जातिगत राजनीतिक लड़ाई से सत्ता के सिंहासन का सपना

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जातिगत राजनीतिक लड़ाई से सत्ता के सिंहासन का सपना

राहुल गाँधी ने कई वर्षों तक विचार के बाद कांग्रेस पार्टी में प्रवेश किया और पहले दुविधा और फिर बड़े आग्रह के बाद पार्टी के शीर्ष पद स्वीकार किए | पार्टी की एक बड़ी चुनावी पराजय के बाद पद से इस्तीफ़ा दिया | 2024 के लोक सभा चुनाव में विपक्ष के एक गठबंधन के साथ मिली थोड़ी सफलता से उनका आत्म विश्वास बढ़ता दिखाई दे रहा है | लेकिन गठबंधन की मज़बूरी या अन्य साथियों के फॉर्मूलों से आकर्षित होकर क्या कांग्रेस पार्टी की सदस्यता की शर्तों और परम्पराओं को भूलने या बदलने की कोशिश कर रहे हैं | एक पुराने कांग्रेसी नेता ने अनौपचारिक बातचीत में आशंका व्यक्त की कि ‘ गांधी परिवार के सदस्य होने के कारण संभव है , उन्हें सदस्यता फॉर्म पढ़ने की जरुरत महसूस नहीं होगी , कंपनी के सी इ ओ की तरह सहयोगी द्वारा लाए गए फॉर्म पर दस्तखत कर दिए हों | वैसे भी वे कांग्रेस पार्टी को नए ढंग से चलाने की कोशिश कर रहे हैं | ‘ अन्यथा कांग्रेस पार्टी की सदस्यता लेने के लिए शपथ पत्र की पहली दो पंक्तियों में ही लिखा गया है कि ”

मैं घोषणा करता/करती हूं कि: – मेरी आयु 18 साल या उससे अधिक है. – मैं प्रमाणित खादी पहनने का आदी हूं. – मैं अपने को मादक पेयों और नशीले पदार्थों से दूर रखता हूं. – मैं न तो सामाजिक भेदभाव करता हूं और न किसी भी रूप में इसे अमल में लाता हूं और इसे मिटाने के लिए काम करने का वचन देता हूं. – मैं धर्म और जाति के भेदभाव रहित एक सूत्र में बंधे समाज में विश्वास रखता हूं. | ”

जाति और धर्म पर भेदभाव न करने के संकल्प वाला व्यक्ति ‘ जातिगत गणना ‘ और जातियों के आधार पर शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के विस्तार के लिए हर मोर्चे पर लड़ने और सत्ता में आते ही अपना यह वायदा पूरा करने की घोषणाएं कैसे कर सकता है ? राहुल गाँधी ने नए वित्तीय वर्ष के बजट का विरोध करते हुए अपने भाषण में भी जातिगत जनगणना के अभियान की बात पर सर्वाधिक जोर दिया | तब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बहस के उत्तर के दौरान नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक आरक्षण के विस्तार के विरोध वाले विचारों और परम्परा की ओर ध्यान दिलाया | इसी क्रम में उन्होंने राजीव गाँधी द्वारा मार्च 1985 में मुझे दिए गए इंटरव्यू को भी उद्धृत कर दिया | इस इंटरव्यू का हेडिंग और एक पंक्ति मीडिया में सुर्खियां बनकर चर्चा का विषय बन गई | देश के पमुख हिंदी दैनिक नव भारत टाइम्स में 3 मार्च 1985 को प्रकाशित इस इंटरव्यू का शीर्षक है – ” आरक्षण के नाम पर बुद्धुओं को बढ़ावा नहीं – राजीव गाँधी ” | इस हंगामे में मीडिया के पत्रकारों के अलावा कई अन्य लोगों ने भी मुझसे इस इंटरव्यू में राजीव द्वारा कई गई बातें जानने की कोशिश की | यों किसी लाइब्रेरी में पुराना अख़बार मिल सकता है अथवा मेरी पुस्तक ‘ नामी चेहरों से यादगार मुलाकातें ‘ में भी उनके दो इंटरव्यू , इंदिराजी , नरसिंहा राव , अटलबिहारी वाजपेयी सहित कई हस्तियों के इंटरव्यू उपलब्ध है | फिर हाल इस समय राजीव गांधी के साथ हुई लम्बी बातचीत के कुछ अंशों का उल्लेख कर रहा हूँ | मेरे सवालों के उत्तर में रजीक्व गाँधी ने कहा था – ” मैं यह मानता हूँ कि आरक्षण की पूरी नीति पर विचार होना चाहिए | पैतीस बरस पहले सामाजिक समस्या के समाधान के लिए यह व्यवस्था की गई थी | लेकिन पिछले वर्षों के दौरान उसका राजनीतिकरण कर दिया गया | लोग अल्पकालीन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इसका उपयोग कर रहे हैं | पिछले वर्षों में हमारा समाज बहुत बदल गया है | 1950 में समाज का जो ढांचा था , स्थिति अब वैसी नहीं है | उसमें काफी बदलाव आया है | तरक्की हुई है | इसलिए समय आ गया है कि इस नीति और सुविधाओं पर पुनः विचार करना है | हमें वास्तविक दबे पिछड़े लोगों के के लिए कुछ आरक्षण की व्यवस्था रखनी होगी | लेकिन यदि इसका विस्तार किया गया तो अति सामान्य बुद्धू लोगों को बढ़ा रहे होंगे और इससे पूरे देश को नुकसान होगा | ”

