Story :
भाग्य विधाता
मधुलिका श्रीवास्तव
“अलका अलका… इस इतवार को नए कलेक्टर साहब हमारे घर पर खाना खाने आएंगे… ” अलका के पति सोमेश ने घर आकर बड़े उत्साह से बताया ।
“क्या कह रहे हैं ? कलेक्टर साहब हमारे घर पर खाना खाने आएंगे ?” अलका ने आश्चर्य से पूछा।
“हाँ हाँ … कहने लगे कि पिछले इतवार को मैंने आप सबको बुलाया था अब मैं हर इतवार किसी न किसी के घर जाऊँगा इससे हमारे संबंध मजबूत होंगे …” सोमेश ने खुश होकर बताया , पर अलका पति की खुशी का हिस्सा न बन सकी।उसके पति अपने नए युवा जिलाधीश से बहुत प्रभावित थे । अक्सर ही उनकी कार्य क्षमता स्फूर्ति आकर्षक व्यक्तित्व के बारे में बात करते । अलका ने एक बार कहा भी था कि ‘चलो ना मुझे भी तो मिलवा दो अपने नए कलेक्टरवा से..’ कहकर वह हँस पड़ी थी ।
“हाँ हाँ मैं उनसे समय ले लूँगा तो हम चलेंगे” , पर समय लेने की जरूरत ही नहीं पड़ी । अगले ही दिन शाम को सोमेश ने बताया कि कलेक्टर साहब ने सभी डिप्टी कलेक्टरों को पत्नी सहित खाने पर बुलाया है ।
अलका रोमांचित हो गई पति से इतनी तारीफ सुनी थी कि वह भी उनसे मिलने ,उन्हें देखने के लिए उत्सुक हो उठी थी। दावत में जाने का बड़ा उत्साह था बहुत अच्छे से तैयार हुई और वे दोनों ही समय से कलेक्टर साहब के बंगले पर पहुँच गए ।वहाँ पहले से ही लोग आए हुए थे कलेक्टर साहब सभी की अगवानी कर रहे थे , अलका की नज़र जैसे ही कलेक्टर साहब पर पड़ी वह भौंचक्की रह गई उन्हें देखते ही जैसे गश ही आ गया अलका को … अरे यह तो मधुकर है… दिन भर के संजोये उत्साह को ग्रहण लग गया । कॉलेज का सबसे उद्दंड लड़का, उसके पीछे लट्टू की तरह घूमने वाला, जिले का कलेक्टर … उसे विश्वास ही नहीं हुआ वह बुरी तरह तनाव ग्रस्त हो गई , कलेक्टर साहब भी उसे देख चकरा गए थोड़ा ठिठके पर फिर बड़ी शालीनता से हाथ जोड़कर अभिवादन किया और आगे बढ़ गये । अलका ने राहत की सांस ली , पर उसका मन उचट गया। चुपचाप एक कुर्सी खींच कर कोने में बैठ गई। जैसे तैसे पार्टी खत्म हुई । रास्ते भर सोमेश कलेक्टर साहब की ही बातें करते रहे।
अलका हूँ हाँ करती रही। घर पहुँच कर सोमेश तो सो गये पर वह तनाव मुक्त नहीं हो सकी.. मधुकर… वह भी पति का बॉस पूरी रात उसे नींद नहीं आई ।उसकी आँखों के सामने कॉलेज के दृश्य तैरने लगे मधुकर की छेड़खानी ,उसे परेशान करना , उसका पीछा करना सब याद आने लगा । वह तो संयुक्त परिवार की, बड़े बुजुर्गों के शासन में किसी तरह कॉलेज की पढ़ाई कर पा रही थी और यह मधुकर तो पीछे ही पड़ गया है उसकी पढ़ाई छुड़ाकर ही मानेगा उसकी छेड़छाड़ दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी । वैसे वह न्यायाधीश का एकलौता पुत्र, प्रखर बुद्धि तो था ही ! पर टीनएजर्स का खिलंदडापन उसमें कूट-कूट कर भरा था । उस सुदर्शन युवक का व्यक्तित्व मनोहारी था और अपनी प्रतिभा और पिता के प्रभा मंडल से उसने कॉलेज में अपनी जगह बना ली थी ।सभी उसे पसंद करते, अलका भी उससे भीतर से तो प्रभावित थी पर ऊपर से निस्प्रह बनी रहती थी। उसकी यही निस्पृहता शायद मधुकर के मन में जिद उत्पन्न कर रही थी । वह अलका से बात करने के मौके की तलाश में लगा रहता और एक दिन उसने रास्ता रोक ही लिया और बोला –
