देश-दुनिया के दिल में बसे यह हलमा प्रथा…

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देश-दुनिया के दिल में बसे यह हलमा प्रथा…

जब 26 फरवरी 2022 को सुबह-सुबह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैलीकॉप्टर से अपने कंधे पर गैंती रखकर उतरे, तब समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है? मुख्यमंत्री किसान पुत्र हैं तो क्या अब प्रदेश के किसान इस कदर मालामाल होने वाले हैं कि हैलीकॉप्टर से जाकर गैंती फावड़े जैसे कृषि उपकरण कंधे पर रखकर बलराम बनकर उतरेंगे और अपना काम कर वापस हैलीकॉप्टर में बैठकर रवाना हो जाएंगे। खैर दिन में अपने काम में व्यस्त रहा, पर शाम को शिवराज के इस नए स्टाइल का जवाब मिल गया। जवाब पाकर मैं खुद भी हलमा परंपरा का मुरीद हो गया। और मुझे ऐसा लगा कि आदिवासियों की कितनी समृद्ध परंपरा थी, जिससे शहरों के कथित सभ्य समाज को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। हालांकि शहरी धनाढ्य और संपन्न वर्ग कुछ सीखेगा, इसकी उम्मीद न के बराबर ही नजर आती है। सुबह शिवराज का हैलीकॉप्टर से गैंती लेकर उतरना फिल्मी दृश्य लग रहा था, पर शाम तक जब जिस हलमा उत्सव में शामिल होने झाबुआ शिवराज पहुंचे थे…उसका मतलब समझने पर शिवराज की वह फिल्मी स्टाइल रास आ गई।
और जैसा कि शिवराज ने उत्सव में अपने उद्गार व्यक्त किए कि हलमा परंपरा को पूरे प्रदेश में लेकर जाएंगे, यह सोच भी बहुत प्रभावी है। और यदि मध्यप्रदेश, देश और दुनिया के हर इंसान की भावना हलमा परंपरा को चरितार्थ करने की हो गई तो शायद दुनिया में कोई समस्या शेष नहीं बचेगी और सभी जगह बिखरा दिखेगा समाधान, समाधान और समाधान। जैसा कि शिवराज ने भी भरोसा जताया है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या का समाधान भी हलमा परंपरा से हो जाएगा, यदि हर नागरिक इसे अपनाकर पारस्परिक सहयोग कर पर्यावरण की रक्षा का संकल्प ले सके।
तो पहले हम यह जान लें कि हलमा परंपरा आखिर है क्या? हलमा भील समाज में एक पारस्परिक मदद की परंपरा है। जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने संपूर्ण प्रयासों के बाद भी अपने पर आए संकट से उबर नहीं पाता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण भाई-बंधु जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयत्नों से उसे मुश्किल से बाहर ले आते हैं। यह एक ऐसी गहरी और उदार परंपरा है जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता तो की जाती है पर दोनों ही पक्षों द्वारा किसी भी तरह का अहसान न तो जताया जाता है न ही माना जाता है। परस्पर नि:स्वार्थ सहयोग और मदद की यह परंपरा दर्शाती है कि समाज में एक दूसरे को मजबूत करने का आदर्श रूप यही परंपरा है। किसी को भी मझधार में अकेले नहीं छोड़ा जाता है बल्कि उसे समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का सामाजिक सहभागिता का उत्कृष्ट नमूना यह परंपरा है। सन 2005 में हलमा परंपरा को एक गैर सरकारी संगठन ‘शिवगंगा’ ने शुरू किया। महेश शर्मा और हर्ष चौहान की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी। महेश शर्मा को भारत सरकार द्वारा उनके कार्यों के लिए 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। आज वो भील जनजातियों के बीच झाबुआ के गांधी बन चुके हैं। शिवगंगा और जनजाति समाज के मनोबल को उनकी जरूरतों ने फिर से साहस दिया। यही कारण था कि जल संकट के मुसीबत में फंस चुका झाबुआ आज जल और जंगल दोनों में समृद्ध हो रहा है। हलमा को बड़े पैमाने पर 2008 में व्यवहारिक रूप दिया गया। इस वर्ष पूरे झाबुआ क्षेत्र में इस संस्कृति को जीवित करने के लिए चैती यात्रा निकालकर लोगों को अपने इतिहास के सामर्थ्य को याद दिलाया गया। और अब यह उत्सव हर साल मनाया जाता है। नई-नई समस्याओं का समाधान चुटकी में हो जाता है। इस परंपरा के महत्व के कारण ही 24 अप्रैल 2022 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात में इसका जिक्र किया। हलमा ने झाबुआ जिले के बड़े हिस्से में जल संकट को कम करने में बड़ी भूमिका निभाई है।जल संग्रह के लिए साढ़ गांव में हलमा द्वारा बनाया गया 72 करोड़ लीटर क्षमता का तालाब अकल्पनीय है और बिना सरकारी मदद के कैसे समस्याओं के समाधान के लिए स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बना जा सकता है, इसका जीता जागता उदाहरण है। हलमा में जल संरक्षण के लिए पहाड़ पर छोटे छोटे गढ्ढे बनाने हों या तालाब, कुआं खोदना हो, किसी की फसल काटनी हो, भील जनजाति के लोग संगठन को शक्ति बनाकर हर संकट का हल कर लेते हैं हलमा परंपरा से। और शिवराज ने भी गैंती से गड्ढा खोदकर खुद को हलमा परंपरा से सीधा जोड़कर जो हौसला अफजाई की गई, वह प्रेरणास्पद है।
हलमा के लोक कल्याणकारी बनने की कहानी सिर्फ इतनी सी है कि अगर हलमा जैसी सुपरंपरा किसी व्यक्ति के संकट दूर करने के लिए हो सकती है तो गांवों के लिए क्यों नहीं? और अब फिर यही सवाल है कि जब हलमा जैसी सुपरंपरा भील जनजाति के लोगों की हर समस्या का समाधान बन सकती है, तो फिर इससे प्रदेश, देश और दुनिया की सभी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो सकता? आखिर भील जनजाति के लोग इंसान हैं, उनमें इंसानियत का भाव है तो शहरों में आर्थिक रूप से समृद्ध लोग अपनी क्षमता के अनुरूप आर्थिक सहयोग का एक मॉडल तैयार कर भी तो बड़ी से बड़ी समस्याओं का चुटकी में समाधान कर ही सकते हैं। और अगर परिवर्तित स्वरूप में भी पारस्परिक सहयोग की हलमा प्रथा को हर नागरिक ने दिल में बसा लिया, तब किसी भी तरह की समस्या सुरसा बनकर समाज को निगलने का दुस्साहस नहीं कर पाएगी।