Silver Screen : जीवनभर ‘प्यासा’ ही रहे गुरुदत्त!
1950 के दशक को सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फिल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए पहचाना जाता है। आजादी के बाद ये ऐसा दशक था, जिसमें फिल्मकारों ने समकालीन परिस्थितियों पर फ़िल्में बनाई।
इसमें सबसे ज्यादा ख्याति मिली गुरुदत्त की फिल्मों को।
गुरुदत्त ने 50 और 60 के दशक में भारतीय सिनेमा को ‘कलात्मक एवं गंभीर विषय’ की दिशा देने की हरसंभव कोशिश की।
यही उनकी उपलब्धि है और इसीलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। हिंदी सिनेमा में गुरुदत्त का सबसे अलग मुकाम है। वे ठहरे हुए इंसान और सुलझे हुए फिल्मकार थे। उन्हें कमर्शियल कहानियों को भी आर्ट फिल्म की तरह पेश करने की कला आती थी।
यही कारण है कि उस समयकाल की उनकी फिल्मों की सफलता देखते ही बनती थी। कागज के फूल, चौदहवीं का चांद, साहिब बीवी और गुलाम, बाजी, आर-पार, मिस्टर एंड मिसेज 55, सीआईडी और ‘प्यासा’ जैसी एक से बढ़कर एक फिल्में उनकी सफलता की कहानी कहती हैं।
गुरुदत्त की 1957 में आई फिल्म ‘प्यासा’ तात्कालिक प्रभावों से जुड़ी थी। फिल्म इतिहास में इस फिल्म को क्लासिक का दर्जा मिला है। समाज के छल-कपट से आक्रोशित नायक अपने मौलिक अस्तित्व को अस्वीकार देता है। हताशा की इस चरम सीमा को गुरुदत्त ने बेहतरीन तरीके से फिल्माया था।
एक संघर्षशील कवि और सेक्स वर्कर से उसकी दोस्ती को बेहद खूबसूरत अंदाज़ में पेश किया गया। ‘प्यासा’ में उन्होंने आजादी से पहले के भारत के हालात दर्शाए थे।
दरअसल, ‘प्यासा’ को फिल्म कला का व्याकरण भी कहा जाता है। गुरुदत्त ने इस फिल्म की पटकथा 1947 से 1950 के दौर में लिखी थी, जब वे अंग्रेजी मैग्ज़ीन ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली’ में लघुकथाएं लिखा करते थे।
‘प्यासा’ में गुरुदत्त के साथ माला सिन्हा, वहीदा रहमान और रहमान मुख्य भूमिका में थे। गुरुदत्त माला सिन्हा से प्रेम करते हैं, लेकिन माला सिन्हा की शादी रहमान से हो जाती है। वहीदा रहमान एक वेश्या के रोल में हैं। यह वहीदा रहमान की प्रारंभिक फिल्मों में से एक है।
‘प्यासा’ के बाद 1959 में गुरुदत्त ने ‘कागज के फूल’ फिल्म बनाई। यह भी उनकी बेहद कलात्मक फिल्मों में से एक है। इस फिल्म के लिए उन्होंने अपना सब कुछ बेच दिया था। लेकिन, उस समय फिल्म सफल नहीं हुई।
इन फिल्मों के वे निर्देशक भी थे। इसके बाद 1960 में उनकी फिल्म ‘चौदहवीं का चाँद’ और 1962 में ‘साहिब बीबी और गुलाम’ आई, जो ये भी उनकी चर्चित फिल्में रही।
प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ की वेबसाइट ने 10 सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फ़िल्मों की एक सूची पेश की थी। इसमें भी ‘प्यासा’ को श्रेष्ठ पांच फ़िल्मों में स्थान मिला था।
‘टाइम’ की सूची में पहले स्थान पर ‘सन ऑफ द शेख’ (1926), दूसरे पर ‘डॉड्सवर्थ’ (1939), तीसरे पर ‘कैमिली’ (1939), चौथे पर ‘एन अफेयर टू रिमेम्बर’ (1957) और पांचवें स्थान पर ‘प्यासा’ (1957) को रखा गया है।
इससे पहले ‘टाइम’ ने 2005 में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था। ‘टाइम’ के मुताबिक भारतीय फ़िल्मों में आज भी परिवार के प्रति निष्ठा और सभी का प्यार से दिल जीतने की भावना देखने को मिलती है।
2002 में ‘लाइट एंड साउंड’ द्वारा ‘ऑल टाइम ग्रेट फिल्म’ के लिए कराए गए क्रिटिक्स एंड डायरेक्टर पोल में भी ‘प्यासा’ को 160वीं रैंक हासिल हुई थी।
‘इंडिया टाइम्स मूवीज’ ने ‘प्यासा’ को बॉलीवुड की श्रेष्ठ 25 फिल्मों में जगह दी और 2011 में ‘टाइम’ ने वैलेंटाइन-डे पर ‘प्यासा’ को 10 बेस्ट रोमांटिक फिल्मों में शामिल किया था।
‘प्यासा’ गुरुदत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत हिंदी सिनेमा की सदाबहार रोमांटिक फिल्मों में से एक है।
गुरुदत्त को ‘भारत का ऑर्सन वेल्स’ भी कहा जाता है।
2010 में, उनका नाम सीएनएन के श्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं की सूची में शामिल किया गया।
गुरुदत्त के पास जिंदगी के वास्तविक किरदारों को सहजता से परदे पर पेश करने की अद्भुत कला आती थी। एक बार वे कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल के लॉन में बैठकर झाल-मुड़ी खा रहे थे।
वहां उन्होंने देखा कि चौकड़ी की लुंगी और एक अजीब सी टोपी लगाकार, हाथ में तेल की बोतल लिए हुए एक मालिश वाला अजीब का गाना गाकर आवाज़ लगा रहा है। उस तेल मालिश वाले ने गुरुदत्त को बहुत प्रभावित किया।
उन्होंने इस किरदार को ‘प्यासा’ में जगह दी और उसके लिए एक गाना लिखवाया ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए, आजा प्यारे पास हमारे काहे घबराए!