” क्या करूँ अलका जब से तुम्हें देखा है मेरी तो रातों की नींद उड़ गई है जाने क्या जादू कर दिया है तुमने … “
अलका घबरा गई उसकी नरम हथेलियों पर पसीने की परत उतर आई थी, हृदय में ऐसी अनुभूति हुई जो पहले कभी नहीं हुई थी , कपोलों में लज्जा की महीन परत चढ़ गई , ओंठो में कंपन समा गया , बड़ी असहज हो गई थी बड़ी कठिनाई से बोली
” आप बुरा न मानें मैं इन बातों में नहीं पड़ना चाहती … दरअसल मेरे घर में इन बातों की कोई गुंजाइश नहीं है । ज्यादा कुछ हुआ तो मेरी पढ़ाई छुड़ा दी जाएगी… इसलिए आप अपनी हद ना लांघे ।” कह कर आगे बढ़ गई ।
पर ये नजारा उसके सहपाठियों से नहीं छिपा ,उसे देखते ही कक्षा में खुसुर पुसुर शुरू हो गई । एक लड़की तो बोल ही पड़ी
“आज तो लंबा हाथ मारा तूने अलका… ”
“नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है… वह तो मुझे नोट्स मांग रहा था।” अलका सकपका गई । सब मुँह दबाकर हंसने लगे। क्लास में कई दिन तक वह मधुकर से मुँह छुपाती रही । उधर मधुकर उससे कैसे निकटता हासिल करे इस शोध में लग गया। कॉलेज में भी चर्चा होने लगी थी घबराकर अलका ने कॉलेज जाना छोड़ दिया । माँ के पूछने पर तबीयत का बहाना करती और चुपचाप कमरे में पड़ी रहती पर ये कब तक चलता ! कॉलेज तो जाना ही था ।
कॉलेज में मधुकर से उसका फिर सामना हुआ तो वह मुँह फेर कर आगे बढ़ गई । मधुकर तड़पकर रह गया जो अलका की आँखों से छिपा नहीं । सच तो यह था कि अलका को भी उसका यूँ अपने में रुचि लेना अच्छा लगने लगा था और उसे रोमांचित करने लगा था ! मन में एक अनजानी सी उमंग जगने लगी थी.. उम्र ही ऐसी थी शोख … पर परिवार का डर उसे आगे कदम नहीं बढ़ाने दे रहा था और दिल समाज की , परिवार की सुद्धढ़ प्राचीरों को खंड-खंड कर देना चाहता था ।
एक दिन मधुकर ने फिर उसका रास्ता रोका तो अलका से भी नहीं रहा गया वह बोल पड़ी
” मधुकर प्लीज मेरा पीछा छोड़ दो वरना मेरी पढ़ाई छुड़ा दी जाएगी।”
“तो छोड़ दो पढ़ाई ऐसा कौन सा तीर मार रही हो ।”
“तुम पागल हो गए हो क्या ? तुम भी पढ़ाई पर ध्यान दो तुम्हारा रिजल्ट इस बार ठीक नहीं था।
“मैं भी पढ़ाई छोड़ देता हूँ तुम भी छोड़ दो ।”
” और फिर क्या करोगे ?”
“कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा … हम मजे से जिंदगी गुजारेंगे ।
“इतने बड़े बाप के बेटे हो ऐश आराम की जिंदगी जी है .. क्या छोटे-मोटे काम से ज्यादा दिन खुश रह पाओगे ? जल्दी ही प्यार की उष्णता खत्म हो जाएगी फिर छोटे-मोटे काम से लज्जा आने लगेगी.. परिजन याद आने लगेंगे ऐश आराम याद आने लगेगा… तब क्या होगा ?”
