आतंक ने कुचला, फिर भी अफगान सिनेमा आतंक के खिलाफ!

775

अफगानिस्तान जैसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले देश पर आतंकी संगठन तालिबान ने जबरिया कब्जा कर लिया। सिर्फ सत्ता पर ही नहीं, वहाँ के लोगों की आजादी, उनके सोच और यहां तक कि मनोरंजन पर भी तालिबानी सोच हावी हो गई। दुनियाभर में इस मसले को लेकर अलग-तरह तरह की चर्चा है। वैदेशिक रिश्तों को लेकर ऐसी चिंता स्वाभाविक है, पर कोई यहाँ की संस्कृति, सभ्यता और यहाँ के सिनेमा को लेकर बात नहीं कर रहा। कई सालों से ये देश आतंकवाद से ग्रस्त रहा, इसलिए ये समझा जाता है, कि यहाँ मनोरंजन के लिए सिनेमा जैसा कोई माध्यम शायद ही जीवित हो! लेकिन, ऐसा नहीं है। यहाँ भी सिनेमा की अपनी मजबूत जड़ें हैं, जिसके पास अपने ज्यादा बेहतर किस्से-कहानियां हैं। ये बात अलग है कि इन कहानियों में दर्द का हिस्सा ज्यादा है और मनोरंजन कम! शायद इसीलिए अफगानिस्तान के सिनेमा को लेकर कम ही बातचीत होती है। अफगानिस्तान में जिस तरह से तालिबानी आतंकवाद ने कब्ज़ा किया, वहाँ का फिल्म उद्योग तहस-नहस हो गया। लेकिन, फिर भी वे अफगानी फिल्मकारों के सोच को नहीं दबा सके। इतने दबाव और हिंसा के बाद भी आश्चर्य की बात है कि अफगानिस्तान में बनी ज्यादातर फिल्में तालिबानी कट्टरपंथ के खिलाफ बनी! दरअसल, ये उनका सिनेमाई गुस्सा है क्योंकि, तालिबानियों के सत्ता में आते ही वहां की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति एक तरह से खत्म हो गई।

दुनिया में सिनेमा के मामले में भारत सबसे समृद्ध है, जबकि उसके आसपास के देशों में ये माध्यम उतना ही कमजोर। इसलिए कि सालों से भारत में बना सिनेमा ही वहाँ के लोगों का भी मनोरंजन कर रहा है। ऐसे में अफगानिस्तान में भी भारतीय फिल्मों का बाजार सालों से सजा है। वहाँ के लोगों ने भारत की फिल्मों और यहाँ के कलाकारों को इतना आत्मसात कर लिया कि वे सभी इन्हें अपने लगने लगे। अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान के साथ माधुरी दीक्षित और कैटरीना कैफ भी वहाँ बेहद लोकप्रिय हैं। इनमें भी अमिताभ और कैटरीना के तो वहाँ पोस्टर बिकने की खबर है। अफगानिस्तान और भारत के रिश्ते भी बहुत गहरे रहे हैं। यहाँ तक कि दोनों देशों की संस्कृति और सभ्यता भी कहीं न कहीं जुड़ी है। शायद भारतीय फिल्मों के प्रति इसी आसक्ति का ही असर है कि रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ पर 1957 में पहले बंगाली में तपन सिन्हा और बाद में 1961 में हिंदी में हेमेन गुप्ता सहित कई निर्देशकों ने सफल फिल्में बनाई। अफगानिस्तान में 2007 में हॉलीवुड की फिल्म ‘द काइट रनर’ बनी। उससे पहले 1975 में फीरोज खान ने धर्मात्मा, मुकुल आनंद ने 1992 में खुदा गवाह, कबीर खान ने 2006 में काबुल एक्सप्रेस फिल्म बनाई।

