Three of Us: एक स्त्री कीअतीतयात्रा के विभिन्न पड़ाव :
थ्रीऑफ़ अस
अंजू शर्मा
स्मृतियाँ वह क्षितिज है जहाँ अतीत और वर्तमान एकाकार हो जाते हैं. स्मृतिलोप की ओर बढ़ रही एक स्त्री के पास एक तथाकथित सफल शादी है और प्रोफेशनली वह असफल शादियों के बीच फेमिली कोर्ट के तलाक विभाग में मेरिज काउंसलर की बोरियत भरी भूमिका निभाते हुए तटस्थ भाव से खुद को वहाँ खड़े महसूस करती है कि कहीं कोई अतीत का सिरा है जो पीछे छूट गया है. अपने अतीत के धुंधलाने का भय उसे उसी अतीत के पास ले जाता है जहाँ वह उसे पूरी तरह खो जाने से ठीक पहले एक बार टटोलना चाहती है, जीना चाहती है. पर इसके लिए उसे वहीँ लौटना होगा जहाँ से वह बिना कुछ कहे, सुने आगे बढ़ गई थी. कई बार आगे बढ़ना मात्र एक भ्रम साबित होता है क्योंकि भले ही केलेंडर में साल बदलते रहें, कलमों में चाँदी घुलती रहे, नज़र धुंधलाती रहे, चेहरों पर, देह पर वय की निशानियाँ बढ़ती रहे पर स्त्री के मन का एक हिस्सा सदा वहाँ ठिठका हुआ रहता है जहाँ उसका मन छूट जाता है. तब तक, जब तक कि कोई हाथ थामकर आगे न बढ़ा ले जाये. विडम्बना ये भी है कि स्त्रियाँ सदा अतीत को पीछे छोड़ देने के भारी दबाव के बीच उसे ढोती हैं और जब थककर निढाल हो जाती हैं तो उसे विसर्जित करने की बजाय एक लम्बी नींद सुला देती हैं.
यह बात पुरुष के संदर्भ में भी कही जा सकती है किंतु स्त्री से बड़ी अभिनेत्री इस सृष्टि ने अभी रची ही नहीं. एक साथ कई भूमिकाएँ निभाते हुए वह स्वयं के साथ भी यह अभिनय करने से कभी नहीं चूकती कि वह जहाँ है, बस वहीं है जबकि एक साथ भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के देहरियों पर पाँव जमाए हुए इन तीनों कालों में एक साथ जीवन जी लेने का हुनर बखूबी जानती है, ठीक फिल्म की नायिका शैलजा पाटनकर देसाई की तरह. क्योंकि मन न पर न तो देह की तरह कोई बंधन होता है, न ही मन ऐसे किसी बंधन को मानना चाहता है. यूँ भी नींद के साथ नींद टूटना भी एक पक्ष है.
नायिका शैलजा पाटनकर देसाई (शेफाली शाह) एक तरह से मिडलाइफ क्राइसिस से गुज़रते हुए डिमेंशिया के प्रारंभिक लक्षणों से जूझ रही है. स्मृति की डोर किसी रेशमी धागे की तरह उसके हाथों से दिनोंदिन फिसल रही है, जहाँ कभी वह पोहे में नमक डालना भूल जाती है तो कहीं भूल जाती है कि सहेली ने बताया था कि वह गाना सीख रही है.
अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी के बेहद छोटे-छोटे काम भी वह डायरी में लिखकर रखती है जिस पर टिक लगाते हुए उसका काम चल रहा है लेकिन इसके बावजूद उसके मस्तिष्क का वह हिस्सा आज भी जीवंत है जहाँ बचपन की स्मृतियाँ स्टोर हैं. यह दरअसल उस बात की ओर एक इशारा है कि हम जाने अनजाने जाने कितनी ही अवांछित स्मृतियों का कबाड़खाना बनाए रखते हैं अपने मस्तिष्क को, फिर एक दिन आता है जब वह इस कदर ठसाठस भर जाता है कि मेमरी फुल का संकेत हमें स्मृतिदोष के रूप में मिलने लगता है. आश्चर्य कि हम कल शाम सुनी बात तो भूल जाते हैं लेकिन वह बात नहीं भूल पाते जिसे पिछले दशक में किसी शाम अपनी डायरी में कोट किया था. शायद अतीत के उस क्षण को टिक करके सदा के लिए पीछे छोड़ देने के लिए उसका स्मृति में पूरी तरह लौटना उसके लिए जरूरी है.