“तुम हमेशा अपने उपदेशों की लाठी से क्यों हाँकती रहती हो मुझे … एसा कुछ नहीं होगा ।मेरे पापा के पास बहुत पैसा है हमें कोई परेशानी नहीं होगी।”
अलका sss एक चीखती हुई आवाज सुनाई दी उस ने पलट कर देखा उसके प्रोफेसर पिता वहाँ खड़े थे वह समझ गई, अब तो कयामत आ गई । पिता ने कहा घर चलो वह चुपचाप उनके पीछे चल पड़ी। मधुकर ने कुछ कहना चाहा ।
“बरखुरदार अपनी हद में रहो, जिलाधीश के पुत्र हो इसलिए कुछ नहीं कह रहा हूँ ।” पिता की कड़कती आवाज से मधुकर ठिठक गया । घर पर उस दिन पिता ने अच्छी तरह मिजाजपुर्सी की।
“ये क्या चल रहा है ? तुम्हारे रंगढंग बदल रहे हैं, कान खोल कर सुन लो कॉलेज पढ़ने की जगह है रास रचाने की नहीं। रईस घरों के ऐसे बिगड़े कुलदीपक खूब देखे हैं मैंने , ये पिता की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाना तो खूब जानते हैं पर दो पैसे कमाने में पसीना छूटता है । पढ़ना हो तो पढ़ो वरना घर बैठो । इस उम्र का प्यार पानी का वह बुलबुला होता है जिसे फूटते देर नहीं लगती, समझीं ।”
डर के मारे अलका ने एक बार फिर कॉलेज से मुँह मोड़ लिया इस बार माँ भी चुप रही ।इसी तरह दस दिन गुजर गए परीक्षा सर पर थी कब तक घर बैठती ।सोचा कॉलेज से कुछ नोट्स ही ले आती हूँ। पर ये क्या गेट पर ही मधुकर से फिर सामना हो गया। वह मुँह फेर कर जाने लगी तो उसने हाथ पकड़ लिया ।
“सुनो तो अलका …”
“अभी भी कुछ बाकी है ! कॉलेज छूट गया मेरा… घर में जलील हुई अलग अब क्या दुनिया छुडवाओगे । छोड़ो मेरा हाथ।” अलका बिफर उठी ।
“नहीं नहीं अलका मेरे पापा का ट्रांसफर हो गया है और मैं सचमुच तुम्हारा पीछा छोड़ कर जा रहा हूँ। अब जब कुछ बन जाऊँगा तभी आऊँगा ।”
अलका अविश्वास से देखती रह गई ।यह सूचना उसकी छाती पर बम की तरह फटी इतने दिनों के बिछोह में उसने ये तो महसूस कर लिया था कि वह दबे पांव उसके हृदय में घुसपैठ कर चुका है ।बड़ी मुश्किल से पूछा
“क्या सचमुच…”
” हाँ अलका पिछले दो साल मैंने तुम्हें बहुत परेशान किया पर मैं तुम्हें सच्चे दिल से चाहता हूँ। जल्द ही कुछ बनकर आऊंगा तब तुम्हारे पापा से बात करूँगा , मेरा इंतजार करोगी ना ?”
अलका तडप उठी कुछ बोल न सकी । सारा क्रोध क्षणांश में पानी बन उसकी आँखों में भर गया। बिछोह की कल्पना मात्र से उसका दिल कचोटने लगा। उसके गले में जैसे मानों एक गोला आकर फंस गया।मधुकर थोड़ी देर खड़ा रहा फिर बोला
“इन दो सालों में निरंतर तुम्हारी उपेक्षा झेलता रहा। तुम ने उपदेश तो बहुत दिये पर प्रेम के दो बोल कभी नहीं बोले । तुम्हारे उपदेश सर आँखों पर। अब कुछ बन जाऊँगा तभी आऊँगा।”
अलका के मुँह से बोल न फूटा ।उसकी चुप्पी ने मधुकर को पूरी तरह से तोड़ दिया। लौट गया मधुकर ! रिक्त हाथ थके पाँव । अलका जड़वत खड़ी रह गई ।
जिसकी उपस्थिति ने उसे अव्यवस्थित किया था उसकी अनुपस्थिति उसे असंतुलित और व्याकुल कर गई । वह उसकी स्मृतियों में आकण्ठ डूबती चली गई । माँ उसकी मन:स्थिति भांप गई थी पर शांत थी । जल्द ही उसका विवाह सोमेश से कर दिया गया । अब उसे मधुकर की स्मृतियों को उखाड़ फेंकना था वह सफल भी होने लगी थी पर ये क्या ? उसके शांत झील से जीवन जल में फिर कंकड़ी मारने आ पहुँचा था ।
अलका के मन में उथल-पुथल मची रहती । एक अंजाना सा भय उसे घेरे रहता ।वह सोचती कॉलेज का वह उद्दंड लड़का क्या कलेक्टर बनने के बाद भी ओछी हरकत कर सकता है ? अचानक से स्वयं ही अपने को आमंत्रित कर वह कहीं उसे रुसवा करने ही तो नहीं आ रहा ।एक बार तो उसके मन में आया कि सोमेश को मना कर दे , पर क्या कहेगी ? वे तो बहुत उत्साहित हैं कि सबसे पहले कलेक्टर साहब ने उसके घर आना चाहा ।उसने ख़ामोश रहना ही ठीक समझा , और उनके स्वागत की तैयारी में लग गई ।अभी दो दिन थे उसने नये सिरे से पूरे घर को सजा डाला । शाम को जब सोमेश आये तो घर की कायापलट देख प्रसन्न हो गये । दोनों ने बैठकर दावत में क्या बनेगा ! उसकी सूची बना ली ।अलका मधुकर को दिखाना चाहती थी कि वह अपने घर संसार में कितनी खुश है । वह जैसे उसे चुनौती देना चाह रही थी ।
