Story Centered on Sanja: किलाकोट

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 संजा पर केन्द्रित कहानी

      Story Centered on Sanja: किलाकोट

          मीनाक्षी दुबे

क्वाँर का महीना अभी शुरू ही हुआ ओर तेज, चटख धूप पड़ने लगी थी। शाम के चार–साढ़े-चार बजे थे। पेड़ एवं बिजली के खम्भों की छाया लम्बी हो चली थी। धूप कुछ तिरछी होकर घरों में घुस रही थी। घर भी क्या थे बस दस–पंद्रह फीट के कुछ कमरे थे और बांस एवं तिरपाल से बनी कुछ झुग्गियाँ, लेकिन वहाँ रहने वालों के लिए अपना घर–संसार… । चौंतीस–पैंतीस बरस की छुन्नू एक बड़े से पत्थर पर बैठी थी और बड़े ही ध्यान से देख रही थी अपने नए घर को। घर के बाहरी दरवाज़े के दोनों ओर उसने आले बनवाए थे और सामने एक छोटा तुलसी-क्यारा भी बनवाया था। सामने की दीवार के दोनों ऊपरी कोनों पर ठीक उसी तरह चन्दा और सूरज बनवाए थे जिस तरह वह संजा माता के किला कोट में बनाती थी। उसकी कल्पना के दीप जगमगा उठे, चन्दा और सूरज को एकटक निहारते उसका मन कई बरस पीछे अपने बचपन में लौट गया, संजा के गीत उसके कानों में सुनाई देने लगे…
‘’अतल बतल की तोरियाँ,
बेतल की तलवारियाँ
चंदा-सूरज बाग लगाइयाँ
संजाबाइ सींचन जाइयाँ…’’
कुँआरी लड़कियों द्वारा आराधना-पर्व का प्रतीक यह संजा माता’ का खेल उसने बचपन में बहुत खेला था। क्वाँर के पहले पखवाड़े के इन सोलह दिनों में पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक वह अपनी सहेलियों के साथ संजा खेलती।
उसके माता-पिता दोनों खेतिहर मजदूर थे, सुबह होते ही दोनों दिहाड़ी पर निकल जाते। उसका कोई भाई या बहन नहीं थे। वह हमेशा माता–पिता के साथ ही खेत पर जाती थी लेकिन संजा माता के इन सोलह दिनों वह घर पर ही रहती और अपनी सहेलियों के साथ संजा खेलती और अपनी कल्पना में नया रचना संसार गढ़ती…
‘’मैं कोट चढ़ चढ़ देखूँ
म्हारो चंदा बीरो आयो
मैं कोट चढ़ चढ़ देखूँ
म्हारे सूरज बीरो आयो…’’
यह गीत गुनगुनाती और अपने घर के बाहर गली मे झाँक भी लेती कि कहीं कोई भाई तो नहीं आ रहा। गुजरते समय के साथ वह समझ गई कि उसका कोई भाई नहीं आने वाला।
पौ फटते ही गहमागहमी शुरु हो जाती। अपनी सहेलियों के साथ रामू काका के यहाँ गाय का गोबर लेने जाती। सूरज चढ़ते ही गोबर इकट्ठा कर रुखड़े पर डाल दिया जाता। इसलिए जल्दी जागकर अपनी सहेलियों के साथ वह गोबर ले आती और वह भी गाय का हरा गोबर ही लाती क्योंकि गाय के चिकने गोबर से संजा बनाने में आसानी होती थी और रोज़-रोज़ जो गीत गाया जाता था…
’संजा तो माँगे हरो हरो गोबर
कहाँ से लाऊँ संजा हरो हरो गोबर…’’
इसका भी कुछ ऐसा असर था कि वह गाय के हरे गोबर को ही प्राथमिकता देती। गोबर को आँगन के एक कोने में, टोकनी से ढँक कर रख देती। गुलवास के लाल, पीले, गुलाबी फूल तो शाम को ही खिलते थे, लेकिन सफेद चकरी के फूल सुबह ही खिल जाते। रंग-बिरंगे मौसमी गिलतावड़ी के फूल भी इन्हीं दिनों खिलते वह पीले कनेर के फूल और उनके पतले लंबे पत्ते, सफेद चकरी के फूल और उनके पत्ते इकट्ठे कर उन्हें गीले टाट में लपेटकर मटके के पास रख देती।
सब सखियाँ मिलकर दोपहर को घर की बाहरी दीवार पर बीचो-बीच एक छोटे हिस्से को चौकोर आकार में लीपती, गोबर से संजा माता के घर की पतली दीवार बनाती और नीचे की तरफ दरवाजे के लिए खुला हिस्सा छोड़ा देती। इस घर में विभिन्न आकृतियाँ उकेरती, चान्द और सूरज बनाती। शुरुआती दिनों में पाँच चपेटे बनाती, पाँचवें दिन पंखा, छठे दिन छाबड़ी, सातवें दिन सातिया, आठवें दिन हाथी, नँवे दिन कौआ, दसवे दिन मोर की आकृति उकेरती। रंग-बिरंगे फूलों से उन्हें सजती और सारी सहेलियाँ मिलकर संजा माता के विभिन्न गीत गाती-
’संजा तू बड़ा बाप की बेटी
तू खाय खाजा रोटी
तू पहने मानक मोटी
संजा सवारो रे
सिर पर बेवडो बेवड़ो रे…’’
वे हर गीत की शुरुआत संजा के नाम से करती और बाद में एक–एक करके सभी सहेलियों के नाम दोहराती। अपना नाम आने पर वह फूली नहीं समाती और बड़े घर और बड़े बाप की बेटी की कल्पना में खो जाती। जिन गीतों में चंदा-सूरज का नाम आता उन गीतों में वे सभी सहेलियों के भाइयो के नाम भी एक के बाद एक दोहराती। खुश हो हो कर गीत गाती-
‘’छोटी सी गाड़ी रढ़कती जाय रढ़कती जाय
जिसमें बैठ्या संजा बाई संजा बाई
घाघरो घमकाता जाय
चूड़ीलो चमकाता जाय
बाइ जी की नथनी झोला खाय… झोला खाय…’’

