखो, व्यक्तिगत प्यार की कोई औकात नहीं है। देश को देखो, समाज को देखो उसके बाद ही फैसला करे। इस दशक में नायक यह तो बोल ही सका कि ‘मैंने दिल तुझको दिया’ लेकिन बात आगे नहीं बढ़ा सका, क्योंकि उसमें साहस का अभाव था। क्योंकि, प्रेम की पुकार की तुलना में देश, समाज और परिवार की पुकार ज्यादा बड़ी थी।
पचास के दशक के उसी फिल्मी नायक का प्रभाव आज तक बना हुआ है! क्योंकि, वही हिंदी सिनेमा का सबसे प्रभावी नायक था, जो आज भी परदे पर मौजूद है। इसी दशक का नायक भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाया! पंडित नेहरू की तरह राजकपूर भी दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय थे! रूस में तो राजकपूर के लिए दीवानगी जग जाहिर थी! पं नेहरू राजनीति में समाजवादी थे, तो सिनेमा के परदे पर राजकपूर का नायकत्व भी समाजवादी दृष्टिकोण लिए था! सरकार नैतिकता के साथ सामाजिक समानता और संपन्नता के सपने संजो रही थी, तो यही काम फिल्मों में हो रहा था! ने भी यही किया। शक नहीं कि जब भी भारतीय फिल्मी नायक का विश्वास डिगेगा, उसे अपने पचास के दशक के पूर्वज नायक से सीखना पड़ेगा! क्योंकि, इस दशक से सीखने के लिए बहुत कुछ है, सरकार को भी और परदे के नायक को भी!
आजादी के बाद का 50 का दशक पूरी तरह दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद का ही था। जबकि, दक्षिण की इंडस्ट्री पर एमजी रामचंद्रन और एनटी रामाराव का एकछत्र राज कर रहे थे। उधर, बंगाल में ‘पाथेर पांचाली’ के साथ सत्यजीत रे वैश्विक सुर्खियां बन गए थे। वास्तव में यह दशक कई अग्रणी फिल्मकारों महबूब खान (मदर इंडिया), के. आसिफ (मुगल-ए-आजम), बिमल रॉय (दो बीघा जमीन), गुरु दत्त (प्यासा), बीआर चोपड़ा (नया दौर) का दशक था। इसके बाद का दौर भी शम्मी कपूर जैसे मसखरी अदाकारी करने वाले नायकों का था। देश के दर्शक ‘जंगली’ के इस याहू नायक के साथ आनंदित थे। शम्मी कपूर को बागी नायक माना जाता रहा। जबकि, सुनील दत्त ऑफ बीट नायक और राजेंद्र कुमार वो नायक थे जिनकी फिल्मों के दर्शक दीवाने थे। इसके बाद जुबली कुमार की ये कुर्सी ‘आराधना’ के बाद राजेश खन्ना ने ले ली। उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाने लगा था। इसी दौर में ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन ऐसे निर्देशक थे, जो बिमल रॉय के यथार्थवादी सिनेमा के सपने को संवारने में पीछे नहीं थे।
नायकों के आदर्शवाद से 70 का दशक भी अलहदा नहीं रहा। इस दशक में उस ब्लैक एंड व्हाइट रोमांस का अंत हुआ जिसमें नायक के समापन का साक्षी बना, जब निर्देशक प्रकाश मेहरा और लेखक सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन के रूप में फिल्म ‘जंजीर’ में लॉन्च किया। पिछले दशक की ग्लैमर नायिकाओं के स्थान पर जया भादुड़ी (गुड्डी), जीनत अमान (हरे राम हरे कृष्णा) और शबाना आज़मी (श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’) जैसी अपरंपरागत नायिकाओं ने जगह लेनी शुरू कर दी। मुख्यधारा के फिल्म निर्माताओं जैसे रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई, मनोज कुमार, सुभाष घई के साथ-साथ एमएस सथ्यू, गोविंद निहलानी, गुलजार, बसु चटर्जी जैसे कला निर्देशक भी उभरते दिखाई देने लगे। इस सबके बावजूद नायक भूमिका नहीं बदली। कुछ फिल्मों दिया जाए तो अधिकांश फिल्मों का नायक वैसा ही रहा, जैसा उसे होना चाहिए!