स्टालिन का युद्ध शिक्षा नीति से या भारत की सत्ता और संस्कृति से

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स्टालिन का युद्ध शिक्षा नीति से या भारत की सत्ता और संस्कृति से

आलोक मेहता

लोकतंत्र में भाषा , क्षेत्र या सम्प्रदाय के नाम पर संवैधानिक पद पर बैठा मुख्यमंत्री ‘ युद्ध ‘ की घोषणा करते हुए उग्र आंदोलन से प्रदेश और देश में अशांति अराजकता की स्थिति कैसे बना सकता है ? लेकिन तमिल इलम की तरह अलग पहचान अलग देश के लिए लिट्टे जैसे उग्रवादी संघर्ष की बातें कहाँ तक उचित कही जा सकती है | तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन उसी तरह की धमकियां अपनी सत्ता पार्टी और अगले साल होने वाले तमिलनाडु विधान सभा चुनाव के लिए अपना रहे हैं | उन्होंने खुले आम एलान किया है कि ‘ हमारा राज्य एक और भाषा युद्ध के लिए तैयार है। नई शिक्षा नीति को राज्य में लागू नहीं होने देंगे। ‘ जबकि नई शिक्षा नीति में हिंदी या किसी भाषा की अनिवार्यता यानी थोपने जैसा एक शब्द नहीं है | वहीँ सबसे आश्चर्य और दुखद बात यह है कि कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे पर स्टालिन के साथ है | जबकि संविधान के प्रावधान के तहत राष्ट्र भाषा हिंदी के उपयोग और त्रिभाषा नीति सबसे पहले कांग्रेस की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने पार्टी विभाजन से पहले लागू की थी और तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत के दिग्गज नेता उनके साथ शीर्ष पदों पर थे | सोनिया राहुल गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी ने तो राजीव गाँधी हत्या कांड में स्टालिन की पार्टी डी एम् के पर लिट्टे के साथ गहरे सम्बन्ध और हत्या में सहयोग की आशंका तक के आरोप लगाए थे | यह बात भी दुनिया जानती है कि इंदिरा राजीव युग में तमिलनाडु के रामेश्वरम क्षेत्र में लिट्टे के अनेक उग्रवादी शरण लिए हुए थे और श्रीलंका के करीबी इलाके में आज़ाद ‘ तमिल देश ‘ बनाने की तैयारियां कर रहे थे | वह तो सफल नहीं हुए , लेकिन डी एम् के ने धीरे धीरे तमिलनाडु में कांग्रेस का सफाया सा कर दिया |

स्टालिन ने कहा है कि 1965 से ही डी एम् के ने मातृभाषा तमिल की रक्षा के लिए अनेक बलिदान दिए हैं | पार्टी का हिंदी से मातृभाषा तमिल की रक्षा करने का इतिहास रहा है | 1971 में कोयंबटूर में डीएमके की छात्र यूनिट ने हिंदी विरोधी सम्मेलन में कहा था कि वह बलिदान देने के लिए तैयार हैं | मातृभाषा की रक्षा करना पार्टी के सदस्यों के खून में है | यह भावना उनके जीवन के अंत तक कम नहीं होगी | ”

