Silver Screen:दिलीप कुमार जैसा कोई हुआ है न कभी होगा! 

737

Silver Screen :दिलीप कुमार जैसा कोई हुआ है न कभी होगा! 

आज दिलीप कुमार हमारे बीच नहीं हैं। यदि होते तो संडे को उनका 100वां जन्मदिन होता। उनमें बहुत कुछ ऐसा रहा जो उन्हें सबसे अलग करता रहा। कलाकारों की भीड़ में भी वे अलग ही रहे! उन्होंने कभी अपने आपको अलग रखने की कोशिश तो नहीं की, पर संयोग कहें या किस्मत, वे हर मामले में अपने समकालीनों से अलग ही रहे। ये भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अपने आपको कलाकार तक सीमित रखा! वे कलाकार होने के साथ नफीस साहित्यिक व्यक्ति भी थे। उर्दू भाषा तो उनके मुख से किसी महकते गुल की तरह धारा प्रवाह रूप में बहती थी। यह धारा भी इतनी निर्मल और सहज होती थी कि किसी भारी भरकम शब्दावली का उपयोग करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। गाहे-बगाहे किसी कार्यक्रम में उनके मुख से जो शब्द निकलते, वे श्रोताओं को एक अदबी रस में डूबो देते थे। लंदन के अलबर्ट हॉल में लता मंगेशकर का परिचय उन्होंने जिस अंदाज में दिया था आज भी वो शब्द श्रोताओं के कान में शहद घोलते हैं। एक बार उन्होंने ऐसे ही एक कार्यक्रम में अनायास कह दिया था ‘हमारे बाद इस महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे, बहारें हमको ढूँढेगी न जाने हम कहाँ होंगे!’ आज जब इन पंक्तियों को याद किया जाता है, तो लगता है कि दिलीप कुमार ने न जाने किस संदर्भ में अपने बारे में ही इन पंक्तियों को दोहराया होगा, जो आज सच साबित हो रहा है। दिलीप कुमार सिर्फ अभिनेता नहीं, पाठशाला भी नहीं पूरा विश्वविद्यालय ही थे। उन्होंने अभिनय में कभी भी अपने पूरे शरीर को नहीं झोंका, बल्कि केवल हाथों और चेहरे से अपना अभिनय बयां किया और खूब किया। होठों से मंद स्वरों में निकलते संवाद, आंखों से झांकती संजीदगी और माथे पर पड़ने वाली बालों की लटों से ही दिलीप कुमार सब कुछ कर जाते और कह जाते थे।

IMG 20221209 WA0077

किंग खान की उपाधि तो शाहरुख खान के लिए मीडिया ने गढी थी, लेकिन बॉलीवुड के असली किंग खान तो यूसुफ खान ही रहे! उन्हें उसी मीडिया ने गलत बयानी कर ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर कर दिया था। ट्रेजडी किंग का उनका रूप तो महज मेला, जोगन, शहीद, अंदाज, दीदार, शिकस्त और देवदास के लिए ही था। लेकिन, अपनी पचास से थोड़ी ज्यादा फिल्मों में तो ट्रेजिडी किंग नहीं, वे किरदार थे जिसके लिए निर्माता निर्देशक ने उन्हें फिल्मों में चुना था। इसी उपाधि से तंग आकर दिलीप कुमार इतने डिप्रेशन में आ गए कि उन्होंने आजाद, कोहिनूर और ‘राम और श्याम’ में कॉमेडी करनी पड़ी। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि उन्होंने गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ करने से इंकार कर दिया, जिसका उन्हें ताउम्र अफसोस भी रहा।

