Silver Screen: बॉक्स ऑफिस पर राज नहीं कर पाई राजनीतिक फिल्में!

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Silver Screen: बॉक्स ऑफिस पर राज नहीं कर पाई राजनीतिक फिल्में!

फिल्मों के जो रोचक विषय है, उसमें से एक है राजनीति! जब फिल्मकार प्रेम और एक्शन फिल्मों से ऊब जाते हैं, तो राजनीति पर फिल्म बनाने से परहेज नहीं करते। कभी फिल्म के काल्पनिक किरदारों में नेताओं को गढ़ा जाता है तो कभी किसी प्रसंग में उन्हें जोड़कर कथानक को आगे बढ़ाया जाता है। कभी-कभी नए प्रयोग के बतौर राजनीतिकों की बायोपिक या उनके जीवन पर फ़िल्में बनाई जाती है। इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री से लगाकर नरेंद्र मोदी तक पर फ़िल्म बनी। लेकिन, कुछ ऐसे नेताओं पर भी फ़िल्में बनाई गई, जो पूरी जिंदगी किसी बड़े पद पर तो नहीं पहुंचे, पर जनता पर उनका जबरदस्त प्रभाव रहा। अभी भी देश के दो प्रधानमंत्रियों पर बन रही फ़िल्में बनना जारी है। एक है इंदिरा गांधी पर और दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी पर। ये दोनों राजनेता अपने समय काल में काफी चर्चित रहे। नाम से ही जाहिर है कि इंदिरा गांधी पर बन रही नई फिल्म ‘इमरजेंसी’ इस महिला राजनेता के विवादास्पद दौर के फैसलों पर बन रही है। अनुमान यह भी है कि इस फिल्म को लेकर विवाद हो सकते हैं।

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इससे पहले गुलजार ने 1975 में ‘आंधी’ फिल्म बनाई थी, जिसमें फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन एक महिला राजनेता के किरदार में नजर आई थीं। हालांकि, फिल्म की कहानी से इंदिरा गांधी का कोई तारतम्य नहीं था, पर नायिका का पहनावे को पूर्व प्रधानमंत्री से जोड़कर देखा गया। विवाद होने पर इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया था। 1977 में जब कांग्रेस की सरकार गिरी और जनता पार्टी की सरकार आई, तब इस फिल्म को रिलीज़ किया। वैसे इंदिरा गांधी पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं, जिसमें पहले आई फिल्मों के अलावा 2005 में आई अमु, 2016 में रिलीज हुई अक्टूबर, 2017 में आई ‘इंदु सरकार’ शामिल हैं। कई फिल्मों की कहानी में इंदिरा गांधी को भी जोड़ा गया। ऐसी फिल्मों में बेल बॉटम, पीएम नरेंद्र मोदी, थलाइवी और ठाकरे के नाम सामने आते हैं।

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नेताओं के जीवन पर भी कई फ़िल्में बनी और बन रही है। लेकिन, कोई भी फिल्म ऐसी नहीं आई जो यादगार बने। बल्कि, ऐसी राजनीतिक फिल्मों को लेकर खींचतान ही ज्यादा हुई। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर तो आज तक कोई फिल्म नहीं बनी, पर एक अमेरिकी फिल्म डायरेक्टर ने ‘अ डे इन द लाइफ ऑफ प्राइम मिनिस्टर नेहरू’ नाम की डॉक्यूमेंट्री जरूर बनाई थी। इसके लिए फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर ने पंडित नेहरू के साथ ब्रेकफास्ट से डिनर तक एक पूरा दिन भी बिताया था। इस डॉक्यूमेंट्री में जवाहर लाल नेहरू को नॉर्थ ईस्ट के नक्शे को लेकर विदेश सचिव और अन्य अधिकारियों से बातचीत करते दिखाया गया था।

बॉक्स ऑफिस पर राज नहीं कर पाई राजनीतिक फिल्में!