आजादी से पहले 1937 में अंतरिम कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला लिया था | इस फैसले के खिलाफ करीब 3 साल तक चला आंदोलन सी. राजागोपालाचारी के इस्तीफे के बाद फैसले को वापस लिया गया | हिंदी विरोधी इसी आंदोलन को डी एम् के की शुरुआत माना जाता है1950 में केंद्र सरकार ने स्कूलों में अंग्रेजी खत्म करने और हिंदी को वापस लाने से जुड़ा फैसला लिया तमिलनाडु में फिर से हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हो गया |बाद में एक समझौते के बाद हिंदी को वैकल्पिक भाषा बनाने का फैसला हुआ | फिर 1986 में इंदिरा राज में शिक्षा नीति लागू की गई | 1992 में इस नीति में कुछ संशोधन किए गए थे | 34 साल बाद 2020 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में एक नई शिक्षा नीति को स्वीकृति देकर लागू करने की प्रक्रिया शुरु की | पूर्व इसरो प्रमुख के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने सैकड़ों लोगों तथा विभिन्न्न राज्यों से सलाह के बाद इसका मसौदा तैयार किया था | उन्हें किसी राजनीति से मतलब नहीं था | यह बहुत महत्वपूर्ण नीति भारत के भविष्य निर्माण का कदम माना गया | इसलिए पुरानी और नई नीतियों को लेकर 2022 के प्रारम्भ में मेरी एक किताब ‘ शिक्षा में नव क्रांति का शंखनाद ‘ भी प्रकाशित हुई | इस दृष्टि से मैं यह कह सकता हूँ कि नई शिक्षा नीति में पाँचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है| 2020 की नई शिक्षा नीति के तहत हर राज्य के छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होंगी,जिसमें हिंदी भी शामिल है.इस नीति के तहत बच्चों को हिंदी समेत तीन भाषाओं का ज्ञान होना चाहिएपहली भाषा राज्य की मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा होगी |दूसरी भाषा कोई अन्य हो सकती है | हिंदी अनिवार्य भाषा नहीं है | राज्य अपने हिसाब से दूसरी भाषा चुन सकते हैं |तीसरी भाषा अंग्रेजी या कोई और विदेशी भाषा हो सकती है | इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है| नई शिक्षा नीति दास्तावेज में यह भी लिखा हुआ है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा |नई शिक्षा का लक्ष्य 2030 तक 3-18 आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करता है | 2 से 8 वर्ष की आयु के बीच बच्चे बहुत तेज़ी से भाषाएँ सीखते हैं और बहुभाषावाद से युवा छात्रों को बहुत संज्ञानात्मक लाभ होता है, इसलिए बच्चों को प्रारंभिक अवस्था से ही विभिन्न भाषाओं से परिचित कराया जाएगा (लेकिन मातृभाषा पर विशेष जोर दिया जाएगा)। संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी भाषाओं में बड़ी संख्या में भाषा शिक्षकों में निवेश करने के लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की ओर से एक बड़ा प्रयास किया जाएगा। राज्य, विशेष रूप से भारत के विभिन्न क्षेत्रों के राज्य, अपने-अपने राज्यों में त्रि-भाषा सूत्र को संतुष्ट करने के लिए और देश भर में भारतीय भाषाओं के अध्ययन को प्रोत्साहित करने के लिए एक-दूसरे से बड़ी संख्या में शिक्षकों को नियुक्त करने के लिए द्विपक्षीय समझौते कर सकते हैं। विभिन्न भाषाओं के शिक्षण और सीखने और भाषा सीखने को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का व्यापक उपयोग किया जाएगा। भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के अलावा, कोरियाई, जापानी, थाई, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, पुर्तगाली और रूसी जैसी विदेशी भाषाएं भी माध्यमिक स्तर पर पढ़ाई जाएंगी, ताकि छात्र विश्व की संस्कृतियों के बारे में जान सकें और अपनी रुचि और आकांक्षाओं के अनुसार अपने वैश्विक ज्ञान और गतिशीलता को समृद्ध कर सकें।

संवैधानिक प्रावधानों, लोगों, क्षेत्रों और संघ की आकांक्षाओं और बहुभाषिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए त्रि-भाषा सूत्र का कार्यान्वयन जारी रहेगा। हालाँकि, त्रि-भाषा सूत्र में अधिक लचीलापन होगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी। बच्चों द्वारा सीखी जाने वाली तीन भाषाएँ राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित रूप से छात्रों की अपनी पसंद होंगी, जब तक कि तीन भाषाओं में से कम से कम दो भारत की मूल भाषाएँ हों । विशेष रूप से, जो छात्र अपनी पढ़ाई की तीन भाषाओं में से एक या अधिक को बदलना चाहते हैं , वे कक्षा 6 या 7 में ऐसा कर सकते हैं, जब तक कि वे माध्यमिक विद्यालय के अंत तक तीन भाषाओं (साहित्य स्तर पर भारत की एक भाषा सहित) में बुनियादी दक्षता प्रदर्शित करने में सक्षम हों।

