Silver Screen: फिल्मों के टाइटल की भी अपनी अलग कहानी!

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सिनेमा सिर्फ परदे पर दो-ढाई घंटे का मनोरंजन नहीं होता! उसके पीछे भी बहुत ऐसा होता है, जो दर्शकों को दिखाई नहीं देता, पर उसके बिना फिल्म का निर्माण भी पूरा नहीं होता! ऐसा ही एक काम है फिल्म की नामावली जो फिल्म शुरू होने से पहले परदे पर उभरती है। क्योंकि, सिनेमा को परदे पर पहचान देने का काम सेंसर के प्रमाण पत्र के अलावा फिल्म के शुरू में दी जाने वाली नामावली का भी होता है, बोलचाल की भाषा में जिसे टाइटल कहते हैं। प्राय: शुरू में निर्माता, निर्देशक और सितारों के नाम दिए जाते हैं, बाकी के नाम फिल्म के अंत में दिए जाने का रिवाज है, पर इसे रोलर टाइटल्स कहा जाता है।

इसे किसी किताब की अनुसूची या इंडेक्स जैसा माना जा सकता है। लेकिन, कुछ फिल्मों की नामावली इतनी विशिष्ट होती है, कि यह बरसों तक दर्शकों के मन मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ देती हैं। नामावली के इसी महत्व को देखते हुए कुछ निर्माताओं ने अपनी फिल्मों की नामावली को दूसरों से हटकर बनाने का प्रयास भी किया। फिल्म में सबसे पहले आता है सेंसर प्रमाण पत्र। इसमें भी समय के साथ बदलाव आया। वैसे तो यह महज कागज का टुकड़ा होता है, पर परदे पर यह कुछ अलग ही दिखता है। अब वे दर्शक नहीं रहे, जिनकी फिल्मों के टाइटल्स में कोई रुचि हो! पहले ऐसा भी दौर था, जब कुछ सितारों के नाम सामने आते ही दर्शक तालियां बजाते थे। जब फिल्म का नाम आता था तो हॉल में बैठे दर्शक एक साथ नाम दोहराते थे और फिल्म कितने रील की है, इसे जोर से पढ़ते थे।

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पहले सेंसर प्रमाण पत्र पर फिल्म का नाम, उसका रंग यानी फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट, इस्टमैन कलर या फुजी कलर है। इसके अलावा निर्माता का नाम, वैधता अवधि के साथ उसकी लम्बाई भी दिखाई जाती है। आजकल फिल्मों की लम्बाई उसकी प्रसारण अवधि यानी कि दो घंटे दस मिनिट या इसी तरह प्रदर्शित की जाती है। पहले इसे रीलों की संख्या में प्रदर्शित किया जाता था। आज भले ही कोई इस पर कोई गौर न करें, लेकिन 1960 के आसपास के दर्शक जानते हैं, कि जैसे ही सेंसर प्रमाण पत्र पर्दे पर आता था, दर्शकों की फुसफुसाहट से पूरा सिनेमाघर गूंज जाता था। 14 रील, 16 रील, 20 रील या 24 रील। सामान्यतः तब फिल्में 14 रीलों की हुआ करती थी, जिसकी लम्बाई फीट में भी प्रदर्शित की जाती थी। लेकिन, तब यह अघोषित नियम लागू था कि जितना बड़ा निर्माता या कलाकार उतनी लम्बी फिल्म। राज कपूर की फिल्में 20 से 24 रीलों से कम में बन ही नहीं पाती थी। इसलिए इन फिल्मों के प्रमाण पत्र पर 24 रील पढ़कर दर्शक गदगद हो जाते थे। इसका असर फिल्म छूटने के बाद भी दिखाई देता था।

सामान्यतः एक फिल्म यूनिट में करीब लगभग डेढ़ सौ लोग होते हैं। पहले उन सभी के नाम दिए जाते थे, जो कामगार यूनियन से जुड़े होते हैं। हर बड़े कलाकार के साथ उनके सेवक जैसे कुछ लोग होते थे और उन सेवकों के नाम दिए जाने की भी परंपरा थी। इसके अलावा शूटिंग के दौरान निर्माता जो स्पॉट बॉय को काम पर लगाता है, उनके नाम भी नामावलियों में शामिल होते हैं। फिल्म से निकलने वाला हर दर्शक अमूमन बाहर खड़े दर्शकों को रील की संख्या बताता जाता था। कई बार तो अगला शो देखने आया बाहर खड़ा दर्शक ही पूछ लिया करता था ‘कितने रील की है!’ इसके अलावा एक और सवाल सामान्य था कि लड़ाई कितनी है! पर, इसका फिल्म की नामावली से कोई संबंध नहीं है।