शैलजा भी स्मृति के विचित्र खेल को समझते हुए ऑफिस से निवृति लेकर अपने पति दीपांकर देसाई (स्वानंद किरकिरे) से एक हफ्ते की छुट्टी लेने की बात कहते हुए अपनी एक इच्छा उससे साझा करती है. दरअसल शैलजा कोंकण के एक कस्बे वेंगुरला में जाना चाहती है जहाँ उसने छठी से आठवीं तक तीन साल पढ़ाई की थी. पति के साथ और सहमति से वह वहाँ पहुँच भी जाती है और वहाँ उसकी मुलाकात बचपन के साथी प्रदीप कामत (जयदीप अहलावत) से होती है. इसके साथ ही शुरू होती है उन तीनों की अतीत की पुरानी जगहों की वह रागात्मक यात्रा जो किसी सुंदर कविता से कम नहीं. जहाँ वे उन्हीं यादों को फिर से जीने की कोशिश करते हैं.
देखा जाए तो उन तीनों की यात्रा है थ्री ऑफ़ अस लेकिन यदि गौर किया जाए तो इस यात्रा के यात्री वे तीनों बल्कि शैलजा, प्रदीप और उनका अतीत है. अन्यथा ये यात्रा उन तीनों नहीं बल्कि चारों की कही जानी चाहिए क्योंकि इसमें जितना हिस्सा दीपांकर देसाई का है जो पत्नी का हमसफ़र, हमकदम है, उतना ही प्रदीप कामत की पत्नी सारिका कामत (कादंबरी कदम) का भी है जो हर पल की साझीदार है.
निर्देशक अविनाश अरुण बहुत ही खूबसूरती के साथ इस अतीत यात्रा को प्रस्तुत करते हैं. अपने बचपन को फिर से जी पाने की तलाश हम सबको होती है पर इतने भाग्यशाली बहुत कम लोग होते हैं. विशेषकर स्त्रियों को अपनी जड़ों से उखड़कर पुनः अपने कल में लौटने और छूट गए कल को जी पाने का मौका कहाँ मिलता है. इसी मायने में ये फिल्म विशिष्ट हो जाती है कि शैलजा लौटती है अपने कल में किन्तु अपने आज का हाथ थामे हुए लौटती है.
फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है अतीत की परतें खुलती महसूस होती हैं. हालाँकि यहाँ निर्देशक ने परम्परागत फ्लैशबैक पद्धति का सहारा अधिक नहीं लिया बल्कि कहानी की परतें या तो छोटी छोटी घटनाओं के माध्यम से खुलती हैं या पात्रों के संवादों के माध्यम से. प्रदीप और शैलजा दोनों ही के मन में कुछ अनकहा बाकी रहा आया है जिसके गुंजलक सुलझना शुरू होते हैं किन्तु बहुत ही सहजता के साथ. न तो कहानी में कुछ नाटकीय है और न घटनाक्रम में. पात्रों का उतना सहज बने रहना कुछ हद तक दर्शक के मन में ऊब पैदा कर सकता था लेकिन तभी साधारण सी कहानी में एक नई कहानी सामने आती है. और ऐसा एक से अधिक बार होता है भले ही तब कहानी ट्रेक से हटती प्रतीत होती है किन्तु ऐसा होना एकरसता का कुछ हद टूटना भी है. जैसे प्रदीप के पिता का ज़िक्र, उसके साथ बचपन में घटित किसी घटना का संक्षिप्त इशारा, या फिर शैलजा की छोटी बहन के साथ घटी दुर्घटना और एक बूढ़ी महिला के माध्यम से लगभग जादुई यथार्थ का फिल्म से क्षण भर को जुड़ाव.
