आज प्रकृति सत्ता के संवाहक पितृवत पर्वत गोवर्धन व गौ माता को पूज्यनीय बनाया था श्री कृष्ण ने

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आज प्रकृति सत्ता के संवाहक पितृवत पर्वत गोवर्धन व गौ माता को पूज्यनीय बनाया था श्री कृष्ण ने

 

*प्रसंग वश: वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल का कालम*

 

आज का कालम मैं अपने उस मुक्तक से कर रहा हूं, जो आज ही प्रकृति सत्ता के संवाहक पितृवत पर्वत गोवर्धन व गौ माता को पूज्यनीय बनाया था श्री कृष्ण ने। जिसे विगत दिनों सोशल मीडिया पर देश भर में काफी पसंद किया गया था। *माँ राधा के प्रेम का बल था, इंद्र के अहंकार का छल था। कृष्ण ने जो उठाया गोवर्धन, ब्रज के पुरुषार्थ का फल था।।* यूं तो दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस वर्ष भी यह पर्व विगत वर्ष की तरह एक दिन बाद मनाया जा रहा है। पिछली बार इसका कारण सूर्यग्रहण था तो इस बार दो दिन अमावस्या तिथि रही। इस त्यौहार का भारतीय लोक जीवन में बहुत महत्व है। इस पर्व में प्रकृति मां व गाय माता के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध स्पष्ट होता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोक कथा है।

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प्रकृति संसार में नदियों को मां तो पर्वतों को पिता की तरह देखा जाता है। पर्वतों के पुरुषार्थ से, मानव जाति के लिए आवश्यक जल,पशुओं के लिए चारा आदि बहुत कुछ मिलता है, बादलों के इनसे टकराने से वर्षा होती है। इस तरह पर्वत हमें एक पिता की तरह सरंक्षण भी देते हैं। गोवर्धन पूजा में गोधन अर्थात गायों की पूजा भी की जाती है।शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती है , जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं, उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। उनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गाय के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की। जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचाने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और प्रतिवर्ष इंद्र की जगह गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी।

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तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा। श्री कृष्ण ने कहा कि इंद्र होंगे देवताओं के राजा पर गोवर्धन जैसे हमारे पर्वत प्रकृति की सत्ता के एक अभिन्न अंग हैं,जो हमें दृश्य,व्यवहारिक व लौकिक रूप से बहुत कुछ देते हैं। प्रकृति मां के आंचल के बिना तो हम पृथ्वी की कल्पना भी नहीं कर सकते। धरती हमें अन्न, चारा,पानी ,फल, फूल,क्या नहीं देती। अतः बिना कभी थके,या हमसे कुछ भी लिए बिना,प्रकृति सत्ता परिवार के अभिन्न अंग यह धरती, आसमान, प्राण वायु,नदियां,पर्वत, गाय माता, पेड़, तो हमारी जीवन रेखा बनाते हैं। सूर्य और चंद्र बिना थके हजारों वर्षों से लगातार दृश्य रूप से, वैज्ञानिक व प्रामाणिक रूप से हमारे दिन और रात की रचना करते हैं। तब प्रकृति मां की दृश्य सत्ता को, उसके मानव जाति के प्रति अनंत उपकारों को हम भला कैसे अनदेखा कर सकते हैं। जिस तरह हमारे मां पिता हमें पालते हैं,प्रकृति की यह ममतामई सत्ता सम्पूर्ण मानव समाज को हजारों सालों से,किसी से भी बिना कुछ मांगे,कोई टैक्स लिए बिना, हमें जिंदा रहने के लिए प्राण वायु जिसे वैज्ञानिक आक्सीजन कहते हैं देने से लेकर,पानी, दूध,भोजन, आदि सब कुछ दे रहे हैं। तब हमारे लौकिक देवी,देवता तो सर्वप्रथम यही होने चाहिए। इनकी ही पूजा हमें करनी चाहिए। कृष्ण कहते हैं कि हमारे घर संसार के सबसे बड़े देवी, देवता, गुरु तो सर्वप्रथम हमारे माता पिता ही हैं। आज लोग अपने माता,पिता को छोड़ प्रोफेशनल बाबाओं को गुरु बना उनके चक्कर में अपने उन गुरुओं,शिक्षकों को सम्मान देना तो दूर,अनदेखा ही कर देते हैं,जिन्होंने स्कूल,कालेज में उनको पढ़ाया,इस काबिल बनाया। हम पत्थरों के बने भगवानों की प्रतिमाएं खूब पूजते हैं,पर हमारे कई पर्वतों को ब्रज के गोवर्धन की तरह क्यों नहीं पूज पाते,यहां तक कि उनका सरंक्षण तक नहीं कर पाते। विकास के नाम पर आज किस तरह डायनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा जाता है,लाखों पेड़ों की बेरहमी से काटा जा रहा है,जंगलों की अवैध कटाई,की जा रही है। मानव समाज को दूध,घी,दही, गोबर खाद, अमृत समान औषधि गौ मूत्र देने वाला गौ वंश तक कसाई खानों में बेरहमी से काटा जा रहा है। यह सब हमारी चरित्र व संस्कारों की कमजोरी नहीं तो और क्या है। आज हजारों गौ व गौ वंश सड़कों पर बेसहारा,भोजन की तलाश में घूमने को मजबूर है। आज का दिन कृष्ण अपनी पूजा गौ पालक के रूप में कराकर, गोवर्धन धारी,गिरिराजधरण के रूप में कराकर यही संदेश देते हैं कि यदि हम गौ वंश का ही सरंक्षण नहीं कर पा रहे,पर्वतों का सरंक्षण नहीं कर पा रहे, गौ वंश को भोजन देने वाले उन पेड़ों को नहीं बचा पा रहे जो हमें प्राण वायु आक्सीजन देते हैं,फल, फूल देते हैं,तो फिर हम स्वयं को कृष्ण भक्त या कृष्ण प्रेमी कैसे कह सकते हैं?