वे ऐसे कलाकार थे जिसके जीवन का हर पक्ष कोई न कोई फलसफा रहा! यूसुफ़ खान से दिलीप कुमार बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। उनकी उच्च शिक्षा मुंबई के खालसा कॉलेज से हुई, जहां उनके प्रोफ़ेसर डॉ मसानी ने उनको देविका रानी से मिलवाया था। अच्छी उर्दू आने के कारण देविका रानी की कंपनी ने उन्हें पटकथा लेखक के रूप में रख लिया। लेकिन, उनके शालीन व्यवहार, नफासती अंदाज और अच्छी उर्दू के साथ अच्छे ड्रेसिंग सेंस का दोहरा आकर्षण देविका की पारखी नज़रों से छुपा नहीं रहा। उन्होंने यह जानते हुए कि जिस नौजवान ने कभी थिएटर का मुंह नहीं देखा, उनके सामने ‘’ज्वार-भाटा’ फ़िल्म की मुख्य भूमिका के लिए प्रस्ताव रख दिया। 1944 में सामने आई यही उनकी पहली फ़िल्म थी।

IMG 20221209 WA0073

इस फिल्म में उन्हें अनुबंधित करते समय देविका रानी ने एक ही शर्त रखी कि वे अपना नाम बदल लें और ऐसा नाम रखें, जो दर्शकों को अच्छा लगे। यूसुफ खान के फिल्मी नामकरण के लिए हिंदी के प्रसिद्ध कवि पंडित नरेंद्र शर्मा से आग्रह किया गया और उन्होंने तीन नाम सुझाए वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार। इनमें से यूसुफ़ को जहांगीर नाम पसंद आया था, लेकिन वहीं कार्यरत कथाकार भगवती चरण वर्मा ने दिलीप कुमार नाम की सिफारिश की और देविका रानी ने भी दिलीप पर ही अपनी राय क़ायम की। इस तरह यूसुफ़ खान दर्शकों के लिए दिलीप कुमार बन गए। इस फिल्म के लिए उनका पारिश्रमिक साढ़े बारह सौ रुपए तय हुआ, जिसे यूसुफ खान ने सालाना पारिश्रमिक समझ लिया था। क्योंकि, तब औसत तनख्वाह ही पचास रुपए महीना हुआ करती थी। बाद में पता चला कि यह तो मासिक पारिश्रमिक था। ऐसा ही एक वाकया तब हुआ था, जब देविका रानी ने कुमुद गांगुली से अशोक कुमार बने अभिनेता को 300 रुपए का पारिश्रमिक देना मुकर्रर किया था। इसे भी अशोक कुमार अपना सालाना पारिश्रमिक समझ बैठे थे। मजे की बात तो यह कि 300 रुपए की एकमुश्त रक़म पहली बार पाकर दादा मुनी इस चिंता में पड़ गए थे कि उसे कहाँ रखें। इतनी बड़ी रक़म घर में होते हुए उन्हें नींद भी कैसे आएगी! अंत में वे तकिए की खोल में पैसे रखकर उसे सिर के नीचे दबाकर सोए थे। फिर भी उन्हें रातभर नींद नहीं आई थी। अनुबंध के बाद अशोक कुमार और शशधर मुखर्जी के साथ दिलीप कुमार की ट्रेनिंग शुरू हुई और दिलीप कुमार का जन्म हुआ, जो हिन्दी फिल्म का वटवृक्ष साबित हुए।

IMG 20221209 WA0075

दिलीप कुमार और विवादों का नाता बहुत पुराना रहा है। कभी उन पर पाक परस्त होने का आरोप लगाया गया, तो कभी यह प्रचारित किया गया कि ‘पैगाम’ में उनके सह कलाकार राजकुमार उन्हें खा गए थे! लेकिन, उन्होंने यदि पर्दे पर अंडर प्ले किया, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि फिल्म के किरदार की यही मांग भी थी। ‘पैगाम’ में वे राजकुमार के छोटे भाई बने थे, लिहाजा उन्हें बड़े भाई के सामने दबकर ही रहना था जो कहानी की डिमांड भी थी। ‘संघर्ष’ की भी यही कहानी थी जिसके बारे में यह तक कह दिया गया कि संजीव कुमार के बढ़ते प्रभाव से बचने के लिए उन्होंने उनके पात्र को मरवा दिया। जबकि, फिल्म की कहानी यह थी कि उन्हें जहर पिलाने के लिए जिस वैजयंती माला का उपयोग किया जाता है वह उनके बचपन की प्रेयसी होती है। हकीकत जानने पर वह जहर का प्याला बदलकर संजीव कुमार को पिला देती है और अपने प्यार को बचा लेती है।

