Silver Screen:ऑस्कर की भीड़ में कहीं खो न जाए भारत की ‘लापता लेडीस!’  

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Silver Screen:ऑस्कर की भीड़ में कहीं खो न जाए भारत की ‘लापता लेडीस!’  

भारतीय फिल्मों का इतिहास बहुत लंबा है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय फिल्मों की पहचान उस लम्बाई के अनुरूप नहीं है। हर साल जब किसी भारतीय फिल्म को ‘ऑस्कर’ पुरस्कार में भेजे जाने की बात होती है, तो उस स्तर की एक फिल्म को खोज पाना मुश्किल होता है। यही कारण है कि किसी फिल्म को भेजा तो बहुत उत्साह और उम्मीद से है, पर अंत में हाथ कुछ नहीं लगता। अभी तक कुछ फ़िल्में अंतिम तीन में चयन तो हुई, पर उनके हाथ ऑस्कर की ट्राफी नहीं लगी। इस बार फिर इसी सकारात्मक उम्मीद से किरण राव की फिल्म ‘लापता लेडीज’ को ऑस्कर पुरस्कार (2025) के लिए भारत से भेजा जा रहा है। इस हल्की-फुल्की फिल्म को आधिकारिक प्रविष्टि के तौर पर चुना गया। लेकिन, ‘लापता लेडीज’ को ऑस्कर में भेजने की घोषणा के साथ ही विवाद भी हुआ। कहा जा रहा है कि पायल कपाड़िया की फ़िल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ इससे ज्यादा बेहतर फिल्म है।

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‘लापता लेडीज’ को 29 फिल्मों में से चुना गया है। 2002 में आई आमिर खान की एक्टिंग वाली फिल्म ‘लगान’ के बाद से अभी तक किसी भारतीय फिल्म ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म के लिए नामांकित नहीं हुई। इससे पहले दो फिल्मों ने अंतिम पांच में जगह बनायी थी, ये थी ‘मदर इंडिया’ और ‘सलाम बॉम्बे।’ अपनी अनोखी पटकथा की वजह से ‘लापता लेडीज’ को जिन फिल्मों में से चुना गया वे हैं हिंदी की हिट फिल्म ‘एनिमल’ और मलयालम की राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘अट्टम’ और कान फिल्म महोत्सव की विजेता ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ शामिल हैं।

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जाहनु बरुआ की अध्यक्षता वाली 13 सदस्यीय चयन समिति ने आमिर खान और किरण राव निर्मित ‘लापता लेडीज’ को एकेडमी अवॉर्ड्स में सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फिल्म श्रेणी के लिए ‘सर्वसम्मति’ से चुना। ‘लापता लेडीज़’ के निर्माता आमिर ख़ान हैं और उनकी प्रोडक्शन की फिल्में ‘लगान’ और ‘तारे ज़मीन पर’ पहले इस श्रेणी के लिए भेजी जा चुकी है। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अपने पिछले अनुभवों का उपयोग करते हुए आमिर ख़ान ‘लापता लेडीज़’ की ऑस्कर एंट्री को ख़ास मुकाम तक पहुंचा सकेंगे।

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यह फिल्म इसी साल (2024) रिलीज हुई और इसने दर्शकों का अच्छा मनोरंजन किया। लेकिन, सवाल उठता है कि ‘लापता लेडीज’ की एंट्री का क्या कारण है, तो इसका जवाब जूरी के अध्यक्ष और असमी फिल्मों के डायरेक्टर जाह्नू बरूआ ने दिया। उन्होंने बताया कि जूरी इन 29 फिल्मों में ऐसी फिल्म की तलाश कर रही थी, जो हर नजरिए से भारत को ऑस्कर के जरिए दुनिया में प्रस्तुत कर सके। ऐसे में ‘लापता लेडीज’ इन मानकों पर पूरी तरह खरी उतरती है। भारतीयता बहुत अहम है और इसलिए ‘लापता लेडीज’ ही सही चयन है।

