

रविवारीय गपशप : जब कलेक्टर की हिम्मत ने बचाई शासन की करोड़ों रुपयों की बेशकीमती जमीन
आनंद शर्मा
अभी हाल ही में अखबार में ये खबर पढ़ने को मिली है कि मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर स्थित युगल पीठ ने शासकीय भूमियों के खुर्दबुर्द होने को लेकर चिन्ता व्यक्त की है और शासन से ये पूछा है कि इस काम में इतनी कोताही क्यों हो रही है ? दरअसल सामाजिक ढाँचे के हर साँचे में जैसे चुस्त और ढीले लोगों का मिश्रण है वैसा ही प्रशासन में भी है जो जागरूक हैं वे किसी भी क़ीमत पर शासकीय भूमि की रक्षा का दायित्व नहीं छोड़ते हैं । इसी संदर्भ में इंदौर से जुड़ा एक पुराना वाक़या याद आ रहा है ।
मैं उन दिनों इंदौर में अपर कलेक्टर हुआ करता था और इंदौर के कलेक्टर थे , श्री राघवेंद्र सिंह । एक दिन कलेक्टर ने मुझे अपने कक्ष में बुलवाया और हाईकोर्ट में चल रहे एक प्रकरण की फाइल मुझे देते हुए कहा कि इसका अच्छे से अध्ययन कर लो , काफ़ी बेशकीमती शासकीय भूमि है , हाईकोर्ट में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए । मैंने प्रकरण का अध्ययन किया तो पता लगा कि रियासतों के विलीनीकरण के दौरान होलकर राजवंश की कई हजारों एकड़ जमीन को लेकर यह विवाद था । शुरुआत में यह भूमि मध्यप्रदेश शासन के नाम पर दर्ज थी , पर बीच में ना जाने कैसे उस पर उत्तराधिकारियों का नाम दर्ज हो गया और अब उन्हें इस भूमि के संबंध में सिविल कोर्ट से डिक्री हासिल हो गई थी , जिसे जिला न्यायालय ने पुष्ट भी कर दिया था और अब विषय उच्च न्यायालय में लंबित था । प्रकरण में ओ.आई.सी. थे श्री शीलेन्द्र सिंह जो उस समय नजूल अधिकारी हुआ करते थे । हमने पूरी छानबीन की तो पता लगा शुरुआती बरसों में रिकॉर्ड पर शासन का नाम दर्ज था , परंतु कुछ वर्षों बाद किसी भू अभिलेख अधीक्षक ने बिना आधार इनका नाम दर्ज कर दिया , बाद में उसे सुधारा गया तो निजी पक्षकार सिविल कोर्ट चले गए । मुकदमा चला और एक पक्षीय कार्यवाही करते हुए सही जवाब पेश ना होने का तर्क देते हुए , शासन के ख़िलाफ़ आदेश हो गया । मैंने खोजबीन की तो पता लगा पूर्व में प्रकरण में प्रतिरक्षण के लिए में ओ.आई.सी. नियुक्त किया गया था , एस.डी.ओ. पी. डब्ल्यू.डी. को । अब भला पी.डब्ल्यू.डी. का अधिकारी क्या प्रतिरक्षण करता ? केस तो हारना ही था , सो हम सब जगह हारते चले गए ।
कलेक्ट्रेट में सिविल मामलों के एक अनुभवी अधिवक्ता की अनौपचारिक सेवायें लेकर जवाब तैयार कराए गए , पर दुर्भाग्यवश वे शासकीय अधिवक्ता द्वारा कोर्ट में दाखिल ही नहीं हुए । हम लोग शासकीय मंतव्य का जो भी कागज लगाते , अधिवक्ता के द्वारा उसमें हमेशा मीनमेख निकाला जाता । अचानक एक दिन बेंच में केस लगा और शासन के ख़िलाफ़ आदेश हो गए । कलेक्टर राघवेन्द्र सिंह बड़े हिम्मती युवा अधिकारी थे , उन्होंने कहा हम सुप्रीम कोर्ट जाएँगे , ऐसे हार न मानेंगे । हमने अपील की तैयारी शुरू की ही थी कि इस बीच न्यायालय में आदेश का पालन करने की याचिका लग गई । हमने निवेदन किया कि शासन सुप्रीमकोर्ट जाना चाह रहा है इसलिये समय दिया जाये ।