2019 में आई फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बनाई गई। यह फिल्म मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू की किताब पर बनी थी। इस फिल्म के जरिए मनमोहन सिंह को कांग्रेस आलाकमान की कठपुतली बताया गया, जो चाहकर भी अपने फैसले नहीं ले पाए। फिल्म में मनमोहन सिंह को एक मजबूर शासक की तरह पेश किया गया। इस फिल्म को प्रमोशन भी इसी तरह से किया गया। यह फिल्म विवादों में तो आई, पर चली नहीं। इसी साल (2019) आई फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ को विवेक अग्निहोत्री ने बनाया था। इस फिल्म का मूल कथानक देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मौत पर था। इस फिल्म को पसंद भी किया गया। क्योंकि, पहली बार इस गंभीर मुद्दे पर किसी ने फिल्म बनाने का साहस किया था। इसमें एक डायलॉग है ‘दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी का दूसरा प्रधानमंत्री ताशकंद जाता है। ताशकंद वॉर ट्रीटी पर साइन करता है और मर जाता है। सैकड़ों सस्पीशियस होते हैं, लेकिन एक भी एन्क्वायरी कमीशन नहीं बैठाई जाती!’ इस तरह फिल्म ने तत्कालीन इंदिरा सरकार पर निशाना साधा गया।

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‘पीएम नरेंद्र मोदी’ फिल्म भी 2019 में ही आई थी। इसे नरेंद्र मोदी की बायोपिक की तरह बनाया गया। वास्तव में तो इस फिल्म को 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले परदे पर लाने की तैयारी थी और प्रमोशन भी उसी तरह किया गया। लेकिन, चुनाव को देखते हुए इस पर रोक लगा दी गई। चुनाव के बाद फिल्म को रिलीज किया जा सका। लेकिन, फिल्म को वो सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्मीद शायद निर्देशक उमंग कुमार ने की होगी। फिल्म में नरेंद्र मोदी का किरदार विवेक ओबेरॉय ने निभाया, पर वे न्याय नहीं कर सके। इस नजरिए से देखा जाए तो 1993 में आई फिल्म ‘सरदार’ ज्यादा सफल रही। इसे केतन मेहता ने निर्देशित किया था। जाने-माने राजनेता सरदार वल्लभभाई पटेल के जीवन पर आधारित इस फिल्म में आज़ादी के संघर्ष और उनकी राजनीतिक भूमिका के बारे में विस्तार से बताया था। इस फिल्म को देखते हुए समझा गया था कि आजादी के बाद की राजनीति का दौर कैसा था।

 

राजनीतिकों के जीवन के अलावा भी कुछ ऐसी फ़िल्में बनी जिनका काल्पनिक कथानक राजनीति पर केंद्रित रहा। इनमें सबसे ज्यादा विवादस्पद फिल्म रही 1977 में आई ‘किस्सा कुर्सी का!’ दरअसल, ये राजनीति पर एक व्यंगात्मक फिल्म थी। अमृत नाहटा खुद नेता थे, उन्होंने ही यह फिल्म भी बनाई थी। वे कांग्रेस के टिकट पर दो बार लोकसभा का चुनाव जीते। लेकिन, आपातकाल के बाद वे अपनी पार्टी के विरोध में खड़े हो गए थे। इसी विरोध ने उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। उस समय की सरकार ने रिलीज़ नहीं होने दिया। यह फिल्म इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी पर आधारित थी। वास्तव में तो यह फिल्म 1975 में बनी थी। लेकिन, इसे रिलीज़ नहीं होने दिया गया और इसका मास्टर प्रिंट ही जला दिया। 1977 में इसे दोबारा बनाकर रिलीज किया गया।

बॉक्स ऑफिस पर राज नहीं कर पाई राजनीतिक फिल्में!