यह गीत गाते हुए चुलबुली लड़कियाँ अपना काल्पनिक घाघरा लहराती और गरदन हिलाकर न पहनी हुई नथ को भी झुलाने का प्रयास करती सब मिलकर जोर से हँस पड़ती।
पत्थर पर बैठे-बैठे वह थक गई तो उठकर घर के अंदर आ गई। उसका बेटा भी स्कूल से आ गया था उसने उसे सुबह की बासी रोटी खिलाकर मिसेस शर्मा के घर पढ़ने भेज दिया और मटके से पानी पीकर घर की बाहरी दीवार से टिक कर बैठ गई। सूरज की तपन अब कम हो गई थी, संजा खेलने का समय हो चला था वह फिर से अपने बचपन मे खो गई और धीमे स्वर में गुनगुनाने लगी- ‘’पहली जो आरती राइ रमझोल
भाई भतीजा हिलमिल जो
दूसरी जो आरती रमझोल
भाई भतीजा हिलमिल जो…’’
वे सब पहले दिन के हिसाब से आरती शुरू करती और आखरी दिन आरती की पंक्ति “सोलहवीं जो आरती राई रमझोल’’ तक गाती फिर प्रसाद चढ़ाती। बड़ी ही उत्सुकतावश एक दूसरे से प्रसाद मे क्या होगा यह पूछती। सही नाम बताने पर ही प्रसाद के बर्तन का ढक्कन हटता और वे सब आरती गाने लगती…
‘’संजा माता जीम ले चूठ ले
मैं जिमाउँ सारी रात
चटक चाँदनी सी रात,
फूलों भरी रे परात…’’
यह गीत गाकर संजाबाइ को प्रसाद चढ़ाती। माँ खेत से लौटते समय कभी ककड़ी तोड़ लाती तो कभी राजगिरे को चटका कर धानी फोड़ देती। वे सब मिलकर रोज़ प्रसाद चढ़ाती। ग्यारहवें दिन बनाती थी किलाकोट। रोज़ की तरह पहले दिन की सजा को सरिये से खुरचकर हटा देती। उस जगह को लीपकर वहाँ गोबर से किलाकोट की दीवारें बनती और उसके अंदर दस दिनों तक रोज़ बनने वाली आकृतियों के साथ कुछ और आकृतियाँ भी बनाती। बैलगाड़ी, तुलसी-क्यारा, पनिहारिन, घसियारिन, भोजन बनाती, दही बिलोती, अनाज कूटती, काकी भाभी भी बनाती, दूध दुहता भाई, दूध-दही की मटकियाँ, ढोली, नाई के प्रतीक चिन्ह बनाती और रंग-बिरंगी पन्नियों तथा रंगीन कागज से सजाती। हाथी और कौए को काले कागज अथवा कोयले के बारीक चूरे से काला रंग दे देती।
किलाकोट यानी किसी समृध्द परिवार का सुन्दर चित्रण साथ ही सामाजिक समरसता से सजा संसार भी। संजा के श्रंगार की सामग्री के प्रतीक बनाते हुए वह स्वयं के श्रंगार की कल्पना मे खो जाती। ब्याह के बाद चन्दा-सूरज से भाई डोली उठा रहे होते और उसके सहेलियाँ गा रही होती…
‘’छुन्नू का सासरा सss
हाथी भी आयो घोड़ो भी आयो
जा बाइ छुन्नू सासरिया…’’
छुन्नू के लिए विशेष आकर्षण का विषय था यह किला कोट। अपने इतने बड़े घर की कल्पना में वह खो जाती। उसके टोले में हाथी या घोड़े तो छोड़ो किसी के पास बैल या भैंस भी नहीं थे। अपनी अपनी हैसियत से किसी ने मुर्गियाँ पाली थी तो किसी ने बकरियाँ, गायें भी दो-तीन घरों में ही थी। उसके अपने घर में तो मुर्गी और बकरियाँ भी नहीं थी पर उसका बाल-मन हाथी घोड़े वाली समृद्धि की कल्पना से नाच उठता। घर के बाहर बैलगाड़ी और घर के अंदर दूध-दही की मटकियों की कल्पना से वह खुश होकर गुनगुना पड़ती-
‘’आँवा छा भइ आँवा छाँ
दूध दही जमाँवाँ छाँ
दूध की मटकी तपावाँ छाँ
संजा ने पिलावाँ छाँवा…’’
समय के साथ छुन्नू बड़ी हो गई। तेरह-चौदह बरस की उम्र में उसके माता-पिता ने उसका रिश्ता तय कर दिया था। लड़का कमाऊ था और शहर की किसी फैक्ट्री में नौकरी करता था। अब छुन्नू की कल्पना में उसके शहर का घर आने लगा था।
ब्याह के बाद पहले बरस क्वाँर के महीने में वह मायके आई थी, संजामाता को उजोने । सहेलियों के संग मिलकर उसने इसे उजोया और बाँस की टोकनियों में ज्वार की धानी भरकर बाँटी थी वंश-वृद्धि एव धन-धान्य की समृध्दि की कामनाओं के साथ। उसकी पहनी हुई साड़ी को छूकर उसकी सहेलियाँ उसे चिढ़ाती और गीत गाती-
‘’छुन्नू बाई का लाड़ा जी
लुगड़ो लाया जाड़ा जी
असा काइ लाया दारी का
लाता गोट किनारी का…’’
छुन्नू की सखियाँ उसकी सास का नाम ले लेकर भी उसे चिढ़ाकर गीत गाती
‘’छुन्नू के सासू टुकड़ेली टुकड़ेली
घर में घट्टी पिसड़ेली पिसड़ेली
असी मारूँ दारी ख
चिमटा इ चिमटा…’’
वह भी उनके साथ मुस्कुराती रही थी और गीतों का आनंद लेती रही थी। एक-दो बरस ससुराल में रहकर वह अपने पति जग्गू के साथ शहर में रहने आ गई । वे लोग एक बड़े से ‘राम-बाड़े’ में रहते थे। बीचो-बीच एक बड़ा सा चबूतरा बना था और उसके आसपास बनी थी कुछ छोटी-बड़ी खोलियां थी और निस्तार के लिए कतारबध्द शौचालय बने थे। उनके उपयोग के लिए सुबह-सुबह लाइन लग जाती।

