Traditional Diwali of Nimar: सम्पन्नता और सद्भाव की ज्योति हो, चाहे माटी के दिये की ज्योति हो, यह सब दीवाली पर्व है !

697
Traditional Diwali of Nima

Traditional Diwali of Nimar: सम्पन्नता और सद्भाव की ज्योति हो, चाहे माटी के दिये की ज्योति हो, यह सब दीवाली पर्व है !

पर्व और उत्सवों की प्रकृति नदी के जल जैसी होती है, वे कुछ पीछे छोड़ते हैं, कुछ नया लेते रहते हैं। पर्व का वैशिष्ठ्य तो तब है, जब वह सब के लिए हो, और सबके हित में हो और सर्वकालिक हो, चिरायु होता है, और सबको आनन्दोल्लास देता है। और दीवाली इन सभी कारकों के आयामों की पूर्ति करती है। दीपोत्सव दीर्घकाल से चला आ रहा है। जैसे सूर्य सबको समान प्रकाश देता है, ऐसे ही यह पर्व भी सबको समान ज्योति प्रकाश देता है, सबका अंधकार दूर करता है, चाहे फिर वह अंधकार अज्ञानता का हो, दरिद्रता का हो, वैमनस्यता का हो, अकर्मण्यता का हो या किसी का भी हो। इस पर्व से समाज के सभी वर्गो का सरोकार रहता है। सबको ज्योति के दर्शन होते है। चाहे वह ज्ञान की ज्योति हो, सौहार्द की ज्योति हो, सम्पन्नता और सद्भाव की ज्योति हो, आजीविका की ज्योति हो, समरसता की ज्योति हो, चाहे माटी के दिये की ज्योति हो, यह सब दीवाली पर्व को मनाने की परम्परा के मूल से जुड़ा दीखता है। दीवाली का मुख्य केन्द्र है, नेह और नेह से भरा गाढ़ी का नन्हा सा दीपक तथा बाती। प्रकाश पर्व का यह दीया कितने ही जीवों की आजिविका का साधन है।

कुम्हार को लगता है, यह पर्व मेरा ही है और मात्र मेरा ही है। यह पर्व मुझसे ही प्रारंभ होता है। मेरे बिना तो दीवाली, दीवाली ही नहीं। मैं दीये गढँूगा, तभी तो वे टिम-टिम कर जलेंगे। शरीर की कल्पना दीपक से की जाती है। कुम्हार कहता है, ‘‘शरीर नहीं तो आत्मा कहाँ रहेगी। शेष सब क्रियायें तो गौण हैं।’’ दिये के साथ ही वह छोटे-छोटे घड़े, और ग्वालन भी गढ़ता है। पूजा के समय उनमें नवान्न भरकर लक्ष्मीजी के समक्ष रखे जाते हंै। वह दूध की दुतलियाँ भी गढ़ता है, जो गोवर्धन पड़वा के दिन भगवान् के प्रसाद के लिए दूध से भर दी जाती हैं।

20 को दिवाली तो 22 को गोवर्धन पूजा, जानें- फिर 21 अक्टूबर को क्या - diwali 2025 date celebration amavasya govardhan puja ntcpvp - AajTak
तेली को लगता है, ‘‘यह पर्व मेरा है, मैं ही तो तिल्ली-फल्ली के दानों से तेल निकालता हूँ। जो दीपक और बाती को सार्थक कर देता है। नेह ही तो दीपक में प्राण भरता है। नेह ही तो समाज का नैतिक संबल है, जो लोगों में स्नेह की जोत जलाये रखता है।
निमाड़ का किसान खुशहाल है। किसानों को लगता है, ‘‘मेरी खेती ने खरीब का अन्न उगला है ज्वार, मूँग, चावल, मूँगफली, उड़द, कपास आदि। मेरे द्वारा उपजाया अन्न-फल्ली-कपास दीवाली की अन्न लक्ष्मी है। कपास की बाती फल्ली के तेल और दीपक के साथ मिलकर प्रज्वलित होकर अंधकार के दूर करने का प्रण करती है।’’ किसान को लगता है, नवन्नागमन का ही तो पर्व है दीवाली। गोवंश द्वादशी यानी बजबारस के दिन गाय बछड़े की पूजा कर, उन्हें चवला-ज्वार खिलाया जाता है। और रसोई में भी इसी अनाज का भोजन बनाकर सबको खिलाया जाता है। इसीलिए किसान को इस पर्व के साथ निजता का आभास होता है, आत्मीय बोध होता है।