‘बरसात’ तक राज कपूर की फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की शंकर भगवान की पूजा और आर के फिल्म्स की लिखावट के साथ नामावली आरंभ होती थी। लेकिन, ‘बरसात’ के एक दृश्य में जिसमें राज कपूर के एक हाथ में गिटार है, दूसरे हाथ में नरगिस की जबरदस्त लोकप्रिय होने के बाद यह आरके फिल्म्स का लोगो बन गया, जो कई दिनों तक चला। धीरे-धीरे राजकपूर और नरगिस की छबि धुंधली होती गई। राजकपूर की तरह ही दूसरे निर्माताओं ने भी अपनी निर्माण संस्था का लोगो बना रखा था, जिसे नामावली से पहले दिखाया जाता रहा। देव आनंद की नवकेतन की फिल्मों में कभी सड़क पर कंदील दिखाई देता था, जो समय के साथ लुप्त हो गया। दक्षिण के फिल्मकार ‘जैमिनी’ की फिल्मों में बिगुल पर विशिष्ट धुन बजाते लंगोट पहने दो बालक और एवीएम में पीछे से सर्कसनुमा प्रकाश स्तंभों के साथ खास संगीत अलग पहचान देता था।

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कुछ निर्माता ऐसे भी थे, जिनकी निर्माण संस्था के लोगों के साथ एक खास संवाद या शेर सुनाई देता था। हंसिया-बाली के साथ महबूब प्रोडक्शन का शेर आता था जिसके पार्श्व में आवाज आती थी ‘फानूस बनकर जिसकी हिफाजत हवा करे, वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे।’ नासिर हुसैन प्रोडक्शन में एनएच के ऊपर एक प्रतिमा के साथ ‘क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है हम खाक नशीनों की ठोकर में जमाना है’ आवाज सुनाई देती थी। मोहन कुमार की फिल्म में कमल के फूल के नीचे एमके फिल्म्स के साथ ‘अपनी अपनी करनी का फल है नेकियाँ, बदियां रुसवाईयाँ, आपके पीछे चलेगी आपकी परछाईयाँ’ कई सालों तक सुनाई दिया। बीआर चोपड़ा की फिल्म में हंसिए और बाली लिए मजदूर महिला पुरुष के साथ ‘यदा यदा ही धर्मस्य’ का संदेश सुनाई देता रहा। सोहराब मोदी की फिल्म के शुरू में दहाड़ता नजर आता था। राजश्री प्रोडक्शन में सरस्वती माता, जे ओमप्रकाश की फिल्म में स्त्री-पुरुष के दो हाथ भगवान शंकर को पुष्प अर्पित करते दिखाई देते थे।

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नामावली में सितारों के नाम भी उनकी हैसियत के क्रम में आते थे। यहां वरियता का ध्यान रखा जाता है और नहीं भी। यदि अशोक कुमार फिल्म में होते थे, तो सबसे पहले उनका नाम आता रहा। लेकिन, उनकी साथ वाले चरित्र अभिनेता का नाम भीड़ में कहीं गुम हो जाता है। कई बार तो मल्टी स्टार फिल्मों में नाम के आगे-पीछे रखने पर सितारों के बीच जंग तक छिड़ जाती। इन सबसे अलग रूतबा था खलनायक प्राण का जिनका नाम एक अलग अंदाज में आता था। बड़े सितारों के बाद लिखा आता था ‘एंड … प्राण!’ शायद इसी से प्रेरित होकर प्राण ने अपने जीवन पर आधारित पुस्तक का शीर्षक भी ‘एंड … प्राण’ ही रखा। भारत ही नहीं विदेशी फिल्मों में भी एमजीएम का शेर तो कोलम्बिया में स्टेचू आफ लिबर्टी का जलवा अलग ही था। जेम्स बांड की फिल्मों के टाइटल का एक खास पैटर्न होता है, जिसमें जीरो जीरो के पीछे जेम्स बांड उसकी पिस्तौल से निकली गोली से लाल होता परदा और गीत के साथ पूरा टाइटल अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसे हमारे यहां फिल्म ‘शान’ में दोहराया जरूर गया, पर वह बात नहीं बन पायी थी। रहस्यमयी फिल्मों के टाइटल किसी खून या गाड़ी के खाई में गिरने से आरंभ होते थे।