इस बात के चालीस साल हो गए | राहुल गांधी या कोई अन्य व्यक्ति यह कह सकता है कि इन चार दशकों में शिक्षा या समाज की स्थितियों में कोई प्रगति नहीं हुई है ? राहुल गांधी के रूप में संसद में फिर देशव्यापी जाति जनगणना की जोरदार वकालत की। । बीजेपी के सांसद अनुराग ठाकुर ने जव्वाब में किसी का नाम नहीं लिया लेकिन कह दिया कि ‘ जाति जनगणना की वकालत वे लोग कर रहे हैं जिनकी अपनी जाति का पता नहीं है। ” हालांकि, ठाकुर के बयान का एक हिस्सा संसदीय कार्यवाही से हटा दिया गया था। इसके बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ट्वीट किया। बाद में, एक अन्य बीजेपी नेता संने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गांधी के संसदीय में दिए गए भाषण पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने कहा कि ‘राहुल को खुद से और अपने साथी उत्साही लोगों से यह महत्वपूर्ण सवाल पूछने की जरूरत है: इसका (जातिगत जनगणना का) अंतिम लक्ष्य क्या है? क्या इसका उद्देश्य जाति-आधारित आरक्षण को और बढ़ाना है? कई राज्य पहले ही इंदिरा साहनी के फैसले में निर्धारित 49% सीमा का उल्लंघन कर चुके हैं या उल्लंघन करने के करीब हैं। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% कोटा के लिए न्यायिक मंजूरी, जो कि पहली मोदी सरकार के अंतिम दिनों में कानून बनाया गया था, वैसे भी मौजूदा संभावित कोटा सीमा को 59% तक बढ़ा देता है। जबकि तमिलनाडु में यह सीमा वैसे भी 69% है। तो, क्या जाति जनगणना के बाद इसे 75% तक ले जाने का इरादा है? या इससे भी ज्यादा, क्योंकि उच्च जातियां आबादी के 20% से अधिक नहीं हैं?