सभी भारतीय भाषाओं के लिए संरक्षण, विकास और उन्हें और जीवंत बनाने के लिए नई शिक्षा नीति में पाली, फ़ारसी और प्राकृत भाषाओं के लिए एक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन (आईआईटीआई), राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना करने, उच्च शिक्षण संस्थानों में संस्कृत और सभी भाषा विभागों को मज़बूत करने और ज़्यादा से ज़्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों के कार्यक्रमों में, शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/ स्थानीय भाषा का उपयोग करने की व्यवस्था की गई है |एक तरफ शास्त्रीय भाषाओं तमिल , संस्कृत , कन्नड़ , तेलुगु, मलयालम , एवं उड़िया से जुड़े संस्थाओं के अकादमिक महत्त्व के देखते हुए उनको विभिन्न विश्वविद्यालयों से जोड़ने का सुझाव है, तो पालि, प्राकृत एवं फारसी भाषाओं के लिए नए संस्थान बनाने पर भी ज़ोर दिया गया है, ताकि देश के कला, इतिहास एवं परंपरा आदि पर बेहतर शिक्षण एवं शोध हो सके। साथ ही इसमें अनुवाद के नाम पर एक अलग से संस्थान बनाने की पेशकश की गई है, जो निश्चित रूप से भारतीय बहुभाषिकता एवं इनमें निहित ज्ञान को सामने लाने का एक बेहतर प्रयास हो सकता है।

स्टालिन के जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा है कि “वह एक काल्पनिक लड़ाई में लगे हुए हैं जिसका जमीनी हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विरोध करके अपने शासन की कमी को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। स्टालिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में एक भी वाक्य दिखाएं जो दिखाता है कि हिंदी जैसी कोई भी भाषा किसी भी राज्य पर थोपी जा सकती है। एनईपी में पहली शर्त यह है कि छात्रों को कक्षा 8 तक उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए। अपनी मातृभाषा में पढ़ने वाले बच्चों को आलोचनात्मक विचारक और अच्छे निर्णय लेने वाले बनने के लिए पोषित किया जा सकता है।”स्टालिन जी भाषा का मुद्दा उठाकर अपनी शासन संबंधी कमियों को छिपाने का निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। यहां तक कि मेरे राज्य ओडिशा में भी सीमावर्ती क्षेत्रों में तेलुगू, बंगाली और हिंदी पढ़ाई जा रही है। फिर समस्या कहां है?”

केंद्रीय मंत्री ने कहा है “तमिलनाडु के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी स्कूलों में तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ पढ़ाई जा रही है। मुझे लगता है कि स्टालिन जी राजनीतिक मजबूरी का सामना कर रहे हैं, जिसका जमीनी हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। पहले हमारी कई दौर की बातचीत हुई थी और यहां तक कि मुख्यमंत्री भी सहमत थे, लेकिन बाद में वे पीछे हट गए। ऐसा लगता है कि उनकी पार्टी में एक नया नेतृत्व उभर रहा है जो एनईपी का विरोध करना चाहता है। स्टालिन जी को अपनी सरकार पर भरोसा नहीं है और मतदाताओं को जवाब देने से बचने के लिए वह एक नया मुद्दा चाहते हैं।” प्रधान ने दावा किया, “पिछले 78 वर्षों में, स्वतंत्रता के बाद से किसी भी सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अधिक तमिल भाषा के लिए काम नहीं किया। उन्होंने सिंगापुर में पहला तिरुवल्लुवर सांस्कृतिक केंद्र स्थापित किया , जिसकी वैश्विक स्तर पर तमिल समुदाय ने सराहना की। दुनिया भर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में तमिल चेयर स्थापित की गईं।”