1968 में जब अफगानिस्तान में फ़िल्में बनना शुरू हुई, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों पर प्रकाश डालते हुए वृत्तचित्र और समाचार फ़िल्में बनाई जाने लगीं थी। इन फिल्मों को भारत में भी फीचर फिल्मों से पहले सिनेमाघरों में दिखाया जाता! नए दौर में अफगान कलाकारों को लेकर काबुल में बनाई गई पहली फीचर फिल्म थी ‘लाइक ईगल्स’ जिसमें जहीर वैदा और नाजिया ने अभिनय किया था। इसके बाद अफगान फिल्मकारों ने ‘एज’ नाम से तीन भाग वाली फिल्म बनाई थी। इसमें स्मगलर, शूटर्स और ‘फ्राइडे नाइट’ शामिल थे। इस दौर की दो अन्य फिल्में ‘विलेज ट्यून्स’ और ‘डिफिकल्ट डेज’ हैं। इन सभी फिल्मों को ब्लैक एंड व्हाइट बनाया गया था। इस युग के फिल्म कलाकारों में खान अका सोरूर, रफीक सादिक, अजीजुल्लाह हदफ, मशाल होनारयार और परवीन सनतगर शामिल थे। 80 के दशक की शुरुआत में अफगानिस्तान में निर्मित पहली रंगीन फिल्में थी रन अवे (फरार), लव एपिक (हमासा ए इशग), सबूर सोल्जर (सबूर सरबाज), ऐश (खाके स्टार) और ‘लास्ट विशेज’ थीं। ये फिल्में हालांकि तकनीकी रूप से उतनी कुशल नहीं थी, जितनी भारत या अन्य देशों में बनती है। लेकिन ये फ़िल्में अफगानी जिंदगी के साथ तालमेल बैठाती थीं। क्योंकि, वे उनके जीवन को दिखाती थीं।

1996 में जब तालिबानियों ने जब वहाँ की सत्ता में दखल देना शुरू किया, तो सबसे पहले सिनेमाघरों पर हमले किए गए। कई फिल्में जला दी गईं। तालिबानियों ने लोगों के टीवी देखने से भी लोगों को रोक दिया, सिनेमाघर बंद कर दिए गए। बाद में ये सिनेमाघर चाय की दुकानें बन गए या रेस्तरां। कुछ सिनेमाघर खंडहर हो गए। अफगान फिल्मकार के हबीबुल्लाह अली ने तालिबानियों से फिल्मों के विनाश को रोकने के लिए हजारों फिल्मों को भूमिगत कर दिया या कमरों में छुपा दिया। 2002 में तालिबान आतंक के बाद पहली फिल्म ‘टेली ड्रॉप’ फिल्म बनाई गई। इससे पहले यहाँ बनने वाली फिल्म थी ‘ओरजू’ जो 1995 में बनी थी। 1996 में यहाँ तालिबानियों ने कब्ज़ा कर लिया तो सिनेमा की गतिविधियां बंद हो गई।

अफगानिस्तान में सबसे पहले सिनेमा लाने का श्रेय वहां के राजा (अमीर) हबीबुल्ला खान (1901-1919) को दिया जाता है। उन्होंने दरबार में प्रोजेक्टर से कुछ फिल्में दिखाई थी। तब वहाँ प्रोजेक्टर को ‘जादुई लालटेन’ कहा जाता था। जनता के लिए उन्होंने काबुल के पास पघमान शहर में पहली बार 1923 में एक मूक फिल्म के प्रदर्शन भी किया था। लेकिन, अफगानिस्तान में सिनेमा का निर्माण बेहद अस्त व्यस्त रहा। 1946 में बनी ‘लव एंड फ्रेंडशिप को पहली फीचर फिल्म माना जाता है। उसके बाद ज्यादातर डाक्यूमेंट्री ही बनी। 1990 में छिड़े गृहयुद्ध और 1996 में तालिबानियों के सत्ता में आने के बाद वहाँ फ़िल्में बनाना और देखना प्रतिबंधित कर दिया।

