परदे के आदिवासी यानी नाचते-गाते जंगल!वासी!

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परदे के आदिवासी यानी नाचते-गाते जंगल!वासी!

– अशोक जोशी

मणिपुर में मैतेई आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग के विरोध में आयोजित आदिवासी एकता मार्च के दौरान भड़की हिंसा ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया है। अक्सर ऐसा ही होता है जब कहीं कोई खास घटना घटती है, चुनाव आते हैं या हादसा होता है तब ही आदिवासियों पर सरकार और समाज का ध्यान जाता है! वरना पूरे समय यह समाज हाशिए पर ही रहता है। समाज ही नही फिल्मों में भी आदिवासी समाज का चित्रण बहुत सामान्य या अटपटे तरीके से होता आया है। इनके जीवन और सामाजिक व्यवस्था पर फिल्म बनाने के कोई खास प्रभावी प्रयास नहीं किए गए।

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फिल्म जगत में हर साल करीब डेढ हजार फिल्में बनती हैं। ये अलग भाषाओं और विभिन्न राज्यों में बनती हैं, लेकिन इनमें आदिवासियों को या उनके जीवन और संघर्षों को न के बराबर जगह मिलती है। आदिवासी समाज को देखने के मुख्य रूप से दो दृष्टिकोण हैं। एक तो यह कि आदिवासी लोग जंगली, बर्बर होते हैं या नक्सली या अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े होते है।

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लेकिन, इनके असली जीवन पर फिल्में कम ही बनी। इस पृष्ठभूमि में जब फिल्मों में आदिवासी पर नजर डालें, तो सबसे पहले हिंदी फिल्म के आदिपुरुष धुंडीराज गोविंद फाल्के पर दृष्टि जाती है, जो दादा साहेब फाल्के नाम से मशहूर थे। उनकी ‘बुद्धदेव’ और ‘सत्यवान सावित्री’ को छोड़कर सारी फिल्मों में आदिवासियों को भयानक राक्षसों के रूप में चित्रित करते हुए उनके सर्वनाश को सबसे बड़ा धर्म बताया गया। इसके बाद इसी दृष्टि से बहुत सारी फिल्में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में बनीं।
फिल्मों में आदिवासी समाज के जिस दूसरे रूप को परदे पर उतारा गया है। उसमें यह दिखाया जाता है, कि घने जंगलों के बीच बसा आदिवासी समाज मस्ती के साथ नाचता-गाता रहता है। फिल्मों में इस तरह के सारे दृश्य लगभग एक से होते हैं। नायक और नायिका रोमांस करते करते जंगल में आदिवासी समाज के बीच पहुंच जाते है, वहां एक सरदार होता है। जंगल के देवता की एक बडी सी प्रतिमा होती है। एक झोपडी होती है जिसमें नायक या नायिका अपने वास्तविक परिधान पहनकर घुसते है, लेकिन जब निकलते हैं, तो वह आदिवासी वेशभूषा से लकदक होते है। इतना ही नहीं, वे झोपडी से बाहर निकलते ही प्यार भरा गीत गाने लगते है। इनके पार्श्व में भाले जैसा हथियार लिए आदिवासी पुरूष और देह प्रदर्शित करती लिपिस्टिक से सजी-संवरी आदिवासी युवतियां अजीबो-गरीब भाषा में हो हो या हू हू करते राग अलापते रहते हैं।

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कुछ फिल्में ऐसी होती है जिनमें नायक और नायिका को आदिवासी पकड़कर ले जाते है। उन्हें बलि के लिए तैयार किया जाता है। उनके सामने भी एक भयावह सी प्रतिमा होती है। यह आदिवासी भी उलजलूल भाषा में वार्तालाप करते है। तभी कुछ चमत्कार होता है और सभी आदिवासी नायक नायिका के समक्ष नतमस्तक होकर अभिवादन करने लगते हैं और उन्हें देवता मानने लगते है। यहां भी दृष्य बदलते ही नाच गाना शुरू हो जाता है। कहीं आदिवासी शालिमार की तरह झिंगालाला हो गाते हैं तो कहीं शोले की तर्ज पर हू हू हू करने लगते है । कहीं भी वास्तविकता के दर्शन नहीं होते।

