Story of a Village: जिस गांव में सबसे ज्यादा शिक्षित आठवीं फेल, वहां एक बहू 10वीं पास!

अलीराजपुर कलेक्टर डॉ अभय अरविंद बेडेकर की आंखों देखी!

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Story of a Village: जिस गांव में सबसे ज्यादा शिक्षित आठवीं फेल, वहां एक बहू 10वीं पास!

अलीराजपुर की तहसील जोबट मुख्यालय से 28 किमी दूर ग्राम बहेडिया जो न सिर्फ़ जिले की बॉर्डर का गांव है (उसके बाद धार शुरू हो जाता है) बल्कि अत्यंत पिछड़ा और उपेक्षित गाँव भी। इतना अपेक्षित कि अलीराजपुर के जिला बनने के 15 वर्षों के बाद भी कोई सरकार का नुमाइंदा, कोई अफसर, कलेक्टर तो दूर की बात है पर एसडीएम / तहसीलदार तक आज तक उस गाँव में नहीं पहुंचे। जब मैंने उस गाँव में जाकर ग्राम पंचायत के सरपंच पति श्री करनसिंह बामनिया से पूछा कि क्या इस गाँव में कोई सरकारी अफसर या कलेक्टर कभी आए हैं?

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… तो उसका जवाब था ‘नहीं!’
उसे इतना याद था कि एक कलेक्टर साहब थापली गांव (5 किमी दूर) तक आए थे, पर बहेडिया नहीं आए।
उसने ये भी बताया कि साहब नया जिला बनने से पहले (पहले जिला झाबुआ था) भी आजतक कोई अफसर या कलेक्टर इस गाँव में नहीं आया।
गाँव वालों के लिए कलेक्टर या छोटे कलेक्टर (एसडीएम) को प्रत्यक्ष देखना भी एक अलग अनुभव था।
ये गांव अलिराजपुर मुख्यालय से लगभग 63 किमी दूर है। वहां जाना इतना दुरूह है कि पहले दो बार गाड़ियां बदली और आख़िरी 500 मीटर तो पैदल तय करने पड़े। गाँव तक पहुँचने के लिए मात्र एक पगडंडी है, जिसपर होकर सिर्फ़ मोटर-साइकल जा सकती है मोटर-गाड़ी नहीं।
मेरा भी किसी इतने पिछड़े और पूरे आदिवासी गाँव में पहली बार जाना हुआ। परंतु आश्चर्य हुआ कि गाँव के भिलाला फलिया के लगभग 35-40 लोग मेरा वहाँ इंतज़ार कर रहे थे। सिर्फ़ कलेक्टर को देखने के लिए।
मेरे पुराने अनुभव हैं कि तरह उनकी कोई मांग यहाँ भी नहीं थी। अपने अधिकारों को लेकर भी वो बहुत उत्तेजित नहीं लगे। गाँव के कुछ लोग थे, जिनका आधार कार्ड नहीं बना था, कुछ के राशन कार्ड नहीं थे मतलब उन्हें अनाज नहीं मिल रहा था, पर फिर भी उन्होंने इसका दोष प्रशासन को नहीं दिया। उनकी पहली माँग ये थी कि राशन की लिस्ट (पात्रता पर्ची) में उनका नाम जोड़ा जाए। पर, बहुत समझदारी से उन्होंने यही कहा कि नाम जुड़ जाएगा साहब तो हमें भी राशन मिल जाएगा!