साथ ही, क्या 49% की सीमा के काम करने के तरीके के बारे में किसी भी तरह की स्टडी के बिना आरक्षण नीति को आगे बढ़ाना और विस्तारित करना समझदारी है? इस बात के सबूत हैं कि अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के बीच क्रीमी लेयर को आरक्षण से अनुपातहीन रूप से लाभ मिला है। इसका मतलब है कि असली चुनौती पहले से ही पात्र लोगों के बीच कोटा को फिर से बांटना है। यदि सात दशक के कोटा-मोचन ने जाति की अक्षमताओं को दूर करने में पर्याप्त रूप से मदद नहीं की है, तो कोटा को 10-15% और बढ़ाने से क्या मदद मिलेगी? ‘

सवाल यह भी है कि क्या इसका उद्देश्य आरक्षण व्यवस्था को निजी क्षेत्र तक भी बढ़ाने का है? इससे योग्यता आधारित भर्तियों के लिए जगह और भी सीमित हो जाएगी। पिछले दिनों राहुल गाँधी की कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने तो केवल प्रादेशिक लोगों को ही नौकरियों में प्राथमिकता देने का फैसला कर लिया था | वह तो भरी विरोध के कारण स्थगित हो गया है | तो क्या अब राहुल की कांग्रेस जाति , क्षेत्र , धर्म के आधार पर आरक्षण देकर देश को अराजकता की तरफ ले जाना चाहती है | । कर्नाटक में सिद्धारमैया की ही सरकार ने पिछले कार्यकाल में जाति सर्वेक्षण कराया था, लिंगायत और वोक्कालिगा वोट खोने के डर से इसे आगे बढ़ाने में हिचकिचा रही है। हालांकि आरक्षण की लड़ाई अंततः अदालतों में जीती या हारी जाएगी | सुप्रीम कोर्ट के इस सप्ताह के निर्णय में अभी की आरक्षण व्यवस्था में ही उप जातियों को जोड़ने आदि का अधिकार राज्य सरकारों को देने की बात कही है , लेकिन इसमें क्रीमी लेयर यानी एक पीढ़ी के लाभ मिलने के बाद उसी परिवार के अगली पीढ़ी के व्यक्ति को आरक्षण का लाभ नहीं देने का ऐतिहासिक निर्णय भी दे दिया है |

 

जहां केंद्र सरकार ने ये साफ कर दिया है कि अगली जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा बाकी जातियों की गिनती नहीं होगी और न ही पिछली सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी-2011) के आंकड़े जारी किए जाएंगे. वहीं, राहुल गांधी ने ये कह दिया है कि जाति जनगणना कराई जाए, |एसईसीसी-2011 के जाति संबंधी आंकड़े जारी किए जाएं और आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा हटाकर आबादी के अनुपात में वर्गों को आरक्षण दिया जाए |

देश आजाद होने के बाद 1951 में जनगणना का समय आया तो जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने एससी और एसटी के अलावा, बाकी जातियों के आंकड़े न जुटाने का फैसला किया था |ये नीति 1980 तक लगभग बिना विवाद चलती रही | 1980 में बीपी मंडल ने दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी. |. उन्होंने जनगणना में जाति के आंकड़े जुटाने की सिफारिश की | वी पी सिंह सरकार ने 1990 में इस रिपोर्ट का वह अंश लागू हुआ, जिससे केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण यानी पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत के आरक्षण का प्रावधान कर दिया | अगली जनगणना की तैयारियों के क्रम में फिर एचडी देवगौड़ा की सरकार ने 1996 में फैसला किया कि अगली यानी 2001 की जनगणना में जाति के आंकड़े जुटाए जाएंगे \ लेकिन 2001 से पहले ही केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बन चुकी थी और उस सरकार ने देवगौड़ा सरकार के फैसले को बदल दिया |2011 की जनगणना से पहले लोकसभा में 2010 में जाति जनगणना पर व्यापक बहस हुई थी, जिसमें कांग्रेस और बीजेपी समेत सभी दलों के बीच आम सहमति भी बन गई थी | लेकिन राहुल कांग्रेस की मनमोहन सिंह की सरकार ने आखिर ये फैसला लिया कि 2011 की दस वर्षीय जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा | इस तरह जाति जनगणना कांग्रेस सरकार ही रोकती रही |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।