चंडीगढ़ से ए कुमार की रिपोर्ट
Chandigarh : ये है इशिता अग्रवाल। इनका उपन्यास करियर की दहलीज पर खड़े किशोर-किशोरियों के द्वंद्व को उजागर करता है और अभिभावकों को संदेश देता है कि वे अपने बच्चों के प्रति संवेदनशील व्यवहार के जरिए उनके अहसासों व मौलिक प्रतिभा को पहचाने, फिर उसे देखकर करियर चुनने का अवसर दें। हर बच्चा डॉक्टर-इंजीनियर नहीं बनना चाहता। कुछ मानविकी विषयों व कला के विभिन्न आयामों में अपना भविष्य तलाशना चाहते हैं।
खेलने-खाने की उम्र में कोई किशोरी यदि किसी धीर-गंभीर विषय पर लिखे और वह भी विस्तृत और गहन उपन्यास विधा में, तो यह उसकी मेधा व संवेदनशीलता को ही उजागर करता है। यही वजह है कि अपने नये उपन्यास ‘टीन मशीन’ से वे इन दिनों चर्चा में हैं। इशिता को लेखन का चाव अमेरिका प्रवास के दौरान जागा। दरअसल, वहां बच्चों को लेखन के लिये प्रेरित करते हैं, तब तीसरी कक्षा में इशिता ने अपनी पहली कहानी लिखी। इसके बाद जब इशिता आठवीं कक्षा में पढ़ती थी, तो एक उपन्यास लिखा था ‘लाइएबल’ जिसकी कहानी एक लड़की के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है, जो लोगों के झूठ पकड़ लेती है। उसको ऐसी दिव्य शक्ति हासिल है कि वह स्कूल व अपने इर्द-गिर्द के लोगों के व्यवहार में सच से पर्दा हटाती है। इसके पूर्व भी इशिता ने एक किताब तब भी लिखी, जब वह पांचवी कक्षा में पढ़ती थी। तब कोई दस या ग्यारह साल की उम्र रही होगी, मगर यह पुस्तक छपी नहीं। वो अमेरिकी सेटिंग्स में थी। किताब का नाम था ‘हर हार्ट स्पीक।’ यह लड़की विशिष्ट शक्तियों से मौसम कंट्रोल कर सकती थी।
ऐसे जागा लिखने का चाव
हरियाणा के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की इंजीनियर बेटी इशिता यह पूछने पर कि लिखने का चाव कैसे जागा, वे बताती हैं कि बचपन से ही मैं डायरी लिखती थी। पढ़ने का शौक था, माता-पिता अक्सर किताब लाकर देते थे। प्रोफेसर दादी डॉ शन्नो देवी अग्रवाल नियमित लेखन करती थीं। वहीं दादाजी जंतु विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. सतीश अग्रवाल भी लेखन करते थे।
इसलिए लिखी ‘टीन मशीन’
‘टीन मशीन’ लिखते वक्त दिमाग में क्या था? यानी क्यों लिखना जरूरी समझा। कमोबेश अधिकांश किशोर इस अवस्था से गुजरते हैं। सभी में एक भावना होती है कि क्या मैं इस क्षेत्र में करियर बना सकता हूं। क्या ऐसी स्किल मुझ में है? निस्संदेह यह समय चुनौतीपूर्ण होता है। इसी दिशा में पूरी लाइफ तय करनी होती है। काफी निर्णायक समय होता है। दरअसल, उपन्यास में चार लोगों की लाइफ है। मुख्य चरित्र अवनी है। वह दसवीं तक अच्छी स्टूडेंट है। ग्यारहवीं में वह समय आता जब उसे अपनी स्ट्रीम चुननी है। द्वंद्व है कि मानविकी विषय चुके या इंजीनियरिंग। उसे लगता है कि वह उतनी स्मार्ट नहीं है जितने कि उसके दोस्त। फिर वह कोचिंग लेती है। उसके आत्मविश्वास में उतार-चढ़ाव आते हैं। मां को उसकी क्षमता में ज्यादा विश्वास नहीं होता, पर पिता ज्यादा उम्मीद करते है।
इशिता के व्यक्तित्व की छाया
क्या कहीं अवनी में इशिता के व्यक्तित्व की छाया है? कह सकते हैं। मैंने भी ग्यारहवीं में कोचिंग ली। मैंने मन से इंजीनियरिंग की धारा को चुना। मगर कुछ और अनुभवों का उपन्यास में समेटने की कोशिश की है। मन के विषय चुनने से हमारी प्रतिभा का विकास होता है। लेकिन, यदि ऐसा न हो उस करियर में वो बात नहीं आ पाती। उपन्यास में एक पात्र प्रणिका भी कंफ्यूज है। पिता चाहते हैं इंजीनियरिंग करे, लेकिन प्रणिका फैशन डिजाइनिंग में भविष्य तलाशना चाहती है। वह बहुत स्मार्ट है। छठी से कोचिंग जाती है। इशिता का मानना है कि युवा जो मन में आए करें। वे तुलना न करें। ऐसा न सोचें कि मुझसे ज्यादा दूसरे बच्चे स्मार्ट हैं। आप ही अपना उचित मूल्यांकन कर सकते हैं। अपनी मौलिक प्रतिभा व रुचि के बारे में सोचकर भविष्य तय करें।
लिखने में तीन साल लगे
इस उपन्यास को लिखने में इशिता को तीन साल लगे। उसने यह अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान पूरा किया। जब भी समय मिलता लिखने की प्रक्रिया में जुट जाती। कोई निश्चित समय नहीं था लिखने का। इस दो सौ छप्पन पेज के उपन्यास में तीस चेप्टर हैं और उसे तीन भागों में बांटा गया है। पहले में यह कि भ्रम से मुक्त होकर क्या चुने, कैसे तैयारी करें तथा कैसे क्रियान्वित करें। इशिता कहती है कि अच्छे प्रकाशन से प्रकाशित होने तथा पाठकों के अच्छे प्रतिसाद से वह उत्साहित हैं और तीसरा उपन्यास लिखने की प्रक्रिया में हैं। इशिता के अनुसार, मैं चाहती हूं कि लोग उपन्यास पढ़े तथा उन लोगों को संबल दें, जो अपने भविष्य को लेकर दुविधा में हैं। साथ ही यह बताएं कि हर कोई इस संक्रमण काल से गुजरता है। वहीं मां-बाप की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
इशिता युवाओं से कहना चाहती हैं कि यह सोशल मीडिया का दौर है और सब कुछ पब्लिक डोमेन में है। लेकिन लोग वे ही चीजें अपने जीवन के बारे में हाइलाइट करते हैं जो उन्हें विशिष्ट दिखाए। यानी कंप्रेजन वाली फीलिंग सामने आती है। मेरा मानना है कि हर व्यक्ति समझे कि आप स्पेशल हैं। वो ही चीजें मायने रखती हैं जो आप ठीक से कर रहे हैं। आप अच्छे हैं और आपको तुलना करने की जरूरत नहीं है। उससे कुछ नहीं मिलता। जरूरी है, कि अभिभावक अपने बच्चों के मनोविज्ञान को समझें।