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सिनेमा के शैशवकाल में महबूब के निर्देशन में 1942 में फिल्म ‘रोटी’ बनी थी। उस फिल्म के नायक शेख मुख्त्यार देखने में आदिवासी ही लगते थे। इस फिल्म में दर्शकों को लुभाने के लिए आदिवासियों के नाम पर अर्द्धनग्न मुद्रा में कुछ नाच-गानों को फिल्माया गया। हालांकि यह फिल्म पूंजीवादी शोषण का विरोध करती थी। बिमल रॉय की फिल्म ‘मधुमती’ बहुत अच्छी है, लेकिन उसमें भी आदिवासी के प्रति वही रोमांटिक रवैया है। आदिवासी नृत्यों को पर्दे पर लाने वाली अन्य फिल्मों में नागिन, विलेज गर्ल, अलबेला, इज्जत, दुपट्टा, श्रीमतीजी, यह गुलिस्तां हमारा, टार्जन और जादुई चिराग, दिलरुबा, टावर हाउस और ‘शिकार’ आदि हैं। हिंदी फिल्मों के सौ साल पूरे होने के बाद भी आदिवासी समाज के प्रति फिल्मकारों का नजरिया नहीं बदला।
हिंदी फिल्मों में आदिवासी जीवन की इस कदर मिलने वाली सतही, गैरजिम्मेदाराना, अनुभव और यथार्थ से दूर की जाने वाली अभिव्यक्तियों के बावजूद हमें कुछ फिल्में आकर्षित, प्रभावित और आंदोलित करने में आदिवासी विषयों को संवेदनशीलता से फिल्माने वाली ‘मृगया’ में निर्देशक मृणाल सेन ने दिखाने का प्रयास किया है कि वास्तविक शिकारी धूर्त साहूकार है। लेकिन, जिस तरह भारतीय सामाजिक संरचना रही है, उसमें आदिवासी का शोषण उनकी नियति बन गई। यह सब तभी है, जब आदिवासी चेतनाशील न हो जाएं। महाश्वेता देवी की कृति ‘हजार चौरासी की मां’ को आधार बना कर गोविंद निहलानी ने इसी नाम से फिल्म बनाई। यह क्रांति को बलपूर्वक कुचले जाने की सत्ता की पाशविक रणनीति के परिणाम का साक्षात दर्शन कराती है। निहलानी की प्रसिद्ध फिल्म ‘आक्रोश’ में भी ओम पुरी के लाहन्या भीखू के किरदार में काफी प्रशंसा हुई थी। आदिवासियो को क्रूर नक्सलवादी तो अक्सर बताया जाता रहा है। लेकिन, उनके देश प्रेम की चर्चा कम ही हुई।

जबकि, हकीकत यह है कि अंग्रेजो के खिलाफ जंग में आदिवासी क्रांतिकारियों का योगदान किसी से कम नहीं है।
राकेश रोशन ने भी आदिवासी को भुनाने के लिए ‘जाग उठा इंसान’ और ‘कोयला’ जैसी मसाला फिल्मों का निर्माण किया। लेकिन, बात बन नहीं पाई! ‘जंगल ब्यूटी’ और ‘जंगल गर्ल’ जैसी फिल्मों में तो दर्शकों की लार टपकाने का प्रबंध करने के अलावा और कुछ नहीं किया गया। जब सिनेमा को यह गलतफहमी हुई कि वह परिपक्व हो गया है, उसमें समाज को ज्ञान देने की समझ विकसित हो गई है, तब सिनेजगत में आदिवासियो की पृष्ठभूमि पर कुछ फ़िल्में बनी। इन फिल्मों में आदिवासियों के जीवन के बजाए आदिवासियों को नक्सलवाद और आतंकवाद से जोड़कर देखा जा रहा है।

फिल्म ‘टेंगो चार्ली’ में भारतीय सेना का एक बड़ा ऑपरेशन फिल्माया गया। इसमें आदिवासियों के हत्यारों को देशभक्तों के रूप में सामने लाने का प्रयास किया गया है। ‘रेड अलर्ट, फिल्म भी नक्सलवाद के आसपास ही सीमित थी। द नक्सलाइट, लाल सलाम, हजारों ख्वाहिशें ऐसी और ‘चक्रव्यूह’ जैसी फिल्में आई, जो नक्सलवाद पर केंद्रित हैं। उनके संगठन, भर्ती, अनुशासन, नेतृत्व, रणनीति, पुलिस के साथ मुठभेड़, मुखबिरी, महिला कैडर की उपस्थिति, प्रेम संबंध वगैरह को चित्रित किया गया है। इनमें शोषण का तत्त्व आता है, जिसका आदिवासी समाज के शोषण की विशिष्टताओं के साथ कम ही मेल खाता दिखाई देता है। हाल ही में ‘बाहुबली’ में भी विचित्र आदिवासी समूह को दिखाया गया, जो क्या बोलता है न तो दर्शक समझता है और न खुद बोलने वाला। पिछले साल की सफलतम फिल्मों से एक ‘कांतारा’ में भी आदिवासी जीवन को परदे पर उतारा गया। लेकिन, आज ऐसा समाज दूरबीन लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलता है।