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इस रविवार नए साल का आग़ाज़ हो चुका है तो सभी को नए वर्ष की शुभकामनाएँ। इस वर्षांत अनेक साथी शासकीय सेवा से रिटायर हो गए हैं, नए वर्ष के साथ ये उन सभी के लिए नई पारी की शुरुआत भी है। रिटायरमेंट के बाद के जीवन के बारे में सबके अपने अपने अनुभव होते है।
श्री एन के त्रिपाठी,जो सेवानिवृत्त वरिष्ठ आइ पी एस अधिकारी है , ने अपनी सेवनिवृत्ति के दस वर्ष पूरा होने पर लिखा था कि रिटायरमेंट का जो पहला सुख उन्होंने अनुभव किया वो ये था कि अब उन्हें किसी से छुट्टी लेने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि पुलिस में छुट्टी माँगने वाले को ऐसा देखा जाता था मानो वो कोई अपराध कर रहा हो ।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि रिटायर होने के साथ सारी चिंताएँ समाप्त हो जाएँ। हमारी उम्र के साथियों के इस अवस्था में अलग दायित्व होते हैं। परिवार के रहने के लिए घर , बच्चों के शादी-ब्याह , और उनके जीवन में सेटल होने की फ़िक्र ऐसे कई प्रश्नों से जूझने का दौर बना रहता है। ये और बात है कि बच्चे जब बड़े हो जाएँ तो उन्हें सीख देना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि अब वे आपकी सलाह से नहीं बल्कि जीवन के अनुभवों से ही सीखते हैं।
बात बड़ी पुरानी है। मध्यप्रदेश की प्रशासनिक सेवा में आने के पहले मैं स्टेट बैंक आफ इंडिया की रैपुरा शाखा में नौकरी करता था। पन्ना जिले का ये क़स्बा कटनी से पास था, अतः सप्ताहांत की छुट्टियों में मैं कटनी आ जाता था। बैंक से मिली तनख़्वाह घूमने फिरने और आने-जाने में ही खर्च हो रही थी।
एक रोज़ जब मैं छुट्टियों में आया हुआ था तो बाबूजी ने मुझसे कहा “आनन्द अब तुम कमाने लग गए हो घर खर्च में भी हाथ बँटाया करो “। पहली बार ज़िम्मेदारी की बात सुनकर धक्का लगा और कुछ बुरा भी। अगले सप्ताह मैंने शनिवार को बैंक के चपरासी गणेश के हाथ तनख़्वाह के बचे हुए दो सौ रुपए एक लिफ़ाफ़े में रख कर घर भिजवा दिए।
सोमवार को गणेश वापस लौटा तो एक बंद लिफ़ाफ़ा उसके हाथ में था, जो रहस्यपूर्ण मुस्कुराहट के साथ उसने मुझे सौंपा । लिफ़ाफ़े में एक पत्र था और उसके साथ दो सौ रुपए भी। पत्र पूरा तो याद नहीं पर उसका मज़मून कुछ यूँ था कि “खर्च के लिए रुपए माँगने का मतलब, यह नहीं था कि तुम घर आना बंद कर दो, कोई भी धनराशि तुम्हारी मौजूदगी का पर्याय नहीं है । रुपए इसलिए माँगे कि घर की ज़िम्मेदारी अब तुम्हें भी समझना और सीखना है।
आख़िर में लिखा था तुम्हारे पैसे तुम्हें वापस भेज रहा हूँ , अगले सप्ताह घर आ जाना और कोशिश करना की खर्च में बचत की आदत डाल कर घर की ज़िम्मेदारी में हाथ बँटाना सीखो। मेरी तो अकड़ काफ़ूर हो चुकी थी, उल्टे शर्मिंदगी ने घेर लिया । बहरहाल अगले सप्ताह घर गया तो घबराया घबराया सा था, पर बाबूजी सहज थे जैसे कुछ हुआ ही ना हो । उसके बाद जब तक बाबूजी रहे घर पर हमेशा जो बना मैं ज़िम्मेदारी में हाथ बटाता ही रहा ।
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