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वास्तव में परिवार के जो सदस्य राशन प्राप्त नहीं कर रहे थे, उनका नाम ‘समग्र सूची’ में भी नहीं था। इसलिए कि वे दूसरे ग्राम से आई लाडी (बहू) और उसके यहाँ इस गाँव में पैदा हुए बच्चे हैं जिनका नाम राशन की सूची में नहीं था। उनकी दूसरी माँग ये थी कि उसी ग्राम पंचायत में स्थित एक और गाँव रंजीतगढ़ में राशन की दुकान है, जो इस गाँव (फलिया) और इसके अन्य फलियों से लगभग 5 किमी दूर है। इसलिए राशन की दुकान से हर हफ़्ते दो दिन राशन इस फलिया में लाकर वितरण किया जाए ताकि उन्हें राशन उठाकर 5 किमी चलना नहीं पड़े।
मै सोच में पड़ गया कि कितनी समझदारी की बात है। कोई धमकी नहीं, कोई अल्टीमेटम नहीं कि कलेक्टर साहब, हमारे गाँव में नई दुकान खोलो या रोज़ यहीं वितरण करवाओ। किस मिट्टी के बने हैं, ये मेरे आदिवासी भाई बहन? हमेशा चेहरे पर एक संतोष और मुस्कुराहट।
गाँव यहाँ फलियों से बनते हैं। बहेडिया गाँव में चार फलिए हैं भिलाला फलिया, माल फलिया, पुजारा फलिया और तडवी फलिया।
जब मैंने पूछा कि कुछ पढ़े-लिखे लोग हैं क्या इस गाँव में, तो पुरुष वर्ग में सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा व्यक्ति आठवीं फेल था। पर, एक लाडी थी कुंवर बाई जो दसवीं पास थी। जो पास के गाँव से यहाँ शादी के बाद आई है। यह बात भी उसने बहुत डरते शरमाते हुए बताया कि ‘मै दसवीं पास हूँ।’
पूरे फ़लिया में भी किसी को नहीं मालूम था कि वो बहू इतना पढ़ी हुई है।
तब सरपंच पति ने बोला ‘सर इस लाडी को मिनी आंगनबाड़ी में कार्यकर्ता बना दो।’ मतलब इस फ़लिया में मिनी आंगनवाड़ी खुलवा दो। ये उनकी तीसरी माँग थी।
मैंने जब कुंवर बाई से पूछा कि ‘क्या चाहती हो!’
तो उसने कहा कि ‘हाँ’ यदि अवसर मिलेगा तो काम करूँगी।’
गजब का आत्मविश्वास था उसका और ग़ज़ब की जीवटता। अपने भाई-बहनों और बच्चों के लिए काम करने का जज्बा ही उन्हें एक-दूसरे के इतने क़रीब लाता है।
आदिवासी समाज में नारी और पुरुष का भेद नहीं है और नारी का समाज में पर्याप्त सम्मान है। आदिवासी समाज में बलात्कार की घटनाएं नहीं होती। राजी-मर्ज़ी से भले ही लड़का-लड़की साथ रह लें, पर ज़बरदस्ती वाला सम्बंध यहाँ नहीं बन सकता।
जब मै गाँव में पहुँचा था तो वहाँ जितने पुरुष थे, लगभग उतनी ही औरतें भी थी। हाँ, ‘लाडली बहना योजना’ का लाभ सभी बहनों को मिल रहा था, यह संतोषजनक बात थी।
अलीराजपुर का लिंग-अनुपात भी (1009/1000) बहुत अच्छा है और साक्षरता दर 37.22% (जनगणना 2011) कम होने के बाद भी बिगड़ा नहीं है। इसका मुख्य कारण आदिवासी समाज में स्त्री का सम्मान होना ही है। पढ़ाई-लिखाई से इसका संबंध नहीं लगता और अगर कहीं भी पढ़ाई लिखाई से संबंध है भी तो वो विपरीत ही है। जो स्त्रियों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ है। शायद ज़्यादा पढ़े-लिखे समाजों में लिंग-अनुपात ख़राब हो जाता है जिसके अपने कारण और स्वार्थ हैं। ख़ैर.. ! यह चर्चा फिर कभी …!
गाँव में पानी की समस्या है, क्योंकि ट्यूबवेल का जलस्तर बहुत नीचे चला गया, जिस कारण ग्रामीण पीने के पानी को लेकर भी परेशान हैं। परंतु उसमें भी शासन-प्रशासन से सामान्य माँग ही है कि ‘साहब पानी की व्यवस्था देख लीजिए।’ खुद ही बताया कि इस वर्ष सामान्य से कम वर्षा होने से ये हालात खराब हुए हैं जो कि ठीक हो जाएँगे। ट्यूबवेल खुदवाने की उनकी चौथी मांग थी, जो बहुत सामान्य तरीके से रखी गयी थी और जिसे प्रशासन ने तत्काल स्वीकार किया।
मैं कई बार सोचता हूँ कि कितने सरल और सभ्य हैं हमारे आदिवासी बंधु-भगिनी। जब तक उन्हें कोई भड़का न दे, वे एकदम शांत रहते हैं। अपनी जमीन और अपनी खेती और उसकी आमदनी में वो खुश हैं। जब मैंने पूछा कि खेत में क्या बोया है, तो जवाब मिला कि सोयाबीन और मक्का। मक्का उनका मुख्य खाद्य है। जब मैंने पूछा कि दाल नहीं बोयी? … तो जवाब मिला कि तुअर दाल या मसूर दाल बोते हैं, पर सिर्फ़ खुद के खाने लायक़। कोई दाल बेचता नहीं और जो नहीं बो पाता उसे उसी फलिये से दाल मोल मिल जाती है।
ऐसी सामाजिक व्यवस्था कहाँ देखने मिल सकती है आदिवासी अंचलों के अलावा?
मै जब वहीं संचालित प्राथमिक शाला में गया तो वह 18-20 बच्चे पढ़ रहे थे। उत्सुकतावश मैंने उनसे गिनती सुनाने को कहा तो न सिर्फ़ गिनती बल्कि बच्चों ने मुझे 10 तक के पहाड़े भी सुना दिये। जिस आदिवासी फलिया का सबसे पढा लिखा व्यक्ति आठवीं फेल हो, वहाँ शिक्षा की ये प्रगति बहुत सुखदायी थी। उन बच्चों को देखकर मै अलिराजपुर और मध्यप्रदेश के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ। शिक्षक महोदय नियमित आते हैं और मन लगाकर पढ़ाते हैं ये बताते हुए फलिये के आदिवासी अति प्रसन्न थे और हो भी क्यों नहीं! अपने बच्चों को पढ़ते और बढ़ते देखना सभी को अच्छा लगता है।
मैंने सभी बच्चों को बिस्किट दिये और शुभकामनाएं भी।
हमारे सभी आदिवासी भाई बहनों को शासन की सभी योजनाओं का लाभ हम दिला कर रहेंगे।
समाज कि अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का जब उद्धार होगा तभी वास्तविक ‘अंत्योदय’ होगा।
ये हमारा ध्येय भी है कर्तव्य भी और हाँ संकल्प भी।