राधारानी की ऐसी महिमा, कि बांकेबिहारीजी की कृपा खुद बरसती है…

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राधारानी की ऐसी महिमा, कि बांकेबिहारीजी की कृपा खुद बरसती है...

वृंदावन यानि असीम प्रेम और आनंद से सराबोर करने वाला एक समग्र संसार। शनिवार को अलीगढ़ से वृंदावन जाने पर साइन बोर्ड दिखा। जिसमें दाईं तरफ राधा रानी का मंदिर जाने का एरो था…दूरी छह किमी, तो बाईं तरफ वृंदावन जाने के लिए दूरी थी 12 किमी। साइन बोर्ड देखकर मेरे मन में आया कि जहां राधे रानी के नाम की ही महिमा है, तो पहले उन्हीं के चरणों में मत्था टेककर ही वृंदावन में प्रवेश की इजाजत क्यों न ली जाए? ड्राइवर ने गाड़ी बाएं वृंदावन की तरफ मोड़ी ही थी कि हमारी इच्छा जानकर गाड़ी राधा रानी के मंदिर की तरफ चल दी।

राधारानी की ऐसी महिमा, कि बांकेबिहारीजी की कृपा खुद बरसती है...

छह किलोमीटर चलने के बाद हम राधा रानी मंदिर और यहां स्थित मानसरोवर पहुंच गए। गाड़ी से उतरकर बाकी मंदिरों को बाहर से देखते हुए हम सबसे पहले राधा रानी के मंदिर पहुंच गए। यहां राधा रानी की सांवले रंग की मूर्ति देखकर कुछ समझ नहीं आया। पंडित जी से पूछा कि यहां के बारे में कुछ बताएं। तब तक हमारे मोबाइल का कैमरा देखकर पास खड़ी श्वेतवस्त्रधारिणी एक बहिन ने मुझे रोका कि फोटो खींचना मना है। मैंने कैमरा बंद कर दिया यह दर्शाते हुए जैसे मुझे यह मालूम नहीं था। खैर पंडित जी ने मंदिर के बाहर दूसरे पुजारी को आवाज दी कि मंदिर का महत्व बता दें। इतने में मैंने उन बहिन से अनुरोध किया तो वह भी मंदिर का महत्व बताने लगी। सार यही है जो उन्होंने और फिर बाद में दूसरे पुजारी और फिर यहां स्थित गोपेश्वर मंदिर में बैठी दसवीं की छात्रा शिवानी ने भी बताया।

वृंदावन में “निधिवन” में बांकेबिहारीजी हर रात महारास करते थे। एक दिन महारास में मां पार्वती शामिल होने आ रही थीं कि पायल और रुनझुन की मधुर आवाज शंकर के कानों में भी पड़ी। उन्होंने पार्वती से पूछ लिया कि कहां जा रही हो देवी, तो उन्होंने महारास में जाने की बात बताई। शंकर बोले कि महारास में महाप्रभु के दर्शन करने की मेरी भी इच्छा है और वह भी साथ हो लिए। पार्वती ने बताया कि महारास में केवल स्त्रियां ही शामिल होती हैं, पुरुष सिर्फ कृष्ण ही शामिल होते हैं। पर शंकर तो शंकर, पहुंच गए शामिल होने। उस दिन प्रवेश द्वार पर ललिता और विशाखा का पहरा था।

शंकर पहुंचे तो ललिता ने रोक दिया। पर यह युक्ति भी बताई कि यदि आप मां यमुना में डुबकी लगाकर उनका श्रंगार मांगें और वह देने को राजी हो जाएं, तब काम बन सकता है। महाप्रभु के महारास में शामिल होने के लिए शिव को सब मंजूर था। उन्होंने यमुना में डुबकी लगाईं तो यमुना ने श्रंगार दे दिया और जब शंकर लौटकर आए तो ललिता क्या पार्वती भी शंकर को नहीं पहचान पाईं कि यह गोपी कौन है। और शंकर महारास स्थल यानि “निधि वन” में प्रवेश कर गए। पर महाप्रभु की नजरों से भोलेनाथ कहां बच सकते थे, सो उन्होंने शंकर का मान रखते हुए उन्हें न केवल अपने सिंहासन पर बैठाया बल्कि महागोपेश्वरी नाम से संबोधित किया।