इन सब आपाधापी के बीच एक दिन कुछ युवा पत्रकार साथी मेरे कक्ष में आये और कहने लगे कलेक्ट्रेट के सामने स्थित मैदान पर कुछ लोग पार्किंग शुल्क वसूल कर रहे हैं । मुझे बड़ी हैरत हुई , शीलेंद्र को बुलाया और पूछा कि कलेक्ट्रेट में बाहरी आदमी कौन वसूली करने लगे ? तो उसने कहा , सर ये वही तो जमीन है , कलेक्ट्रेट से लेकर बिजासन मंदिर होते हुए एयरपोर्ट तक फैली हुई जिस पर ये कब्जे का दावा कर रहे हैं । मैंने कहा अभी तो अपना मजिस्ट्रेट वाला रुतबा दिखाओ , और रात को ही दिल्ली चलो अपील अनुमति आ गई है । शीलेंद्र ने कब्जाधारियों को चलता किया और हम रात ट्रेन में बैठ कर दिल्ली रवाना हो गए । रात भर बैठ कर मैं नोट्स बनाता रहा और सुबह दिल्ली पहुँच कर अपने पैनल लॉयर के दरवाजे खड़े हो गए । वकील साहब ने हमें सुना और अपने नवजवान असिस्टेंट को बुला कर इशारा किया कि इन्हें समझाओ ये जवाब बनवायेंगे । मैं निराश हुआ , बेशक़ीमती हज़ारों एकड़ जमीन और ये नया लड़का ! मैंने शीलेन्द्र को अपने नोट्स दिए और उसे उस नवजवान वकील के पास छोड़ कर बाहर जाकर चाय का ठेला तलाश करने लगा । थोड़ी देर बाद चाय पानी के बाद जब मैं वापस पहुँचा तो देखा शीलेन्द्र बाहर ही खड़ा था । मैंने कहा यार कुछ काम बना ? शीलेन्द्र ने कहा सर ये नवजवान वकील एन.एल.यू. से पास आउट है और बड़ा होशियार है । हमारी चर्चा हो गई है , उसका कहना है कि विलीनीकरण के समय जो दोनों राज्यों के बीच कोवोनेंट साइन हुआ था उसकी प्रति ले आओ तो बस उसे ही ढूँढना है ।
हम ट्रेन से बैठ कर वापस इंदौर आये, कलेक्टर को ब्रीफ किया और कोवोनेंट की ढूँढाई प्रारंभ की । बड़ी मेहनत के बाद आख़िरकार शीलेन्द्र ने उसे ग्वालियर के अभिलेख में ढूँढ ही निकाला , और उसके बल पर हमने सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका प्रस्तुत की । उस नवजवान अधिवक्ता ने वह क़ानून ढूँढ निकाला था कि राज्य विलीनीकरण के दौरान दोनों राज्यों द्वारा कोवोनेंट ( समझौता पत्र ) में लिखी गई चीजें , बाद में भारत के किसी भी न्यायालय में विवाद का विषय नहीं होंगी और वे अंतिम होंगी । अखण्ड भारत के पुरोधा सरदार वल्लभ भाई पटेल के दिमाग़ का ही ये कमाल रहा होगा वरना तो रियासतें विलीनीकरण के मुद्दों पर कोर्ट में मुकदमे ही लड़ती रहतीं । शीलेन्द्र के द्वारा ढूँढ निकाले गए उस कोवोनेंट में वादग्रस्त भूमि को शासन को सौंपे जाने का स्पष्ट उल्लेख था । माननीय सुप्रीम कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए अपने निर्णय में इसकी पुष्टि की और हम इस लम्बी लड़ाई को कानूनी तौर पर जीत गए और इस तरह कई करोड़ों रुपयों की बेशक़ीमती भूमि जिस पर अनेक इमारतें और इंस्टीट्यूशन शासन के तामीर हो चुके थे हटाए जाने के ख़तरे से बच गए ।
जब कलेक्टर की हिम्मत ने बचाई शासन की करोड़ों रुपयों की बेशकीमती जमीन ।