IMG 20221209 WA0072

‘संघर्ष’ में दिलीप कुमार और वैजयंती माला के बीच जितने भी रोमांटिक सीन थे, सभी तनाव के साथ फिल्माए गए थे। क्योंकि, ‘मधुमती’ और ‘गंगा जमुना’ के दौरान दोनों के बीच जो प्यार पनपा था, ‘लीडर’ के बनते-बनते वह नफरत में बदल गया। वैजयंती माला उनका तीसरा प्यार थी। उनका पहला प्यार ‘शहीद’ फिल्म की नायिका कामिनी कौशल थी, दूसरा प्यार थी मधुबाला जिससे उन्हें ‘तराना’ के दौरान मोहब्बत हो गई थी। दोनों शादी भी करना चाहते थे, लेकिन मधुबाला के पिता नहीं चाहते थे कि उनकी कमाऊ बेटी हाथ से निकल जाए। उस दौरान दिलीप कुमार को यकीन था कि मधुबाला प्यार की खातिर अपने पिता की बात नहीं मानेगी! लेकिन, मधुबाला ने अपने पिता का साथ दिया और दोनो के प्यार के बीच दरार पैदा हो गई जो ‘नया दौर’ के दौरान खाई बन गई। नतीजा ये हुआ कि मधुबाला ने फिल्म छोड़ दी और जब बीआर चोपड़ा ने हर्जाने के लिए केस लगाया तब दिलीप कुमार ने बीआर चोपड़ा का पक्ष लिया। उसके बाद दोनों में बातचीत बंद हो गई। इसी अबोले के बीच दोनों ने ‘मुगले आजम’ में रोमांटिक दृश्य दिए। लेकिन, एक दृश्य में जब दिलीप कुमार ने मधुबाला को जमकर तमाचा लगाया, तो सब कुछ खत्म हो गया।

IMG 20221209 WA0076

सायरा बानो से शादी के बाद जब आसमां से उन्होंने निकाह किया तो एक बार फिर वे विवादों में घिर गए। जब उन्हें मुंबई का उन्हें शेरिफ बनाने का प्रस्ताव मिला, तो वे उसे नकारते रहे, तब शरद पवार ने उन्हें मनाया था। इसके बावजूद दिलीप कुमार की झोली हमेशा पुरस्कारों से भरी रही। राज्यसभा की सदस्यता के साथ ‘पद्म भूषण’ व ‘दादा साहेब फाल्के’ जैसे सम्मानों से नवाज़ा.गया। वे एकमात्र अभिनेता थे, जिन्हें दाग, आजाद, देवदास, नया दौर, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम तथा ‘शक्ति’ जैसी आठ फ़िल्मों के लिए आठ बार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला। पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से भी उन्हें नवाजा गया। इसके बावजूद वे परदे पर फिल्म दर फिल्म अपने मरने को सच-सा जीवंत बनाने की सफल कोशिश करते रहे। इसके बीच अभिनय में गहन अवसाद को निरंतर साकार करते-करते मरणांतक अवसाद को जीते-जीते दिलीप साहब अपने वास्तविक जीवन में भी अवसाद डिप्रेशन में चले गए और अंतिम कुछ साल तक वह अपनी भूली हुई याददाश्त से जूझते रहे। अंततः यादों की जुगाली करते हुए 7 जुलाई 2021 को वे इस दुनिया से रुखसत हो गए।