‘ फिल्म में यह गाना जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया था। इसी फिल्म का गीत ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर हो कहां है’ भी वास्तविकता की देन था।
फिल्म को सच्चाई के करीब लाने के लिए एक शाम गुरुदत्त एक कोठे पर गए! वहां वे यह देखकर हैरान रह गए कि नाचने वाली एक लड़की गर्भवती थी, फिर भी उसे नचाया जा रहा था।
गुरुदत्त ज्यादा देर तक ये देख नहीं सके और बाहर आ गए। ये घटना उन्होंने साहिर लुधियानवी को सुनाई और गाना लिखवाया।
गुरुदत्त वो शख्स थे, जिनके लिए शायद ये दुनिया बनी ही नहीं थी! जिसके नसीब में बहुत कुछ था, मगर जो वे चाहते, वो नहीं था!
इस निर्देशक ने सिनेमा को ‘प्यासा’ जैसी अद्भुत फिल्म दी, लेकिन, अपने लिए कुछ भी न रख पाए! उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘बाज़ी’ (1951) देवानंद की ‘नवकेतन फ़िल्म्स’ के बैनर तले बनी थी।
इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म थी ‘जाल’ (1952) जिसमें देवानंद और गीता बाली ही थे।
इसके बाद गुरुदत्त ने ‘बाज़’ (1953) के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि, उन्होंने अपने पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ। गुरुदत्त बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
वे हर फिल्म को बारीकी से अलग-अलग तरह से बनाया करते थे। गुरुदत्त के बारे में ये बात प्रसिद्ध था कि वे एक एक शॉट के तीन-तीन री-टेक लिया करते थे।
कभी-कभी तो जब तक सभी उस सीन से सहमत न हों, जब तक उस सीन को फिल्माते रहते! उनकी इस तरह की लगन को देखकर ही गुरुदत्त के अद्भुत निर्देशक होने में कोई शक रह नहीं जाता!
इसके बावजूद गुरुदत्त भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर थे। वे रिजेक्शन नहीं सह पाते थे। उन्हें पहला रिजेक्शन उनको उनकी मोहब्बत से मिला। वे वहीदा रहमान से बहुत प्यार करते थे।
उस प्यार के लिए उन्होंने अपना पहला प्यार, पत्नी और परिवार तक छोड़ दिया। लेकिन, अपनी खुद की पहचान बनाने की लालसा में वहीदा उनको छोड़ गईं। गुरु बुरी तरह टूट गए थे। नशे के आगोश में रहने लगे।
इसी बीच फिल्म ‘कागज के फूल’ को दर्शकों ने रिजेक्ट कर दिया। गुरुदत्त को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ।
इन दोनों रिजेक्शन ने ही उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया था। उनके शब्दकोश में असफलता जैसे शब्द के लिए कोई जगह नहीं थी, शायद यही वजह थी कि वे बहुत कम उम्र में चल बसे।
1964 में 39 वर्ष की उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। वह 10 अक्टूबर 1964 की सुबह मुंबई के अपने पेडर रोड स्थित बंगले के बेडरूम में मृत पाए गए।
बताया जाता है कि उन्होंने शराब के साथ नींद की गोलियां ज्यादा मात्रा में खा ली थींं। उनकी ज्यादातर फिल्मों में वहीदा रहमान रहती थीं।
कहा यह भी जाता है कि वे वहीदा रहमान से बेइंतहा प्यार करने लगे थे। लेकिन, शादीशुदा थे इसलिए वहीदा के साथ आगे नहीं बढ़ सके।
यही वजह उनकी मौत का कारण भी बना। इसके पहले भी वे दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। ज़्यादातर वक़्त गंभीर रहने वाले गुरुदत्त का निधन एक पहेली बनकर रह गया!
कोई इसे आत्महत्या कहता है, तो कोई स्वाभाविक मौत! क्योंकि, जिस वक़्त उनका निधन हुआ, तब वे बिलकुल अकेले थे। उनके चले जाने से कई ऐसी चीज़ें थी जो शायद हमेशा के लिए अनुत्तरित रह गई।