Business Idea: सिर्फ 15000 रुपये में शुरू करें झाड़ू बनाने का बिजनेस, साल भर होगी बंपर कमाई - Business Idea broom making every household demand get high income know how to start |
इमरात अर्थात् बसोड़, ‘झाड़ू बुनकर’ को लगता है, ‘‘इस पर्व का मुख्य बिन्दु तो मैं ही हूँ। हम झाड़ू बनाते हैं, दीवाली आगमन का सर्वप्रथम उपक्रम तो हमसे ही प्रारंभ होता है, लक्ष्मीजी तो शुचिता, स्वच्छता, शुद्धता और पवित्रता प्रेमी है। मेरी झाडू़ से ही दीवाली की तैयारियाँ शुरू होती हंै। घर की स्वच्छता के लिए कार्यांरभ ही दीवाली आगमन की सूचना शुभ है। मैं ही तो विषैले, कटीले, जंगल से बेतरतीब सिंध की टहनियों को लाकर सुन्दर और मुलायम रूपाइत करता हूँ। तब धन की देवी लक्ष्मी के साथ गृहस्वामी मेरे द्वारा बनाई गई झाड़ू की पूजा करता है। झाड़ू बरकत का एक प्रतीक है। इसीलिए दीवाली की तैयारी मंे सबसे पहले अप्रत्यक्ष रूप से मैं ही स्मृत रहता हूँ।’’
सामान्य धारणा तो यही है, कि दीवाली वणिक और व्यापारियों का ही त्योहार है, तिजोरियों के खन-खनाने का त्योहार है। वर्षोपरान्त नदी नालों ने अपनी ऊपरी सीमाएँ बाँध ली। सभी मार्ग यातायात के लिए सुलभ हो गये। फसलें पक-पक कर घर में आ गई घर में अन्न धन के अम्बार लग गये। व्यापार लेन-देन के लिए और क्रय-विक्रय के लिए बाज़ार खुल गए। अच्छी फसलों के आने से व्यापारियों को अपनी उधारी का धन मिलने की आशा जाग उठती है। वणिक खाता-बही बदलने का पर्व मनाता है। उसका मूल मय ब्याज के लौट आता है। दीवाली वणिक के आनन्द का पर्व है, दीवाली उसकी तिजोरियाँ भर जाने का पर्व है।
सुनार की आँखों में लक्ष्मीजी चमक चम-चमाने लगती हैं। खेतिहर किसान सोने की पाटली नहीं तो चांदी का पाट तो खरीदेगा ही। बहू के लिए कंठीमाला नहीं तो मुंदरी ने ऊर, आयल तो खरीदेगा ही जिससे घर में बहू लक्ष्मी के पैर की रुनुक झुनुक की रौनक बिखरेगी। इतना भी नहीं, तो वह गिरी हालत में नाक की लौैंग तो खरीदेगा ही। सोना याने धन, धन याने, लक्ष्मी लक्ष्मी याने सुनार की बिक्री। लक्ष्मी पूजा में परम्परानुसार सोने की पूजा तो की जाती है। इसीलिए सुनार को लगता है कि उसके बिना तो लक्ष्मीजी की पूजा असंभव है। अतः दीवाली आगमन से सुनार के चेहरे पर सोने-सी ही चमक जाग जाती है। उसे लगता है यह पर्व उसके लिए ही है।
गो-रक्षक और गोस्वामी के लिए तो उसका अपना ही आनन्द है दीवाली, गोस्वामी को हर वस्तु में अपने गोधन की उपस्थिति नजर आती है। उसकी धारणा है, कि गोवत्स से ही कृषि संभव हुई, जो भी समाज में आनन्द है, वह प्र्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से गोवंश के कारण ही है। गोरक्षक का विश्वास है, यह पर्व उसका अपना है। वह अपने गोधन की पूजा के साथ ही यह पर्व प्रारंभ करता है। उसी की पूजा और उसके प्रति उपकृृत भाव से वह इस पर्व को बिदाई देता है।
गाँव का नाई ठाकुर तो मन ही मन हो गुनगुनाता हुआ उस्तरा पत्थर पर घिसकर धार तेज करता है। गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं चूकेगा सुुन्दर दिखने के लिए, वह नाई के सामने सिर नीचा कर बैठेगा ही। जैसे ही दीवाली की तैयारियाँ शुरू होती हैं, नाई ठाकुर का पूरा परिवार काम में जुट जाता है, पलाश के हरे पत्तों को बुन बांधकर पत्तल दोने बनाता है। अन्नकूट के दिन हर घर में पत्तल दोने की आवश्यता होती है।
लक्ष्मी पूजन में लक्ष्मीजी पर चर ढुलाने का नेग और साल भर का भाता, नये वस्त्र, सब ही नाई को इसी दिन मिलते हैं। कुछ लोग अपने घर होने वाली लक्ष्मी पूजा का बुलावा नाई के द्वारा डोंडी पिटवाकर देते हैं। डोंडी पीटने का नेग भी नाई कभी कलदार, तो कभी अनाज के रूप में पाता है। इसे ‘भाता’ कहते हैं। यह उसके लिए साल भर की उगाहवनी का दिन है, नाई ठाकुर का लक्ष्मी पूजा का दिन है।