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उन्होंने यह भी कहा कि यह जरूरी है कि ऐसी फिल्म को ऑस्कर भेजा जाए जो विश्व पटल पर भारत को दिखाए। यही कारण है कि 29 फिल्मों में से जूरी के मेंबर्स ने सिर्फ ‘लापता लेडीज’ पर ही मुहर लगाई। उन्होंने यह भी बताया कि चेन्नई में इन सभी फिल्मों को एक हफ्ते में देखा गया। इस पूरे हफ्ते हमने फिल्मों पर चर्चा की। इसके बाद इनका हर तरह से विश्लेषण कर शॉर्टलिस्ट किया। कौन सी फिल्म ऑस्कर में भेजी जाए इस चर्चा के लिए आधा दिन और लगा, फिर ‘लापता लेडीज’ को अंतिम रूप से चुन लिया गया। यह भी कहा कि उन पर और उनकी टीम पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं था।

यह फिल्म दो दुल्हनों फूल और जया पर केंद्रित सोशल ड्रामा है। इसके कथानक में दिखाया गया कि कैसे कम उम्र में लड़कियों की शादी करके उन्हें घर की चारदीवारी में जिम्मेदारियों के साथ बंद कर दिया जाता है। फिल्म में एक लड़की जो पढ़ना चाहती है वो शादी के खिलाफ होती है। फिर भी उसकी जबरन शादी कर दी जाती है। जब वह विदा होकर ट्रेन से ससुराल जाती है, तो उसे ट्रेन के डिब्बे में एक और दुल्हन मिलती हैं। दोनों ने नाक तक घूंघट डाला होता है। उनका यह घूंघट दुल्हनों की वास्तविकता के साथ एक भारतीय सामाजिक संस्कार भी है। घूंघट और ट्रेन से उतरने की हड़बड़ी में ये दोनों दुल्हनें अपने दूल्हों से बदल जाती हैं। इस नाटकीयता पर हंसी तो आती है, लेकिन कहानी के आगे बढ़ने पर स्थिति की जटिलता भी समझ आती है।

कहानी के साथ एकाकार होकर दर्शक भी किरदारों के साथ चिंतित होते हैं कि फूल और जया कैसे सही ठिकानों तक पहुंचेगी। उनके साथ कुछ अप्रिय होने का खतरा भी होता है। फूल और जया की परिस्थितियां अलग होने के बावजूद एक जैसी हैं। क्योंकि, दोनों का वर्तमान अनिश्चित होता है। फूल अपनी सादगी और जया अपनी होशियारी के बावजूद पुरुष प्रधान समाज के बुने जाल में फंस जाती है। दोनों के पति स्वभाव में अलग है। दीपक सोच में प्रगतिशील है, लेकिन प्रदीप रूढ़िवादी और पुरुषवादी सोच रखता है। फूल, जया, दीपक और प्रदीप इन सभी किरदारों के ताने-बाने में महिलाओं की अस्मिता, पहचान और प्रतिष्ठा के सवाल सामने आते हैं। निर्देशक किरण राव ने इसे बेहद सरल तरीके से सुलझाया है।

इसी साल 1 मार्च को रिलीज हुई इस फिल्म की शुरुआत काफी धीमी रही। लेकिन सकारात्मक समीक्षाओं और माउथ पब्लिसिटी ने फिल्म को आगे बढ़ाया और यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ गति पकड़ने में सफल रही। फिल्म ने शुरुआती सप्ताह में लगभग 4 करोड़ रुपए कमाए। रिलीज के 50 दिनों के बाद ‘लापता लेडीज’ का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 17.31 करोड़ रुपए रहा। 8 हफ्ते बाद यह फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ गई। किरण राव द्वारा निर्देशित इस फिल्म को आमिर खान और ज्योति देशपांडे ने बनाया है। यह फिल्म आमिर खान प्रोडक्शंस और किंडलिंग प्रोडक्शंस के बैनर तले बनाई गई। इसकी पटकथा बिप्लब गोस्वामी की एक पुरस्कृत कहानी पर आधारित है। पटकथा और संवाद स्नेहा देसाई ने लिखे हैं, जबकि अतिरिक्त संवाद दिव्य निधि शर्मा ने लिखे हैं।

ऑस्कर में भारत का ख़राब रिकॉर्ड

1956 में जब से ‘बेस्ट फॉरेन लेंग्वेज कैटेगरी’ वाली फिल्मों को अवार्ड देने की शुरुआत की गई, तभी से भारत का रिकॉर्ड ख़राब रहा। भारत से भेजी जाने वाली फ़िल्में हमेशा विवादों से घिरी रही। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हम अभी तक समझ ही नहीं सके कि ऑस्कर पाने वाली फ़िल्में कैसी होती है! हमारे यहां कभी राजनीतिक कारणों से तो कभी किसी को खुश करने के लिए फिल्मों का चयन किया जाता रहा है। इसका सटीक उदाहरण है 1996 में इंडियन, 1998 में ‘जींस’ और 2019 फिल्म ‘गली बॉय’ को इस कैटेगरी में भारत से भेजा जाना है। क्या इन फिल्मों का स्तर इस लायक था कि इन्हें ऑस्कर में भेजा गया ये आज भी रहस्य है कि इन फिल्मों को क्यों चुना गया था!