हम आसानी से कह सकते हैं कि इन तमाम घटनाओं के बिना बिना भी फिल्म की कहानी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता जो कि मूलतः दो बिछड़े दोस्तों के पुनर्मिलन की मार्मिक दास्तान है किन्तु हम जानते हैं कि जीवन इतना एकरेखीय नहीं है और जीवन से जुड़े रहस्यों, घटनाओ, दुर्घटनाओं से मिलकर ही व्यक्तित्व निर्माण होता है तो पात्रों के वर्तमान से अतीत की इस उलटी समययात्रा में इन पड़ावों का आना सहज और अवश्यम्भावी है जिनकी छाया उनके वर्तमान पर है. जिन घटनाओं से उनके मन में गांठ पड़ी, उसे खोलने के लिए उसे छूने से भला कैसे बचा जा सकता है.
फिल्म के संवाद वरुण ग्रोवर और स्वयं अविनाश ने लिखे हैं. विशेष बात यह है कि संवाद न तो अतिरिक्त रूप से वोकल हैं, न ही इतने लाउड कि किरदारों की भाव-भंगिमा पर भारी पड़ जाएँ. फिल्म में संवाद छोटे किन्तु चुटीले हैं और ज्यादातर बातें आँखों या एक्सप्रेशंस से ही कह दी गई हैं जिसे आलोकनंदा दासगुप्ता के धीमे बैकग्रॉउंड संगीत ने पूरा सहारा दिया है और फिल्म की स्वाभाविक लय टूटती नहीं बल्कि उसकी खूबसूरती और बढ़ जाती है. जबकि बहुत नाटकीय संवाद और उनकी लंबाई इसके ठीक विपरीत काम करते हैं इसीलिए फिल्म की ख़ामोशी ही इसका सबसे सुन्दर और मानीखेज़ संवाद साबित हुई है.
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी भी फिल्म का एक सशक्त पक्ष है. संयोग यहाँ भी स्वयं को दोहरा रहा है यानी अविनाश जो कि खुद बेहतरीन सिनेमेटोग्राफेर हैं उनका कैमरा इस फिल्म का एक सार्थक पात्र साबित होता है. निर्देशक और कैमरामैन की दृष्टि का यह सामंजस्य अद्भुत है और इसकी परिणति थ्री ऑफ़ अस के रूप में हमारे सामने आती है. कोंकण की बहुत ही शानदार लोकेशन्स फिल्म में देखने को मिलती हैं. रेलवे लाइन पर रूककर प्रतीक्षा करना, समुद्र के किनारे लहरों से खेलता कैमरा, दूर तक फैली हरियाली और कॉटेजों के रूप में फैला वेंगुरला कस्बा, कस्बे का शांत और ठहराव से भरा जीवन, हर फ्रेम अद्भुत है.
जब वे लोग अतीत की जगहों पर घूमने निकलते हैं तो एक पेड़ है जिसकी जड़ें दीवार में कुछ इस तरह समाँ गई हैं कि मानों दीवार का अलग कोई अस्तित्व ही नहीं. गौर से देखें तो यह अतीत के उन उलझे गुंजलकों को परिलक्षित करती हैं जिनका स्मृतियों में कल और आज यूँ गुंथ गये हैं कि उन्हें अलगाना कठिन है. इसी तरह समुद्र की लहरों का खेल भी मस्तिष्क में चलते सोच के सतत प्रवाह को दर्शाता है, टूटे जर्जर घर और कुएँ दोनों ही बहुत रहस्यमयी प्रतीत होते हैं और बखूबी शैलजा के मन में अतीत में हुई दुर्घटना के प्रति भय की झलक दिखा पाने में बहुत हद तक कामयाब साबित होते हैं.