Diwali 2024: Colourful markets to buzzing shops, how different parts of India are gearing up for Festival of Lights
चरवाहे- ग्वाले का मन भी हरे-भरे चारागाह जैसे हराभरा हो थिरकने लगता है। यह वही व्यक्ति है, जो गोवर्धन करवाता है। वह गोवर्धन पड़वा के दिन उन घरों में जाता है, जिनके पशु वह चारागाह चराने ले जाता है। घरों में जाकर वह गोरक्षक- गोस्वामियों की प्रशंसा एवं गोधन की प्रशंसा के गीत गाता है। इन गीतों में गोवंश का महत्व व गोरक्षक की उदारता की स्तुति होती है। इन गीतों को ‘हीड़’ कहते हैं। वह डफली बजाकर गाता हैै, उसे गोरक्षक घरों सेे अन्न के रूप में भाता देते हैं। नये वस्त्र एवं गोचराई की नगद राशि भी मिलती है। दीवाली के दूसरे दिन से ही पशुओं को चारागाह भेजा जाता है। वर्षाकाल में पशुघर पर ही रहते हैं। गोवर्धन पड़वा से पशुओं को फिर चारागाह ले जाने की शुरूआत से चरवाहों को प्रसन्नता होती है। यह उसकी आजीविका है। इसलिए दीवाली उसके जीवन में खुशहाली लाती है।
बाज़ार में दुकानदारों की अपनी एक अलग ही खुशी होती है, इस अवसर पर उनकी आँखों में चमक-दमक जाग उठती है। बाजार सज उठते हैं। सेठ-व्यापारियों को लगता है दीवाली उनका ही पर्व है। उन्हें लगता है, उनके बिना न घरों में रंगाई-पुताई होगी, न सुन्दर सजावट होगी न उनके पशुधन माला मनका सेला चोटी पहनेंगे। बाजार में धान की लाई (धानी) के सफे़द पहाड़ के पहाड़़ भड़भूंजा का आनन्द है, दीवाली पर वह भी फूली जैसा फूूला नहीं समाता, क्योंकि छप्पन पकवान भी हों, सब एक तरफ़ औैर धान की लाई एक तरफ़। बिना उसके लक्ष्मीजी का भोग संभव नहीं। बताशों जैसे मीठा बोल-बोलकर बताशे बेच देता है, ताकि उसके घर भी धन लक्ष्मी आ जाय।