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पुरुषों के काम पर जाने के बाद दोपहर में महिलाएँ एवं बच्चे उस चबूतरे पर इकट्ठा हो जाते। बच्चे कई तरह के खेल खेलते महिलाएँ अपने हाथ के छोटे-बड़े काम निपटाती रहती, कोई सब्जी सुधारती तो कोई रेडीमेड कपड़ों में बटन टाँकती, कोई अगरबत्ती और बीड़ी बनाने का काम भी करती। आपस में बतियाते हुए अपने सुख–दुःख भी बाँटती। छुन्नू का ध्यान हमेशा ‘घर–घर’ खेलते बच्चों की तरफ रहता, वह चुपके से उनके खेल में शामिल हो जाती और अपने घर की कल्पना करती। बचपन में बनाया संजा माता का किलाकोट उसे हमेशा याद आता रहता शाम होने पर वह अपनी खोली मे लौट आती-.
‘’संजा तू थारा घर जा
कि थारी बाई मारेगी कि कूटेगी
चाँद गयो गुजरात
कि हिरनी का बड़ा बड़ा दाँत,
कि पोरया पोरी डरपेगा…डरपेगा…’’
यह गीत गुनगुनाते हुए वह जग्गू के घर आने की बाट जोहती और स्वयं को शहर के अनजान डर से बचाए रखने की कोशिश भी करती रहती। जिस दिन जग्गू रात-पाली करता उस दिन के पैसे वह अलग रख देती। जग्गू से कहती इन पैसों से हम अपना घर बनाएँगे किसी महीने के अंत में कुछ पैसे बचते, किसी महीने कुछ भी नहीं बचता। उसने अब रेडीमेड कपड़ों में बटन टाँकने का काम शुरू कर दिया था। उसे जो कुछ रेज़गारी मिलती वह सहेज लेती।

