कुछ ना करने का सुख

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कुछ ना करने का सुख

राघवेंद्र दुबे

. रिटायरमेंट के बाद लोग अक्सर यह प्रश्न करते हैं कि क्या कर रहे हो आजकल। जब उनको यह उत्तर मिलता है कि ‘कुछ नहीं कर रहे हैं’ तो सामने वाले प्रश्न करता को बड़ी निराशा होती है। वह बड़ी बेचारगी के भाव से आपको देखता हुआ कुछ न कुछ करते रहने के कई उपाय बताने लगता है। उसे लगता है कि कुछ न करके आप अपनी बहुमूल्य जिंदगी को यूंही जाया कर रहे हैं। उसे यह नहीं पता कि जब कुछ किया करते थे तब के किए गए कार्यों का यदि मूल्यांकन किया जावे तो परिणाम लगभग 0 ही आएगा।
कुछ ना करना और अकेले अपने आप में मस्त रहना दूसरों की नजर में आपको आधा पागल निकम्मा नाकारा और बेकार साबित कर देता है। कुछ ना करके अकेला रह कर कोई आदमी सुखी रह सकता है यह किसी के गले नहीं उतरता। पूरी सामाजिक व्यवस्था इस तरह की हो गई है कि कुछ करते रहने को ही सार्थक और महत्वपूर्ण समझा जाता है। जिंदगी कुछ न कुछ गतिविधि करते रहने का ही पर्याय मान लिया गया है। एक के बाद एक गतिविधियों के घटना चक्र में ही जीवन बिताने को सार्थक मान लिया गया है। जो जितना ज्यादा व्यस्त है उसे उतना ही अधिक महत्वपूर्ण मान लिया जाता है।

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प्रश्न यह है कि क्या कुछ करते रहने से ही आपको जो प्राप्त हो रहा है वह क्या है? क्या आपको संतोष, शांति, विश्राम, अपने आप से पहचान प्राप्त हो पा रही है? क्या हमारे जीवन का अर्थ कोल्हू के बैल की तरह निरंतर जुटे रहने में ही हैं? कुछ न करने पर जो आपको बेचैनी होती है क्या कुछ भी करते रहने पर वह बेचैनी चयन में बदल पाती है? कुछ करते रहने से आपको कुछ अतिरिक्त धन की प्राप्ति अवश्य हो सकती है पर क्या आप का उद्देश्य यह अतिरिक्त धन प्राप्ति ही था जिसको खर्च करने का भी आपके पास समय नहीं है।

कुछ करते रहने की लालसा एक ऐसा स्वर्ण पिंजरा है जिसमें आप अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। इस पिंजर से बाहर आने पर या तो आप को खुले में अपने पंख फैलाने होंगे या आप धराशायी हो जाएंगे। धराशायी होकर मुक्ति पाने का आप में साहस नहीं है और खुले में विचरण करने के खतरे उठाने की भी आप में हिम्मत नहीं है। इसलिए आप कुछ करते रहने के पिंजरे में ही कूप मंडूक होकर रहना चाहते हैं। यद्यपि 1 दिन धराशायी हो जाना वहां भी नियत है।
नए विचार आने के सृजन की नवीन परिकल्पना बनने के क्षण कौन से होते हैं- यह वह समय होता है जब व्यक्ति एकांत में होता है, अकेला होता है। दुनिया की नजरों में उस समय वह निष्क्रिय बैठा नजर आता है, परंतु वास्तव में ऐसा होता नहीं। जब आप भीड़ से दूर अकेले में एकांत में होते हैं तभी आपकी सार्थक विचार प्रक्रिया जोर पकड़ती है। लेखक को नई रचना के, संगीतकार को नई धुन के, कवि को नई कविता के, वैज्ञानिक को नए अविष्कार के विचार भीड़ में नहीं एकांत में शांत चित्त से कुछ न करते हुए बैठे रहने के दौरान आते हैं।

आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए खाली समय में ही आत्मा का ईश्वर से साक्षात्कार का समय हो सकता है। जिस चीज को मन के भीतर तलाशना है वह भीड़ में या शोरगुल में या किसी गतिविधि के दौरान कुछ न कुछ करते हुए संभव नहीं हो पाता।

कुछ न करने के क्षण ही इस व्यस्त जीवन में अवकाश के क्षण होते हैं। ध्यान करने की महत्ता हम सब समझते हैं परंतु ध्यान में क्या कुछ करते हुए उतरा जा सकता है। ध्यान के लिए एकांत रचने की आवश्यकता होती है। एकांत रखकर ही हम अपने भीतर उतर पाते हैं और भीतर उतरकर ही हम अपने जीवन को बेहतर बनाने के बारे में सोच सकते हैं। हम दिन भर किसी ने किसी के लिए कुछ कुछ ना कुछ करते रहते हैं पर इस सब मे हम हमारे लिए कब कितना समय निकाल पाते हैं। स्वयं के लिए समय निकालने के क्षण वही होते हैं जब हम कुछ नहीं कर रहे होते हैं।

कुछ न कुछ करने या खाली बैठने के क्षण हमें बेचैन करने लगते हैं क्योंकि हम मशीन की तरह दौड़ते रहने के आदी हो गए हैं। विरोधाभास यह है कि इस सब के साथ ही हम अपने लिए या अपनों के लिए समय ही न निकाल पाने की शिकायत करते हैं। हम भूल जाते हैं कि विश्राम या ठहराव भी उतना ही आवश्यक है।

यदि बहुत कुछ करते हुए आप संतुष्ट या सुखी अनुभव नहीं कर पाए हैं तो कुछ समय कुछ न करते हुए गुजारिए। कुछ न करने का भी एक सुख होता है जिससे प्रायः हम वंचित रह जाते हैं।

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राघवेंद्र दुबे,इंदौर 

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