वह महारास जहां पर राधा से बड़ी गोपी कोई नहीं, वहां यह दृश्य देखकर राधा कुपित हो गईं और  पहुंच गई मांट, जहां अब राधा रानी का मंदिर है। उधर राधा के बिना रास ही संभव नहीं था, फिर महारास कैसा? कृष्ण ने पहले यमुना को श्री राधा रानी को मनाने भेजा, पर उन्होंने यमुना को श्राप दे दिया। फिर कृष्ण खुद मनाने पहुंच गए। पर राधा जी नहीं मानी। कृष्ण ने बताया शंकर का मान रखने के लिए उन्हें सिंहासन पर आसन और महागोपेश्वरी संबोधन जरूरी था। पर राधा नहीं मानी, तो कृष्ण ने अपने कंधे पर बैठने का अनुरोध राधा रानी से किया।

और जब राधा रानी, कृष्ण के कंधे पर बैठने को बढ़ीं तो कृष्ण ओझल हो गए। वियोग में राधा इतनी रोईं कि वहां सरोवर बन गया, अब यह राधा मानसरोवर कहलाता है। दो दिन बाद कृष्ण फिर आए और राधा को मनाते हुए उनके चरण पकड़ मनाने लगे। यह वहीं पास में दूसरा स्थान है। और फिर द्वारका जाने की बात कहने लगे, तो राधा ने कहा तुम छलिया हो कृष्ण। हमें भरोसा नहीं कि तुम लौटकर आओगे। तुम अपना मुकुट और बांसुरी हमें दे दो। तब मुकुट और बांसुरी देकर कृष्ण वहां से जा पाए। और यही मान्यता है कि द्वारिका में कृष्ण के मुकुट और बांसुरी की पूजा नहीं होती। वहां कृष्ण को मोरपंख से ही काम चलाना पड़ता है।


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तो संदर्भ यह है कि यहां फोटो खींचने की मनाही क्यों है? हमें बताया गया तब यह बात समझ आ गई कि फोटो न खींचना श्रद्धालुओं के हित में है, इसीलिए सख्त मनाही है। राधा का काला वर्ण उनके कुपित होने से है। यह फोटो घर में कलह और कष्ट को आमंत्रण देता है। यही बात उस मंदिर में लागू होती है, जहां कृष्ण राधाजी के पैरों में बैठे हैं। और राधारानी का यह मंदिर पूरी दुनिया में अद्वितीय है। जहां मानसरोवर में स्नान का महत्व है।

पंचायत क्षेत्र में स्थित मंदिर चमक-दमक से दूर है। यहां गोपेश्वर महादेव का मंदिर है। ललिता का मंदिर है। हनुमान जी का मंदिर है। और महाप्रभु की बैठक है। सभी मंदिर वृंदावन क्षेत्र में बने बड़े-बड़े मंदिरों की तुलना में साधारण हैं, लेकिन यह मूल स्थान श्रद्धालुओं को खुद से बांध लेता है हमेशा-हमेशा के लिए। कृष्ण के रंग में रंगे और बांकेबिहारीजी के दर्शन को लालायित श्रद्धालु यहां आकर यह मर्म समझ जाते है कि कृष्ण तो श्री राधा रानी के रंग में रंगे हैं और राधा के बिना न महारास संभव हैै और न कृष्ण ही पूरे हैं…।

शनिवार यानि 18 जून की रात ही जब हम राधा रानी का दर्शन कर वृंदावन पहुंचे और वृंदावन परिक्रमा की, तब राधा रानी और उनके रंग में सराबोर बांकेबिहारीजी की महिमा मन को पूरी श्रद्धा और आस्था से भरती जा रही थी। कालियादाह मंदिर, महारास का “निधि वन”… जहां मान्यता है कि आज भी बांकेबिहारीजी रात में मंदिर से चले जाते हैं और “निधि वन” में महारास करते है। सुबह फिर लौटकर वापस आते हैं। कदम्ब का वही वृक्ष है, जहां कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र चुराकर लीला की थी। यमुना जी के दर्शन और घाट और मंदिर…फिर रात में बांकेबिहारीजी के दर्शन करने पर पहले राधारानी के दर्शन करने का पूरा प्रभाव समझ आ गया। मंदिर के एक पुजारी बाहर आए तो बांकेबिहारीजी को लगा भोग-प्रसाद भी दिया और रविवार सुबह बांकेबिहारीजी के दर्शन का न्यौता देकर मान भी रखा। तो यह है राधारानी की महिमा कि बांकेबिहारीजी की कृपा खुद बरसने लगती है…।