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रामबाड़े के मालिक के बेटे को उन लोगों का वहाँ रहना बिल्कुल भी नहीं सुहाता था। वह जब भी किराया लेने आता उन खोलियों को तोड़कर मल्टी बनाने की बात कहता। कुछ लोगों ने खोलियाँ खाली भी कर दी थी। छुन्नू और जग्गू भी अपने लिए किराए का घर ढूँढते लेकिन वह उनके बजट से बाहर होता। एक दिन बुलडोजर से सामने का चबूतरा तोड़ा जाने लगा, तीन-चार परिवार अब भी उन खोलियों में रह रहे थे। धूल के उड़ते गुबार के बीच वे सभी अपना सामान समेटने लगे और आसरे की तलाश में निकल पड़े। जबरन कॉलोनी में रेलवे पटरी से कुछ दूरी पर कुछ झुग्गियाँ बनी थी वे लोग भी यहीं आ गए। ज़मीन को साफ सुथरा किया, बाज़ार से बाँस और तिरपाल लाकर झुग्गियाँ खड़ी कर ली अब यही उनका बसेरा था।
विडम्बना यह कि छुन्नू का किलाकोट का सपना, खोली से शुरू होकर झुग्गी के मुकाम तक आ पहुँचा था लेकिन वह हताश नहीं थी। झुग्गी में घुसते समय उसकी कल्पना में उसके अपने घर का बड़ा दरवाजा होता और झुग्गी में घुसने की कोशिश में उसका सिर बाँस से टकरा जाता वह कुछ देर सिर थाम कर बैठी जाती और फिर अपने काम में लग जाती। यहाँ रहने वाली औरतें दूसरों के घरों में घरों में झाड़ू-पोछा और बर्तन साफ़ करने का कम करती थी। उसने भी कुछ घरों में यही काम करना शुरू कर दिया। मेहनती तो वह थी ही अपनी खनकती आवाज़ में बातें करती, काम भी समय पर करती और पूरी ईमानदारी से करती। उसका असली नाम सुनीता था पर सुनीता से सुन्नू और अपनी खनकती आवाज़ के चलते वह कब छुन्नू बन गई पता ही नहीं चला। अब यही नाम उसकी पहचान था। अच्छे व्यवहार के कारण उसके काम के घर भी बढ़ गए थे। अपने काम के पैसे वह जमा करती, जग्गू जब कभी अपने दोस्तों के साथ शराब पी कर आता तो वह बहुत दुखी होती। जग्गू को हर तरह से समझाती और उसे भी अपने घर का सपना दिखाती। वह हर जगह हाथ दबा कर खर्च करती बचपन में गाया संजा का गीत
‘’काजल टीकी लो भइ लो
लो भई लो
काजल टीकी लइ न
म्हारि संजा बाई ने दो…’’
उसके मन में घुमड़ता रहता लेकिन वह श्रंगार सामग्री खरीदने में भी बचत करती अपने पास रखी चीजो से ही काम चलाती। अपने बेटे के जन्म पर भी उसने फिजूलखर्ची नहीं की थी फिर भी खर्चा तो बढ़ ही गया था। कभी बच्चा बीमार हो जाता तो कभी कोई और जरूरत आ पड़ती। थोड़ा बड़ा होने पर उसकी पढ़ाई का खर्चा भी आ लगा था लेकिन वह हार नहीं मानती अपने काम के घरों में अतिरिक्त काम करके पैसे इकट्ठे करती रहती। इन बीते वर्षों में एक बार उस झुग्गी वाले एरिया में आग लग गई। वह सामने सड़क पार के ही घर में काम कर रही थी। ख़बर सुनकर दौड़ी चली आई, उसने बाहर रखे मटके और बाल्टी का पानी झुग्गी के दरवाजे पर डाला और अंदर जाने की राह बनाई। दौड़ कर अपने पैसों का डिब्बा उठा लाई झुलसे बालों एवं झुलसे हाथों की परवाह किए बिना, डिब्बे को सीने से लगाए चुपचाप बैठी रही और स्वयं को आश्वस्त करती रही।