महात्मा गांधी के जीवन पर रिचर्ड एटनबरो ने 1982 में फिल्म ‘गांधी’ बनाकर तो इतिहास रच दिया था। यह फिल्म महात्मा गांधी के वास्तविक जीवन पर आधारित थी। फ़िल्म का निर्देशन रिचर्ड एटनबरो ने किया और बेन किंग्सले ने गांधी की भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म के लिए दोनों को अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के अकादमी पुरस्कार के साथ आठ अन्य अवॉर्ड भी मिले थे। यह भारतीय और यूनाइटेड किंगडम की फ़िल्म निर्माता कंपनियों द्वारा बनाई गई साझा फ़िल्म थी। इसके बाद 2007 में ‘गांधी माई फादर’ आई जिसे फिरोज अब्बास खान ने बनाया। इसकी कहानी गांधी जी और उनके पुत्र हरिलाल पर केंद्रित थी। महात्मा गांधी और उनके सबसे बड़े पुत्र हरिलाल गांधी के बीच एक अजीब रिश्ता रहा। अपने पिता के मानकों पर खरा उतरने में असमर्थ हरिलाल का जीवन बिखर सा गया था। कहा जाता है कि गांधी जी ने पूरे देश में सम्मान पाया, लेकिन वे अपने बेटे के दिल में अपने लिए जगह नहीं बना पाए! यहां तक कि वे उसे मुसलमान बनने से भी नहीं रोक सके थे। इस फिल्म में महात्मा गांधी का एक संवाद है ‘जानते हो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी हार क्या है! दो ऐसे इंसान जिन्हें मैं जिंदगी भर अपनी बात नहीं समझा पाया। एक मेरा काठियावाड़ी दोस्त मोहम्मद अली जिन्ना और दूसरा मेरा अपना बेटा हरी लाल।’

बॉक्स ऑफिस पर राज नहीं कर पाई राजनीतिक फिल्में!

शिवसेना के संस्थापक और महाराष्ट्र के बड़े नेता रहे बाल ठाकरे पर 2019 में ‘ठाकरे’ नाम से बायोपिक बनाई गई थी। फिल्म का निर्देशन अभिजीत पंसे ने किया। इसे हिंदी के साथ मराठी में बनाया गया था। फिल्म के जरिए बाल ठाकरे के शुरुआती संघर्ष से लेकर उन्हें शिवसेना बनाने तक की कहानी थी। फिल्म में बाल ठाकरे के एक अखबार में कार्टूनिस्ट के काम से उन्हें महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरते हुए दिखाया गया। इस फिल्म में उन सारे अनुत्तरित सवालों का जवाब देने की कोशिश की गई थी, जिससे बाल ठाकरे हमेशा घिरे रहे। उन्होंने आपातकाल का समर्थन क्यों किया और उन्हें लोकतंत्र में विश्वास क्यों था। इसके बावजूद फिल्म में कई सच्चाई दिखाने से रह गई। ऐसा लगा कि सिर्फ शिवसेना की छवि चमकाने के लिए इस कहानी को गढ़ा गया था। इसमें सब कुछ वैसा नहीं दिखाया गया जिस वजह से शिवसेना हमेशा सवालों के घिरी रही। यही कारण रहा कि यह फिल्म अपना प्रभाव नहीं छोड़ सकी।

बॉक्स ऑफिस पर राज नहीं कर पाई राजनीतिक फिल्में!

इस श्रृंखला में अब एक और बायोपिक ‘मैं अटल हूँ’ पर काम शुरू हो गया। यह फिल्म देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन पर आधारित है। पहले इस फिल्म का नाम ‘मैं रहूं या ना रहूँ देश रहना चाहिए : अटल’ रखा गया था। इस फिल्म को संदीप सिंह और विनोद भानुशाली प्रोड्यूस कर रहे हैं। फिल्म की कहानी किताब ‘द अनटोल्ड वाजपेयी’ पर आधारित होगी। फिल्म का डायरेक्शन मराठी सिनेमा के मशहूर डायरेक्टर रवि जाधव कर रहे हैं। इस फिल्म का एक मोशन पोस्टर भी जारी किया गया जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण का कुछ अंश भी सुनाई देते हैं। इसमें अटल बिहारी वाजपेई की आवाज सुनाई देती है ‘सत्ता का खेल तो चलता रहेगा, सरकारें आएंगी, जाएंगी। पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी। लेकिन ये देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए!’ राजनीति से प्रेरित जब भी फ़िल्में बनेंगी, उनमें राजनीतिक उलटफेर ही ज्यादा दिखाया गया। जब भी राजनीतिक घटनाओं या नेताओं पर फिल्में बनी, बवाल जरूर मचा है। कुछ फिल्मों का विरोध धर्म, समाज और संस्कृति के नाम पर किया गया। जब भी समाज की सच्चाई को दिखाने वाले मुद्दों पर फिल्में बनीं उसमें राजनीति जरूर की गई। क्योंकि, ये मुद्दा ही अपने अंदर सनसनी समाए रहता है।