आम लोगों की तरह मैं भी यही समझता था कि अफ़सरी (Officer) में रूतबे के अलावा जिन दो बातों का ठाठ होता है, वे हैं बँगला और गाड़ी, यानी सरकारी अफ़सर को ये दोनों चीजें आसानी से मयस्सर हो जाती हैं, पर जब मैं नौकरी में लगा, तो ये धारणा जल्द ही खण्डित हो गयी।
परिवीक्षा काल के दौरान जब राजनांदगाँव ज़िले में मुझे डोंगरगढ़ अनुविभाग का एस.डी.ओ. (राजस्व) बनाया गया तो पदभार सम्भालने के साथ ही डोंगरगढ़ पहुँचने के बाद सबसे पहले मैंने यही सवाल किया कि गाड़ी कहाँ है? तब डोंगरगढ़ के तहसीलदार श्री कतरोलिया ने मासूमियत से कहा कि “साहब ये तो नया सब-डिवीजन है, यहाँ गाड़ी वाड़ी कहाँ? वो तो बी.पी.एस. नेताम साहब खैरागढ़ के साथ यहाँ का अतिरिक्त चार्ज सम्भाल रहे थे, सो खैरागढ़ की जीप से ही आना जाना करते थे, मेरे पास भी निजी मोटर सायकल ही है।”
दरअसल डोंगरगढ़ अनुविभाग राजनांदगाँव के सांसद श्री शिवेंद्र बहादुर के कारण से बना दिया गया था, जो खैरागढ़ अनुविभाग के अंतर्गत इसे रखे जाने के ख़िलाफ़ थे। उनकी तथा उनकी भाभी श्रीमती रश्मि देवी सिंह के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंदता रहती थी जो खैरागढ़ से विधायिका थीं। मैं इस नवगठित अनुविभाग का दूसरा एस.डी.एम. था। मैंने अपने मन को समझाया फिर पूछा बँगला कहाँ है?
तहसीलदार साहब ने फ़रमाया कि बँगला तो यहाँ तहसीलदार अकेले का है, अलबत्ता एक जी टाइप का नया मकान ख़ाली है चाहो तो आप वहाँ रह सकते हो। ये मकान तहसील ऑफ़िस के सामने ही था, सो मैंने उसमें अपना बसेरा किया और ऑफ़िस पैदल ही आना जाना शुरू कर दिया।
जब दौरे पर जाना होता तो जिस किसी तहसीलदार अथवा नायब तहसीलदार का क्षेत्र होता उससे लिफ़्ट ले लिया करता। कुछ दिनों बाद मैंने खोज बीन कर यह जानकारी निकाली कि विकास खण्ड कार्यालय में विकास खण्ड अधिकारी के पास जो मोटर साइकिल है, वो सरकारी है। मैंने बी.डी.ओ. साहब से अनुरोध किया और ग्रामीण क्षेत्र के दौरे पर मैं विकास खण्ड की मोटर सायकल का इस्तेमाल करने लगा।
एक बार ज़िला मुख्यालय राजनांदगाँव में राजस्व अधिकारियों की बैठक होनी थी। यूँ तो राजनांदगाँव जाने के लिए मैं ट्रेन का इस्तेमाल करता था, क्योंकि डोंगरगढ़ और राजनांदगाँव के बीच ट्रेन की सुविधा अच्छी थी, लेकिन अब तो मोटर सायकल मुहैया हो चुकी थी तो जवानी के जोश में इसकी एडवेंचरस राइड के शौक़ के कारण मैंने सोचा कि क्यों ना इस बार मोटर साइकल से ही चला जाय । डोंगरगढ़ से राजनांदगाँव की दूरी पैंतीस किलोमीटर थी, जो मोटरसायकल के सफ़र के लिए मुफ़ीद थी।
मैंने बी.डी.ओ. साहब से मोटर सायकल ली और निर्धारित तिथि पर सुबह मीटिंग के लिए रवाना हो गया। तुमड़ीबोड़ के आगे जब हाई वे पर मोटरसाइकल पहुँची तो अचानक लगा जैसे पहियों को ब्रेक ने जकड़ लिया है। मैं कुछ समझ पाता इसके पहले ही मोटर सायकल के साथ साथ मैं भी घिसट कर सड़क किनारे गिर पड़ा। जैसे तैसे उठा और गाड़ी उठाई तो स्टार्ट ही नहीं हुई।
तब मैं मोटर सायकल को चलाने के अलावा उसके बारे में और कुछ नहीं जानता था, सो वहीं सड़क किनारे मोटर सायकल खड़ी की और रास्ते में गुज़रने वाले किसी वाहन से लिफ़्ट लेकर ज़िला मुख्यालय पहुँचा। चिंता ये थी कि मीटिंग में देर हो रही थी। जब पहुँचा तो मीटिंग शुरू हो चुकी थी, मैं चुपचाप जाकर ख़ाली सीट पर बैठ गया, जब मेरा नम्बर आया और मैंने जानकारी देनी शुरू की तो कलेक्टर की नज़र मेरे हुलिये पर पड़ी।
फटी हुई बाँहें, धूल लगी क़मीज़ और चेहरे पर खरोंच के निशान। कलेक्टर श्री हर्ष मंदर थे, उन्होंने पूछा, ये क्या हुआ? मैंने बताया कि मोटरसायकल फिसलने से ये हाल हुआ है। उन्होंने मेरा हुलिया गौर से देखा और फिर बोले तो अस्पताल जाते, यहाँ क्यों आ गए? मैंने मासूमियत से जवाब दिया, सर मीटिंग के लिए देर हो रही थी इसलिए सीधा आ गया।
उन्होंने ए.डी.एम. मिश्रा साहब की ओर देखा और कहा कि इनसे तहसील की जानकारी ले लो और इसे अस्पताल भिजवाओ । मिश्रा जी मुझ पर ज़्यादा ही स्नेह रखते थे, वे तुरंत उठे और मुझे खुद अस्पताल ले आए, संयोग से हड्डी-वड्डी सलामत थी बस बाहों और शरीर के कुछ भाग में मामूली खरोंचे थी। मरहम पट्टी कराकर मुझे उन्होंने अपनी जीप से डोंगरगढ़ रवाना किया और बी.डी.ओ. साहब को मोटरसायकल उठवा कर ठीक कराने के निर्देश दिये।
बाद में पता चला कि मोटर साइकल की चेन टूट जाने से वो जाम हो गयी थी, और इस कारण ही वो दुर्घटना हुई थी। इसके बाद में बल्कि बहुत बाद में जब तेंदू पत्ता का सीजन प्रारम्भ हुआ और सरकार ने पहली बार ये निश्चय किया की तेंदूपत्ता संग्रहण सरकार खुद करेगी ठेकेदार नहीं, तब पहली बार अनुविभाग में इस व्यवस्था के प्रबंध के लिए किराये की जीप आयी और पहली बार उसी जीप से मैंने चार पहिया वाहन चलाना सीखा और इस प्रकार गाड़ी का सपना पूरा हुआ।