तो क्या जातिगत जनगणना को मंजूरी देते भारत के पहले कानून व न्याय मंत्री…
भारत के लिए आज बहुत खास दिन है। खास इसलिए क्योंकि आज भारतीय संविधान के निर्माता और आजाद भारत के पहले कानून एवं न्याय मंत्री बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती है। और खास इसलिए क्योंकि बाबा साहब अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के महू (अब अंबेडकर नगर) में हुआ था। खास इसलिए क्योंकि एक अर्थशास्त्री, विधिवेत्ता और राजनेता अंबेडकर का हर क्षेत्र में बराबरी का दखल था। खास इसलिए कि तब के अति छुआछूत वाले भारतीय समाज में दलित वर्ग में जन्मे बाबा साहब (बचपन का नाम भिवा) ने अपनी योग्यता के दम पर देश और विदेश में खास मुकाम हासिल किया था। और खास इसलिए क्योंकि तब छुआछूत और जातिवाद का विरोध करने का हौसला दिखाने का दम दलित वर्ग के किसी व्यक्ति ने दिखाया था और अपना लोहा मनवाया था तो वह बाबा साहब अंबेडकर थे। और सोचने वाली बात यह है कि यदि आज बाबा साहब अंबेडकर जिंदा होते तो क्या जातिगत जनगणना जैसे किसी प्रस्ताव को वह मंजूरी देते? निश्चित तौर से कभी नहीं देते। भारत के पहले कानून एवं न्याय मंत्री पहली नजर में ही जातिगत जनगणना जैसे प्रस्ताव को नकार देते क्योंकि उन्होंने जातिवाद और छुआछूत के जहर को पीते-पीते ही जीवन के अंतिम समय में हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला लिया था। हर हाल में अंबेडकर न्याय करते हुए जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे पर खुलकर अपनी असहमति जताते और नामंजूर कर देते। पर विडंबना यह है कि 21वीं सदी के भारत को राजनीति ने जातिवादी जहर पीने को मजबूर कर दिया है। हर जाति में धनबली और बाहुबलियों का एक नया वर्ग तैयार हो गया है, लेकिन फिर भी कोई भी यह समझने को कतई तैयार नहीं हैं कि अब मत की राजनीति को छोड़कर देशहित की राजनीति को प्राथमिकता दी जाए।
संक्षेप में जानें तो भीमराव रामजी आम्बेडकर (14 अप्रैल 1891– 6 दिसंबर 1956), डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्
आम्बेडकर ने कहा था “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।” आम्बेडकर बड़ौदा के रियासत राज्य द्वारा शिक्षित थे, अतः उनकी सेवा करने के लिए बाध्य थे। उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण कुछ ही समय में उन्हें यह नौकरी छोड़नी पडी। उन्होंने इस घटना को अपनी आत्मकथा, वेटिंग फॉर अ वीजा में वर्णित किया। भारत सरकार अधिनियम 1919, तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर आम्बेडकर को साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, आम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की।1920 में, बंबई से, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन शीघ्र ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब आम्बेडकर ने इसका प्रयोग रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की।
यह मेरा व्यक्तिगत मत हो सकता है कि इक्कीसवीं सदी में भारत जब 2047 तक विकसित होने का लक्ष्य तय कर चुका है, तब जातिगत जनगणना जैसी सोच को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। बात जब समान नागरिक संहिता की हो रही हो, तब भी जातिगत जनगणना जैसे प्रावधान को कतई सहमति नहीं दी जा सकती। भारत रत्न बाबा साहब अंबेडकर को याद कर किसी भी राजनैतिक दल को ऐसी सोच से बचना चाहिए। यही बाबा साहब अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि होगी…।