रोमांटिक फिल्मों की नामावली कुछ अलग होती है, तो कॉमेडी फिल्मों के लिए कार्टून का उपयोग करके मजेदार नामावली तैयार की जाती थी। कुछ फिल्मों में टाइटल के साथ व्यंग्यचित्र दिए जाने की शुरुआत किशोर कुमार ने ‘चलती का नाम गाड़ी’ से की, जो बाद में ‘दो जासूस’ समेत कई और फिल्मों में दोहराई गई। विश्व प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल हुसैन ने आर के बैनर की फिल्म ‘हिना’ की कथा के अनुरूप पेंटिंग बनाई थी, जिनका फिल्म की नामावली में इस्तेमाल किया गया था। यदि पुरानी फिल्में देखी जाए तो उसमें आज के मुख्य संगीतकार और निर्माताओं का नाम असिस्टेंट के रूप में दिखाई दे जाते हैं। संगीतकारों में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का नाम सबसे ज्यादा संगीतकारों के सहायक के रूप में आ चुका है। इसी नामावली से पता चलता है कि कभी वह कल्याणजी-आनंदजी तो कभी मदनमोहन यहां तक कि आरडी बर्मन के सहायक थे। पार्श्व गायक के नाम के साथ ही कोरस गाने वालों के नाम भी कई बार दिए गए। कभी दर्शक शौक से नामावली देखने सिनेमा हॉल में भागता हुआ जाता था। लेकिन, अब नामावली फिल्म के अंत में तब दिखाई जाती है, जब पूरा हाल खाली हो जाता है। ओटीटी पर आने वाली फिल्मों में तो दर्शकों को टाइटल आगे बढ़ाने की भी सुविधा दी जाने लगी है!

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नामावली का भाषा के साथ भी गहरा रिश्ता है। कभी ये हिंदी में दिखाई देती है, कभी अंग्रेजी में! भाषाई फिल्मों में ये वहां की भाषा में दी जाती है। तमिल, तेलुगु और हिन्दी में एक साथ रिलीज हुई फिल्म ‘थलाइवी’ के हिंदी वर्जन के ‘क्रेडिट रोल’ या कहें नामावली को हिन्दी में दिखाया गया था। आमतौर पर जिस दौर में हिन्दी में बनने वाली फिल्मों की नामावली तय रूप से अंग्रेजी में आ रही हो, एक दक्षिण भारतीय लेखक, निर्देशक और प्रोडक्शन हाउस का हिन्दी दर्शकों के लिए अपनी फिल्म की नामावली हिंदी में देने का निर्णय सुकून भी देता है और चकित भी करता है। परदे पर हिंदी नामावलियां देने में राजश्री प्रोडक्शन अपवाद रही। इस फिल्म कंपनी ने अपनी फिल्मों में भारतीय संस्कृति के साथ हिंदी को भी प्रमुखता दी। इसके पीछे 1947 में स्थापित इस फिल्म प्रोडक्शन के मालिक ताराचंद बड़जात्या की राष्ट्रीय सोच बड़ा कारण बनी। लेकिन, जब सूरज बडज़ात्या ने इसकी बागडोर संभाली, स्थितियां बदल गई। ‘मैंने प्यार किया’ से राजश्री की नामावली भी अंग्रेजी में आने लगी।

वासु चटर्जी ने भी अपनी फिल्मों में हिंदी नामावलियों का खास ध्यान रखा। हिंदी दर्शक वर्ग को उनकी हास्य फिल्मों की नामावली एक विशिष्ट पहचान देती थी। लेकिन, बासु चटर्जी के दूसरे प्रोडक्शन में इस परंपरा का निर्वहन नहीं हुआ। 1978 में संस्कृत प्रोफेसर की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘दिल्लगी’ की नामावली से हिंदी गायब हो गई। बाद में ‘परिणीता’ जैसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म की नामावली भी हिंदी में नहीं थी। इस वजह से 26 जुलाई 2018 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को हिंदी फिल्मोद्योग के नाम एक एडवाइजरी जारी करनी पड़ती थी। इसके मुताबिक हिंदी की फिल्मों में क्रेडिट रोल और टाइटल हिंदी में दिए जाने की सलाह दी गई थी। जिससे अंग्रेजी नहीं जानने वाले दर्शक भी नाम पढ़ सकें। लेकिन, मंत्रालय के इस आग्रह को फिल्मकारों ने तवज्जो नहीं दी।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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