खंडवा के एक थाने से शुरू हुई थी, लॉकअप में कपड़े उतरवाने की परम्परा!

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वरिष्ठ पत्रकार जय नागड़ा की ख़ास रिपोर्ट

सीधी में पत्रकारों और कुछ रंगकर्मियों को अर्धनिर्वस्त्र कर प्रताड़ित करने की घटना पर पूरे देश का ध्यान गया। देश के कई पत्रकार संगठनों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सोशल मीडिया पर भी यह नई बहस का विषय बन गया। कुछ लोग जहाँ पुलिस के इस तरह के बर्ताव की निंदा कर रहे हैं, तो पत्रकारों की कार्यशैली पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन, एक बड़ा सवाल यह है कि क्या यह मध्यप्रदेश की पुलिस की कार्यशैली का पहला नमूना है! प्रदेश में कई थानों में किसी आरोपी को हवालात में लाते ही उसे करीब-करीब निर्वस्त्र करने की यह परंपरा दो दशक से ज्यादा पुरानी है। माना जाता है कि यह परंपरा खंडवा पुलिस ने शुरू की थी, जिसे धीरे -धीरे प्रदेश के अन्य थानों में भी अपना लिया गया। प्रदेश के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के संज्ञान में भी यह बात है। लेकिन, कभी किसी को इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। हैरानी की बात यह है कि मानवाधिकार की दुहाई देकर यहाँ मानवाधिकारों का खुला हनन हो रहा है।

मैंने करीब 12 साल पहले खंडवा के थानों में बंदियों को लॉकअप में निर्वस्त्र करने की इस अमानवीय यंत्रणा पर एक विस्तृत रिपोर्ट की थी। पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर मानवाधिकार आयोग तक यह ख़बर पहुंची। लेकिन, किसी के कानो पर जूं तक नहीं रेंगी। यह परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है। बल्कि मुझे सीधी की इस घटना के बाद पता चला कि इस मामले में खंडवा का मोघट थाना पुलिस के लिए रोल मॉडल बन गया। जहाँ की कार्य संस्कृति (?) अन्य जिलों में भी अपना ली गई है। कल जब सीधी की यह घटना सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आई, तभी मुझे पक्का विश्वास था कि इस मामले में पुलिस का यही बयान सामने आएगा कि ‘सुरक्षा कारणों से हमने उनके वस्त्र उतरवाए और सिर्फ अधोवस्त्रो में रखा।’ वही हुआ जब सीधी के उस सम्बंधित थाने के थाना प्रभारी मनोज सोनी ने यही कहा। बाद में रीवा के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक ने भी उसी बात को दोहराया और पुलिस की कार्रवाई को सही ठहराया।

हालांकि, पूरे देश में पुलिस और सरकार की भद पिटते देख सम्बंधित थाना प्रभारी को तत्काल प्रभाव से लाइन अटैच कर दिया गया। लेकिन, क्या इस पर कभी जांच होगी कि बंदियों की सुरक्षा की यह परंपरा उस थाने में किसने शुरू की और कब से यह जारी है! सवाल सिर्फ पत्रकारों या किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के साथ पुलिस के ऐसे बर्ताव का नहीं है, क्या आम आदमी के साथ भी पुलिस का यह बर्ताव उचित ठहराया जा सकता है।

थानों में निर्वस्त्र करने की परंपरा का खंडवा मॉडल
अब ज़रा समझ लीजिये कि इस अमानवीय परम्परा की शुरुआत खंडवा से कैसे हुई! दरअसल, खंडवा वर्ष 1998 में मोघट थाने में किशन बसोड़ नाम के एक व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी। महज पारिवारिक विवाद में पुलिस उसे शराब के नशे में घर से उठाकर लाई थी और दो-तीन घंटे बाद ही उसकी मौत की खबर आई। परिजनों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने किशन के साथ बेरहमी से मारपीट की, जिससे उसकी मौत हुई। जबकि, पुलिस ने अपने बचाव में कहा कि लॉकअप में किशन ने अपने कपड़ों का फंदा बनाकर दरवाजे से लटककर आत्महत्या कर ली।

इस मामले को लेकर तत्कालीन हरसूद विधायक विजय शाह (अब प्रदेश के वन मंत्री) ने जब दूसरे दिन खंडवा की सड़कों पर बड़ा आंदोलन किया तो उनकी पुलिस ने उनकी भी बर्बरता से लाठियों से पिटाई कर दी। विधायक के विशेषाधिकार हनन का यह मामला तब विधानसभा में खासा सुर्खियों में रहा। बस इस घटना के बाद इस मोघट थाने में यह परंपरा बन गई कि किसी भी आरोपी को थाने में लाते ही सबसे पहले उसके वस्त्र उतरवाकर सिर्फ अंडरवियर में रखा जाता है। चाहे मौसम सर्द हो या गर्मियों का। सबसे ज्यादा दिक्कत तो इन थानों में तैनात महिला पुलिसकर्मियों की होती है, जो अपने आसपास ऐसी अवस्था में घूमते पुरुषों को देखकर असहज़ स्थिति में होती है। लेकिन, पुलिस के लिए तो सुरक्षा सर्वोपरि है। बहरहाल, इस व्यवस्था के बाद क्या पुलिस अभिरक्षा में कैदियों की मौतों का सिलसिला थम गया! क्या इस बात का कोई अध्ययन है कि प्रदेश में पुलिस कस्टडी में होने वाली मौतों में कितनी मौतें इस तरह की आत्महत्या से हुई है!

जेलों में नहीं है विचाराधीन कैदियों के पहनावे पर कोई बंदिशें
अब ज़रा हमारी जेलों में बंदियों की स्थिति भी देख लीजिए जहाँ विचाराधीन कैदियों के पहनावे को लेकर कोई बंदिश नहीं है। यहाँ आप किसी कैदी को ब्रांडेड जीन्स -टी शर्ट या महंगे स्पोर्ट्स शूज़ में देख सकते है। यहाँ उनकी सुरक्षा को कोई ख़तरा नहीं है। जेल में ड्रेस कोड सिर्फ सजायाफ्ता कैदियों के लिए होता है, विचाराधीन बंदियों के लिये नहीं। ज़ाहिर है हमारी न्याय व्यवस्था भी किसी के जुर्म साबित न होने तक उसे अपराधी नहीं मानती। इसलिए उसके साथ अपराधियों की तरह बर्ताव भी नहीं होता। लेकिन, पुलिस तो आरोपी को न्यायालय में पेश करने के पहले ही सज़ा देना शुरू कर देती है, उसका क्या? सीधी के इस मामले के बाद चाहिए कि पूरे प्रदेश में इस स्थिति की समीक्षा हो और न्यायालय से पहले किसी को सजा देने का अधिकार न पुलिस के पास रहे न प्रशासन के पास। मानवाधिकार आयोग को अभी स्पष्ट करना होगा कि उसकी हैसियत कुछ करने की है भी या नहीं! नख-दंत विहीन इस आयोग का पुलिस ने तो मखौल ही बना दिया है।