मिसेस शर्मा ने उसे बैंक में पैसे जमा करने की सलाह दी और उसका खाता भी खुलवा दिया। अब वह बैंक मे पैसा जमा करती। इस अग्निकांड में जो नुकसान हुआ सो हुआ लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति के चलते इसे जमकर मुद्दा बनाया गया क्योंकि चुनाव नजदीक ही थे। इसलिए वहाँ वर्षों से रह रहे लोगों को ज़मीन का सरकारी पट्टा मिल गया। वोट बैंक बढ़ाने की खातिर लिया गया यह निर्णय झुग्गी वालों के लिए खुशियों भरा साबित हुआ।
अब छुन्नू अपने सपने के और करीब आ गई थी। बैंक में रुपए जमा थे ही उसने अपना घर बनवाने का काम शुरू कर दिया। थोड़ा-थोडा करके वह ईट-रेत और सीमेंट की जुगाड़ करते, कभी ईंटें कम पड़ जाती तो कभी रेत तो कभी सीमेंट। अपने आसपास ही रहने वाले दो लोगों को उसने घर बनाने का जिम्मा दिया था। वे मिस्त्री का काम करते थे, उनकी साप्ताहिक छुट्टी वाले दिन छुन्नू का घर बनता। उस दिन वह जल्दी उठकर अपना झाड़ू-पोछा और बर्तन का काम करके जल्दी घर आकर उन दोनों की मदद करती। साल-दो-साल में उसका घर बनकर तैयार हो गया। धीरे-धीरे उसने अपने घर में प्लास्टर भी करावा लिया और पुताई भी करवा ली। किलाकोट वाली ग्यारस पर अपने नए घर में रहने जाने का निर्णय उसने ले लिया था।
शाम की ठंडक हवा में घुलने लगी थी उसका बेटा ट्यूशन पढकर लौट आया था। अपनी माँ को बाहरी दीवार से टिककर विचारमग्न बैठा देख उसने अपनी माँ को पुकारा। छुन्नू ने चौंक कर अपने बेटे की ओर देखा और फिर उस दीवार की ओर जहाँ अभी-अभी उसकी कल्पना का किलाकोट बना था। बेटे ने लाइट जला दी थी। अभी-अभी पुती नई दीवार भरपूर सफेदी लिए जगमगा रही थी और ऊपर बने चन्दा-सूरज मुस्कुरा रहे थे-
‘’म्हारा आँगन केल ऊगी
केल ऊगी
उगजो चौरासी डाली
फलजो चौरासी डाली…’’
छुन्नू के ख़ुशी भरे स्वर खनक रहे थे।

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मीनाक्षी दुबे:(जन्म स्थान-हरसूद, शिक्षा- बी.एस. सी. निवास-देवास)
अध्ययन एवं लेखन में विशेष रुचि।

देश के कई पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।
चार कहानियाँ: कमलेश्वर कथा सम्मान,कलमकार सम्मान,मांँ धनपती देवी कथा सम्मान

राजभाषा हिन्दी सम्मान से सम्मानित है।

मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, साहित्य अकादमी भोपाल, विश्व मैत्री मंच तथा लिट्रेचर क्लब के आयोजनों में कथा पाठ।

एक कहानी संग्रह एक बूँद समंदर प्रकाशित है

पंडित दीनानाथ व्यास स्मृति प्रतिष्ठा समिति का आयोजन : भारतीय संस्कृति के लोकजीवन में रचा बसा लोक पर्व “संजा” 

आप और आपका शहर : धारकर से इंदौरी होने का 54 वर्ष का अपनत्व भरा अकल्पनीय सफर 

Hindi Day on Pandit Dinanath Vyas Pratishtha Manch : भाषा के भविष्य के संदर्भ में कुछ प्रश्नों के जवाब हमें देने होंगे!