यदि अभिनय की बात की जाए तो शेफाली शाह और जयदीप अहलावत दोनों ही बहुत मंजे हुए कलाकार हैं लेकिन यहाँ शेफ़ाली शाह तारीफ में एक नम्बर ज्यादा पाने की हकदार हैं क्योंकि उनके जैसी परिपक्व् अभिनेत्री को यहाँ भावों को अनलर्न करके एक ऐसी देहभाषा सृजित करने की जिम्मेदारी थी, जो बहुत ही सरल है, स्त्री के मूल चरित्र से एकदम भिन्न इतनी सरल कि अपने अतीत में अकेले नहीं अपने वर्तमान साथी का हाथ पकड़कर जाती है. भले ही डिमेंशिया के कारण यह उसका साहस नहीं असमर्थतता भी हो सकती है किन्तु प्रदीप के साथ घूमते हुए अतीत के उन पलों का सामना भी वह बहुत सहजता और ईमानदारी से करती है. यहाँ दीपांकर और प्रदीप की पत्नी के किरदार भी दिल जीतने का सामर्थ्य रखते हैं जो अपने साथी को इस यात्रा पर पूरा सहयोग करते हैं. हालाँकि स्वानंद किरकिरे को क्लोज शॉट कुछ अधिक मिलने चाहिए थे. कुछेक दृश्य स्मृति में स्थायी जगह बनाने में पूरी तरह सक्षम हैं जैसे वह दृश्य जहाँ दीपांकर का शैलजा से कहना कि वह इतना खुश पहले कभी नहीं हुई और शैलजा का उत्तर मन में उतर जाता है कि इतना दुखी भी कभी नहीं हुई. या फिर प्रदीप और उसकी पत्नी के बीच कविता के दौरान शैलजा और उसकी मुलाकात को लेकर हुई बातचीत. ऐसे सवालों का उठाया जाना सहजता है, स्वाभाविकता है और सवालों का न उठाना नाटकीयता है और शुक्र है ये सवाल उस नाटकीयता से फिल्म को बचा ले जाते हैं. हाँ, इतना जरूर है कि फिल्म की गति कई बार धीमी हो जाती है. जब कैमरा अपना रोल प्ले कर रहा होता है तो कई बार किरदारों पर हावी होता प्रतीत होता है पर सच यही है कि यहाँ मौन संवाद हैं और कहानी की गति उन मौन संवादों के माध्यम से चलती है जिन्हें सुनने में दर्शक के पीछे छूट जाने का खतरा जुड़ा होता है. यहाँ थोड़ी और स्पष्टता की दरकार महसूस होती है. विशेषकर शैलजा और प्रदीप के सम्बन्ध को लेकर.
एक अन्य दृश्य बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है, जब शैलजा अपने बचपन के नृत्य स्कूल जाती है तो नृत्य टीचर के सामने परफोर्म करती लड़कियों को देखकर वह भी उनके बीच नृत्य करना प्रारंभ कर देती है पर अचानक स्टेप भूल जाने पर उसका डर, उसकी हिचक, शर्मिंदगी और अपराधबोध जिस तरह से शेफाली शाह के चेहरे की भंगिमाओं और उनकी देहभाषा से प्रकट होता है वह दिल को छू लेना वाला दृश्य है. धीरे धीरे स्वयं को पीछे छुपा लेने का प्रयत्न करती शैलजा और उसकी इस देहभाषा को डीकोड करता प्रदीप दोनों ही का काम बहुत लाजवाब है. पत्नी के लिए शाल पर कढ़ाई करता प्रदीप और अपनी पत्नी के सिर में तेल मालिश करता पति दीपांकर दोनों ही दर्शकों के सामने दाम्पत्य का एक बेहद खूबसूरत पक्ष सामने रखते हैं जिसे भूलना सम्भव नहीं और जो पति की स्टीरियोटाइप इमेज के बरक्स एक पार्टनर की छवि प्रस्तुत करते हैं जो स्वामी नहीं, साथी है और जिसकी तलाश और ख्वाहिश स्त्रियों ने सदियों से की है. दाम्पत्य जीवन पर एक सशक्त प्रस्तुति के रूप में देखें तो थ्री ऑफ़ अस एक बहुत संवेदनशील और सफल चलचित्र है जो स्त्री और पुरुष के अलग अलग नहीं अपितु एक साथ साझे सशक्तीकरण की विलक्षण छवि प्रस्तुत करता है
अंजू शर्मा
एक जानीमानी भारतीय लेखिका, शिक्षिका