2007 में भी ‘एकलव्य : द रॉयल गार्ड’ फिल्म को लेकर भारी बवाल मचा था। जब ‘बर्फी’ फिल्म का चुनाव ऑस्कर के लिए किया गया, तब भी बहुत हल्ला मचा। ‘बर्फी’ के बारे में कहा गया था कि इस फिल्म के कई सीन विदेशी फिल्मों की साफ-साफ़ नक़ल है। ‘न्यूटन’ फिल्म पर आरोप लगे थे कि कि ये एक ईरानी फिल्म ‘सीक्रेट बैलट’ की नक़ल है। लेकिन, जब भी हमने अच्छी फिल्में भेजीं, ऑस्कर ने उन्हें ठुकराया भी है। न्यूटन, विसरनई, कोर्ट, विलेज रॉकस्टार्स के अलावा ‘रंग दे बसंती’ (2006), ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) से लेकर ‘गाइड’ (1965) और अपू ट्राईलॉजी की तीसरी फिल्म द वर्ल्ड ऑफ अपू’ (1959) तक ऐसा कई-कई बार होता रहा! फिर आखिर चूक कहां होती है, ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब खोजा जाना है!

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अंतिम पांच दावेदारों में तीन बार जगह मिली

अभी तक भेजी जाने वाली भारतीय फिल्मों में केवल तीन बार हमारी फिल्में ऑस्कर के अंतिम पांच दावेदारों में जगह बना सकी! मदर इंडिया (1957), सलाम बॉम्बे (1988) और लगान (2001) ही वे भाग्यशाली फ़िल्में रही, जो अंतिम पांच तक पहुंची पर जीत नहीं सकी। आजतक किसी भारतीय फिल्म ने ऑस्कर नहीं जीता! केवल ‘गांधी’ (1982) और ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ (2008) जैसी दो विदेशी फिल्मों के लिए भानु अथैया, गुलजार, एआर रहमान और रसूल पुकुट्टी जैसे लोगों को अलग-अलग विधाओं में ऑस्कर से नवाजा जरूर गया। इसके अलावा सत्यजीत रे को 1992 में ऑस्कर का ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ दिया गया। लेकिन, जो सम्मान किसी भारतीय फिल्म को मिलना चाहिए, उससे अभी भारतीय फिल्मकार अछूते हैं।

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ऑस्कर में भारत की सबसे सशक्त दावेदारी आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’ की रही। उस साल ये फिल्म ऑस्कर जीतते-जीतते रह गई। कोई भारतीय फिल्म इस कैटेगरी में अवार्ड नहीं जीत पाया! इसके पीछे क्या हमारी चयन प्रक्रिया में खोट है! क्या किसी खास मूड की फिल्म का ही चयन किया जाता रहा है! यदि ऐसा नहीं है, तो क्या फिर फिल्म के चयन में कोई पक्षपात किया जाता है! इन सवालों का जवाब शायद किसी के पास नहीं मिलेगा! ‘लगान’ से पहले ‘मदर इंडिया’ और ‘सलाम बॉम्बे’ का चयन भी इसी कैटेगरी के लिए हुआ था। लेकिन, एनवक्त पर ये फ़िल्में बाहर हो गई! भारत की तरफ से भेजी गई पहली फिल्म ‘मदर इंडिया’ को नामांकन मिला। यह फिल्म विधवा औरत की मुसीबत, गरीबी में अपने दो बच्चों का पालन करने वाली पीड़ित भारतीय नारी की परिभाषा तय करती हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी से नरगिस ने राधा की इस भूमिका में जान डाल दी थी। अपनी अदाकारी के लिए नरगिस को तब ‘कार्लोवी वेरी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल’ में भी ‘बेस्ट एक्ट्रेस’ का अवॉर्ड मिला था। लेकिन, यह फ़िल्म ‘ऑस्कर’ से वंचित रही।