फौजी और हमारी मानसिकता 

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फौजी और हमारी मानसिकता 

हम भारतीयों की मानसिकता उजागर करने वाली जुलाई 2016 की एक घटना याद आ रही है, जो शेयर कर रहा हूं।

जुलाई 2016 में मैं लेह यात्रा पूर्ण कर वायुमार्ग से दिल्ली आया। दिल्ली से ट्रेन से भोपाल लौट रहा था तब सेकेंड एसी की उस बोगी में हमारे साथ एक फौजी भी था, जिसके भाई की सड़क हादसे में मौत होने के कारण उसे घर पूणे जाना पड़ रहा था। सियाचिन की कठिन स्थिति में पदस्थ था वह फौजी। भाई की मौत की सूचना मिलने पर वायुमार्ग से वह भी दिल्ली आया था। साथ में कुछ फौजी भी दिल्ली तक आए थे। उन फौजियों ने टिकट व्यवस्था कर हमारी बोगी में उसे बैठाया था।

फौजी की आंखों में आंसू थे। वह फौजी बोगी के तथाकथित संभ्रांत और बड़े लोगों की दृष्टि में बेहद साधारण व्यक्ति था। इसलिए किसी ने उससे कुछ पूछना या बात करना या सहानुभूति दिखाना शायद निम्न कोटि का कार्य समझा। किसी ने भी उससे पूरे रास्ते बात नहीं की।

मैं अकेला उससे बात करता रहा, उसे ढांढस बंधाता रहा। इस वाकये से मुझे अहसास हुआ कि उस फौजी की जगह अगर कोई नेता या बड़ा अधिकारी होता तो हर कोई अधिक-से-अधिक उससे बात करने और सहानुभूति दिखाने को लालायित होता।

इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैंने विदेशों में देखा है कि किसी फौजी के आने पर हर कोई उनके सम्मान में खड़े तक हो जाते हैं। लेकिन हमारे देश में हम फौजियों को तभी पूजते हैं या सम्मान देते हैं जब वह लड़ाई में शहीद हो जाए, या देश में युद्ध जैसी परिस्थितियां निर्मित हो चुकी हों।

वरना तो हमारे लिए फौजी मतलब दो……।