कबीर अपनी वाणी में कहते भी हैं:

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*कबीर, गोवर्धन कृष्ण जी उठाया, द्रोणागिरि हनुमंत। शेष नाग सब सृष्टि उठाई, इनमें को भगवंत।।*

 

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक सत्य लोक गाथा प्रचलित है। जिसका प्रामाणिक उल्लेख श्री मद भागवत कथा में भी भागवताचार्य प्रमुखता से करते हैं। कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था। इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार हैं ने एक लीला रची। एक दिन उन्होंने देखा कि सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे हैं। श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मां यशोदा से प्रश्न किया ” मईया ये आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं” कृष्ण की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं। मैया के ऐसा कहने पर श्री कृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं? मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की उपज होती है , उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है। भगवान श्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं। अत: ऐसे अहँकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए। लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के स्थान पर गोवर्घन पर्वत की पूजा की। देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा व मूसलाधार वर्षा आरम्भ कर दी। प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है। तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया। इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी। इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियन्त्रित करें और शेषनाग से कहा कि आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।इन्द्र निरन्तर सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे लगा कि उनका सामना करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया। ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं। ब्रह्मा जी के मुख से यह सुनकर इन्द्र अत्यन्त लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहँकारवश भूल कर बैठा। आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें। इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया। इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्धन पूजा की जाने लगी। बृजवासी इस दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा करते हैं। गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।श्री द्वारिकाधीश राम जानकी मंदिर की श्रीजी कृपा गौशाला,इटारसी में भी आज गोवर्धन पूजा करते हुए मंदिर समिति सरंक्षक रमेश चांडक ,श्रीराम जन्म महोत्सव समिति अध्यक्ष सतीश सावरिया आदि ने सर्वप्रथम गौ शाला के सभी गौ वंश को स्नान कराया,उनका श्रंगार किया,फिर गोवर्धन पूजा कर,सभी गौ वंश को उनकी पसंद की भोज्य सामग्री खिलाई। वहीं दीवाली पर्व को लेकर चली आ रही प्राचीन परंपराओं का निर्वाहन आज के आधुनिक दौर में भी इटारसी के आसपास के क्षेत्र के आदिवासी पूरी शिद्दत से कर रहे हैं। दीवाली पर पशु धन कहे जाने वाले मवेशियों को नदी में जाकर स्नान कराया जाता है। ग्रामीण विनोद बारिवा ने बताया कि दीवाली पर गांव के सभी दुधारू पशुओं को नदी में ले जाकर स्नान करा बाद में इनकी पूजा की गई। नए अनाज से बनाई गई खिचड़ी मवेशियों को खिलाई गई, दीवाली के दूसरे दिन सुबह मवेशियों का श्रृंगार कर भगवान गौवर्धन एवं ग्वाल बाबा की पूजा की गई। मान्यता है कि मवेशियों की पूजन से भगवान ग्वाल, साल भर मवेशियों की रक्षा करते हैं, किसी भी तरह की बीमारी मवेशियों को नहीं होती, साथ ही वे स्वस्थ्य रहते हैं। उधर सिवनी मालवा के हिरनखेड़ा गांव में गौ उत्पत्ति तीर्थ क्षेत्र तालाब पर इस वर्ष भी आदिवासी परिवारों द्वारा पारंपरिक रूप से पूजा की गई। हिरनखेड़ा तालाब पर हर वर्ष बैतूल-मुलताई क्षेत्र के आदिवासी गोली-ग्वाल समाज द्वारा दीवाली के पांच दिवसीय उत्सव पर तालाब के बीच में स्थित ग्वाल बाबा स्थान पर पूजन की जाती है। इस दौरान पूरी रात बांसुरी वादन और लोकगीत-संगीत गायन किया जाता है‌। आदिवासी लोक मान्यताओं के अनुसार इस तालाब से ही गाय की उत्पत्ति हुई थी, यह तालाब तीर्थ के रूप में पूजा जाता है आदिवासी परिवारों के आने का क्रम दशहरे से दीवाली के बीच चलता रहता है। मुख्य पूजन दीवाली की रात ही होती है। श्रद्धालुओं द्वारा यहां मोर पंख एवं गौ श्रृंगार का सामान अर्पित किया जाता है। यह तालाब करीब 46 एकड़ में फैला हुआ है, जिसे जिले का सबसे बड़ा तालाब माना जाता है। आदिवासियों का कहना है कि यदि प्रशासन और जनप्रतिनिधि प्रयास करें तो यह तालाब जिले का सबसे सुंदर जलाशय बन सकता है। अतः निराश होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि प्रायः निराशा के अंधकार से ही आशा की किरणें निकलती हैं।