Significance of Diwali- the festival of lights - BBSCL
पटाखों के व्यापारियों के मन में तो दीवाली से आने से दो महिने पहले से ही फुलझड़ियाँ छूटने लगती हैं। वे जानते हैं कि पटाखे तो दीवाली के पर्याय हैं। दीवाली का नाम लेते ही तड़ातड़ टिकड़ी, धमाधम बम, छर-छर अनार के दृृश्य आँखों में रमने लगते हैं। बिना बम के क्या आतिशजबाजी! बच्चों की उमंग तो देखते ही बनती है, जब वे फुलझड़ी छोड़ते हैं, घर्री-अनार को देख-देख कर ताली बजा-बजाकर कूदते हैं। यही रौनक तो बाज़ार का आनन्द बढ़ा देती है।
सबके आनन्द का पर्व है दीवाली। दीवाली का असली ख़ालिश मज़ा देखना हो तो बच्चें किशारों और युवाओं में देखो। उन्हें लगता है यही एक पर्व है, जहाँ नन्हे मुन्नो को भी आग दीये का डर नहीं और किशोरों का तो उत्साह साहस देखते बनता है। हाथ में ही बड़े-बड़े बम फोड़ लेते हैं। उन्हें मालूम है आज बिना रोक टोक के बड़े शोर-शराबे वाले बम पटाखे भी चला सकते है। दिल खोलकर रोशन कर सकते हैं। खूब मिठाइयाँ खा सकते है। छोटे-बड़ों के साथ खूब जश्न मना सकते हैं।
पटाखे चलाने का आनन्द भी एक अलग आनन्द होता है। यूं तो व्यक्ति अपनी हर क्रिया, हर वस्तु गुप्त ही रखना चाहता है, अपनी वस्तु का व्यक्तिगत उपभोग करना चाहता है; किन्तु दीवाली एक ऐसा पर्व है, जब व्यक्ति चाहता है, वह जो पटाखे चलाए-जलाए या फोड़े उस खुशी में सब सम्मिलित हों, सहभागी हों। उनके पटाखों को सब देखें सब प्रशंसा करें। उनके शौर्य की प्रशंसा करे। इस पर्व पर व्यक्ति सब में खुशियाँ बाँटना चाहता है। वह घर द्वार के बाहर पटाखे चलाता है, ताकि उसकी खुशी बहुगुणित हो जाये।
समष्टिगत आनन्द ही परिवार की महिलाओं का ध्येय होता है। उन्हें लगता है, दीवाली पर्व पर वे जो भी पकवान, व्यंजन बनाएँं, सभी लोग आएँ और ज्यादा से ज्यादा लोग उसे खायें और उनके द्वारा बनाई गई भोज्य सामग्री की प्रशंसा करें, वाह वाही दें। यही आनन्द उनके खाते का सुख है। भले ही रात-रात भर जागकर गुजिया पपड़ी बनाते-बनाते उनकी हथेलियों की गद्दियाँं लाल हो गईं हो भले ही सूूज गईं हो और उनको तलते-तलते कढ़ाई और चूल्हे की आंच से उनका चहरा लाल हो गया हो, पर आँच की यह लाली उनके गालों पर, होठों पर गुलाबी मुस्कान को जन्म दे जाती है।
गृह लक्ष्मी जानती है, उनके लिए दीवाली पर नवीन वस्त्राभूषण आयँगे ही, नहीं ज्यादा तो सोने का एक दाना, तो सोने की एक कील ज़रूर आयगी ही और उसकी पूजा धनतेरस व लक्ष्मीपूजन के दिन होगी ही। वे प्रसन्न हंै, लक्ष्मी पूजा के बाद घर के पुरुष उन्हें श्री लक्ष्मी स्वरूप मानकर टीका लगायँगे, इस मान-सम्मान और आदर के आगे, उनके लिए दीवाली पर किया गया अथक श्रम सोना हो जाता है। इस प्रकार पुरुषों द्वारा पूजे जाने पर वह साक्षात् गृह-लक्ष्मी हो जाती हैं। घर-लक्ष्मी, वर-लक्ष्मी, धन-लक्ष्मी, कर्म-लक्ष्मी सभी तो वही हैं। यही तो दीवाली है। जहां बहू लक्ष्मी वहां सब ही लक्ष्मी प्रसन्न यही प्रसन्नता दीवाली की ज्योति है। यही प्रसन्नता जीवन का सार है। यही प्रसन्नता दीवाली का प्रकाश पर्व है।

 डाॅ. सुमन चौरे,भोपाल