साहब की बीवी की शॉपिंग और मातहत के पर्स की औकात!

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साहब की बीवी की शॉपिंग और मातहत के पर्स की औकात!

 

मुकेश नेमा

बडा साहब जब भी वो किसी शहर के दौरे पर होता है वहाँ का हर बाजार सज जाता है। दुकानें जगमगा उठती है। डिस्काउंट ,सेल वाले सभी बैनर नोंच कर फेंक दिये जाते हैं।बडा साहब किसी शहर के दौरे पर आने पर बाजार नही जाता ,उसे बाजार जाना होता है इसलिये वो शहर का दौरा करता है।बडा साहब ,जानता है कि उसके जाने से बाजार उठ खडा होगा। बाजार उठेगा तो देश दौड़ेगा। उसे किसी चीज की जरूरत होती नही ,पर उसे देशहित मे बाजार जाना ही होता है। चूंकि इतना बडा काम वह अकेले कर नही सकता इसलिये उसकी बीबी इस काम मे उसकी मदद करती है।

 

सच्चा साहब शॉपिंग करते वक्त ,खासकर जब बीबी साथ हो ,बिना किसी मातहत के बाजार मे कदम नही रखता ,एकाध मातहत साथ होता ही है इस मौके पर। एक से ज्यादा भी हो सकते है वो। मातहत दिल मे संस्पैंस और भरा पर्स लिये साथ होता है। दिल इस बात को लेकर धडकता है कि मैडम कहीं कुछ ऐसा वैसा ना कर बैठे जो उसके पर्स की औकात से बाहर हो।दिल भले कुछ तेज धडके पर दूरंदेश मातहत जानते है कि मंदिर मे पत्र पुष्प चढाने जैसा मंगलकारी अवसर है ये।वह जानते है इस पुण्य कार्य से उसे साहब के सामीप्य ,प्रमोशन और बेहतरीन पोस्टिंग की प्राप्ति हो सकती है।

 

साहब के पहुँचते ही दुकान मालिक अचानक चली आई इस दिवाली को झुक झुक कर नमस्ते करता है।ऊँघते सैल्समैन चैतन्य हो जाते हैं।शॉप की पूरी लाईट्स ऑन कर दी जाती है और पूरी दुकान मैडम के कदमो मे लोट लोट जाती है।इस मौके पर मातहत को उतना ही खुश होकर दिखाना होता है जैसा वो घर मे पहला लडका पैदा होने पर हुआ था।उसे मैडम की एलीट पसंद की तारीफ करनी होती है। साहब की सहृदयता और काबिलियत के कसीदे काढना होते हैं और सैल्समेन को यह बताना होता है कि जो भी नया कलेक्शन हो वो दिखाने मे चूक ना करे।

 

साहब की बीबी युद्धस्तर पर ख़रीदती है ,वो यह सोचकर ख़रीदती है कि वो कश्मीर मे है और कल से कर्फ़्यू लगने वाला है। जो भी चीज दिख जाए वो खरीद ली जाती है।चीजें दौड दौड कर मैडम के शॉपिंग बैग मे उसी तरह घुसती है जैसे पुलिस के लाठी चार्ज करने पर पब्लिक किसी के भी घर मे धडधडा कर घुस पड़ती है। बैगों का तादाद बेरोजगार लड़कों की भीड़ की तरह बढ़ती है और जिस मातहत पर बिल चुकाने का नैतिक दायित्व हो वो कुँआरी लड़की के बाप की तरह असहाय हो जाता है।

 

मेम साहब की ख़रीददारी के वक्त अमूमन साहब के पास करने को कुछ खास नही होता ,ऐसे मे वो मातहतो के चेहरे पढ़ता रहता है।बिल चुकाने की ज़िम्मेदारी वाले मातहत पर खास नज़र होती है उसकी। वो यह देखता है कि सामने वाला कसमसा तो नही रहा। शातिर क़िस्म के मातहत ऐसी गलती करने से बचते है। वो अपना मन नही पढने देते साहब को और साहब इतने भर से राजी हो जाता है। मातहत बिल चुकाये यह उसका ऐसा कर्तव्य होता है जिसे निभाते वक्त उसे गदगद होकर भी दिखाना होता है। रही बात साहब की तो यह तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार होता ही है।

 

इस जंग मे शामिल मातहतो की हैसियत पैदल सेना से ज्यादा कुछ नही होती। आगे होकर लड़ना और सबसे पहले मर जाना उनकी किस्मत मे लिखा ही होता है। जो इस सच को जानते है वो पूरे वक्त चेहरे पर खुशी बनाये रखते है ! वो चाहते है कि इसके एवज़ मे उन्हे शहीद का दर्जा और इज्जत हासिल हो।आमतौर पर बिल चुकाने वाले मातहत की यह इच्छा पूरी हो नही पाती। साहब की खराब याददाश्त के अलावा और भी वजह होती है इसकी। साहब की शॉपिग के भारी थैले उठाने के लिये ऐसे मातहतो की क़तार बहुत लंबी होती है।ना मातहतो की कमी होती है ना बाज़ारों की।ऐसे मे साहब किस किसको और क्यो याद रखे ?

 

यदि इस ब्योरे को पढकर यदि आप इस नतीजे पर पहुँचे है कि सभी साहब अनुदार और कृपण होते है तो आप गलत हैं। बहुत से साहब ऐसे मौक़ों पर थोडा बहुत मुस्कुराते ,मातहत की पीठ थपथपाते और उसके बच्चो का हाल-चाल भी पूछते देखे गये हैं। वैसे ऐसी अनहोनी कम ही होती है पर ऐसा जब भी होता है मातहत के पर्स के वैंटीलेटर पर जाने की नौबत आ खड़ी होती है।

सरकारी नौकरी मे बस दो ही जातियाँ होती है लोगो की।पहली साहब की जो शॉपिंग करता है दूसरी मातहत की जो शाॉपिग करवाता है।अब ये आपके पिछले जन्म की करनी पर है कि आप किस जाति मे पैदा हुए हैं या पैदा हो सकते हैं।