जहाँ तक अफगानी फिल्मों की दुनिया में पहचान बनने का सवाल है, तो वह थी 2003 में बनी सिद्दिक बर्मक की फिल्म ‘ओसामा!’ इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह समेत कई बड़े फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड मिले। बताते हैं कि इस फिल्म ने 39 लाख डॉलर का कारोबार किया था। इसके बाद 2004 में आई अतीक रहीमी की फिल्म ‘अर्थ एंड एशेज (खाकेस्तार-ओ-खाक) का वर्ल्ड प्रीमियर 57वें कांस फिल्म फेस्टिवल के ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ खंड में हुआ।

यह 13 साल की लड़की (मरीना गोलबहारी) की कहानी है, जो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए लड़का बनकर ओसामा नाम से काम करती है। उसके परिवार में कोई मर्द नहीं बचा था। वह माँ के साथ एक अस्पताल में काम करती थी, जिसे बाद में तालिबानियों ने बंद कर दिया। औरतों के काम करने पर रोक लगा दी और लड़कों को पकड़कर इस्लामी ट्रेनिंग कैंप भेजने लगे। एक दिन ओसामा को भी पकड़ लिया गया। वहाँ राज खुलने पर उसे बुरी तरह यातनाएं दी गईं। बाद में एक बूढ़े के साथ उसकी जबरन शादी करा दी जाती है।

इसके बाद जिस फिल्म की चर्चा होती है, वह थी 2011 में आई ईरानी फिल्मकार वाहिद मौसेन की फिल्म ‘गोल चेहरे!’ यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी। जिसमें लोगों ने जान पर खेलकर तालिबानियों के हमले से कई फिल्मों के दुर्लभ प्रिंट बचाए थे। एक उन्मादी सिनेमा प्रेमी अशरफ खान गोल चेहरे नाम का एक सिनेमा हॉल चलाते थे, जिसे तालिबानियों ने जलाकर नष्ट कर दिया था। वे इस सिनेमा हॉल को फिर शुरू करना चाहते हैं। सत्यजीत राय की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से सिनेमा हॉल का उद्घाटन होता है। लेकिन, जैसे ही फिल्म शुरू होती है, तालिबानी सिनेमा हॉल को बम से उड़ा देते हैं। अशरफ खान को मार देते हैं और सभी फिल्मों को जला देने का फतवा देते हैं। लेकिन, एक विधवा डॉक्टर रूखसारा दुर्लभ फिल्मों को बचाने में कामयाब हो जाती है। एक बार फिर गोल चेहरे सिनेमा हॉल बनता है और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से ही उसका उद्घाटन होता है। फिल्म का ये कथानक हिंदी फिल्मों को लेकर अफगानियों की दीवानगी बताता है।

लम्बे समय बाद दुनिया में यहां की फिल्मों की चर्चा मोहसिन मखमलबफ की 2001 में आई फिल्म ‘कंधार’ से हुई। 20 से ज्यादा फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म दिखाई गई। इसके बाद 2003 की फिल्म ‘ऐट फाइव इन द आफ्टरनून’ भी चर्चा में आई। फिल्म की कहानी एक अफगान लड़की पर केंद्रित थी, जो परिवार की इच्छा के खिलाफ स्कूल जाती है। वह भविष्य में अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने का सपना भी देखती है। अतीक रहीमी की 2004 में आई फिल्म ‘अर्थ एंड एशेज’ का मूल नाम ‘खाकेस्तार ओ खाक’ था। यह फिल्म अफगानिस्तान में चल रहे गृहयुद्ध से हुए विनाश में मनुष्यता खोजने की सिनेमाई कोशिश है। फिल्म में दादा और पोते की आंखों की आँखों के दृश्य ही फिल्म की असली ताकत है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी बमबारी से बर्बाद हुए देश को लैंडस्केप की तरह फिल्माया गया था।