रविवार का दिन था, कलेक्टर साहब के स्वागत की तैयारी पूरी हो गई थी। सोमेश बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे । कलेक्टर साहब का पदार्पण हुआ बड़ी शालीनता से अलका के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गए , उसने भी यंत्रवत हाथ जोड़ दिए । गरिमा मंडित पद पर आरुढ होकर और भी निखर आया था मधुकर ! उस परिपूर्ण पुरुष , और उसके पार्श्व में विराजी उसकी राजमहिषी भी शांत मृदुल कमनीय , उसका महिमा मंडन कर रही थी ।
इतने श्रेष्ठ अभ्यागत के सामने सोमेश, साहब.. साहब.. कर लगभग दंडवत हुए जा रहे थे पर अलका के हृदय में संशय के बादल घुमड़ रहे थे । मधुकर शांत सौम्य बना रहा चलते समय उससे मुखातिब होकर बोला
“आज की खूबसूरत शाम के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद …” और अलका के दिल पर पैर जमाता हुआ निकल गया । अलका ने एक बार फिर राहत की सांस ली , कि सब ठीक रहा ।
कुछ दिनों बाद सोमेश दौरे पर गया हुआ था अलका बाहर के बरामदे में बैठ कर कुछ पढ़ रही थी कि कलेक्टर साहब की गाड़ी रुकी और मधुकर गाड़ी से उतर कर आया ।अलका का दिल दहल गया कि सोमेश दौरे पर हैं यह जानते हुए भी मधुकर का आना ! कहीं पुरानी स्मृतियाँ उधेड़ने तो नहीं आया है । नहीं नहीं .. वह अपने भविष्य को विषाक्त नहीं करना चाहती उसे कड़ाई से पेश आना होगा । वह दृढ़ता से उसके सामने खड़ी हो गई मधुकर पहले तो हड़बड़ाया फिर बोला
” कैसी हो अलका ?”
“बहुत अच्छी हूँ खुश हूँ । देखिए मैं अपना अतीत भूल चुकी हूँ । अच्छा होगा आप भी वर्तमान की सार्थकता को स्वीकार करें ।” अलका एक ही सांस में कह गयी ।
“लगता है मेरे हिस्से में तुम्हारे उपदेश ही हैं । मैं तो बस इतना कहने आया था कि तुम्हारी प्रेरणा से ही आज मैं इस ओहदे पर पहुँचा हूँ । तुम यदि उपदेश नहीं देती तो , और यदि उस समय तुम मेरा प्रेम स्वीकार कर लेतीं तो शायद कहीं बाबू ही बनकर रह जाता ! तुमने मेरा जीवन संवार दिया तुम तो मेरी भाग्य विधाता बन गईं। बस ईश्वर से एक ही शिकायत है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना क्यों पड़ता है ।” मधुकर की आवाज में जो दर्द, पीड़ा , और जो व्यथा थी वह साक्षी थी कि वह अलका को भुला नहीं पाया है ।
“ अच्छा चलूँ अब नहीं आऊँगा ।कोशिश करके तुम्हारे पति का तबादला कर दूँगा ,क्योंकि मैं तो अभी ही आया हूँ ।” कह कर वह पलट गया । अलका एक बार फिर जड़वत खड़ी रह गई , कुछ ना बोल सकी । मधुकर धीरे-धीरे चलता हुआ जीप तक पहुँचा और जीप स्टार्ट कर निकल गया ।अलका जैसे नींद से जागी । जी चाहा उसे आवाज दे कर रोक ले ,पर एक अज्ञात शक्ति ने उसे रोक लिया । उसके मन में एक पश्चाताप उभर आया कि जिसके लिए वह सोच रही थी कि वह अपने पद का गलत इस्तेमाल करने आया है, वह तो उसे भाग्य विधाता का बड़प्पन दे कर चला गया ।वह खड़ी खड़ी पश्चाताप में जलती हुई उस राह को निहारती रही जिस पर से मधुकर गया था । जब दिल का भारीपन संभाला न गया तो भीतर आकर बिस्तर पर ढेर हो गई दो बूंद आँसू ढुलक कर तकिये में जज्ब हो गए । वह सोचने लगी काश… मधुकर भी उसका भाग्य विधाता बन जाता ।
संस्थापक सदस्य व संचालिका श्री अरविन्दो स्कूल भोपाल
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