
Travelogue कोंकण की रमणीक यात्रा
– एन. के. त्रिपाठी
कभी-कभी जीवन में कोई यात्रा केवल दूरी तय करने का माध्यम नहीं होती, वह प्रतीक्षा का प्रतिफल, आत्मिक तृप्ति का अनुभव और प्रकृति के वैभव से संवाद का अवसर बन जाती है। कोंकण की मेरी यह यात्रा भी कुछ ऐसी ही रही- 35 वर्षों की लंबी प्रतीक्षा के पश्चात जब पश्चिमी घाट के सह्याद्रि पर्वतों की हरियाली से साक्षात्कार हुआ, तो लगा मानो धरती ने अपने हरे आंचल से स्वागत किया हो।

*यात्रा का आरंभ*
मुम्बई से बाहर निकलते ही जैसे-जैसे रेल पटरियों ने शहरी कोलाहल को पीछे छोड़ा, वैसे-वैसे प्रकृति के रंग गहराते चले गए। पनवेल से गोवा के मडगाँव तक फैले इस मार्ग का हर दृश्य किसी चित्रकार की कल्पना जैसा था- छोटी-छोटी हरी पहाड़ियां, उन पर लिपटी धुंध की चादरें, और बीच-बीच में पूरब से पश्चिम की ओर बहती नन्हीं नदियां, जो अपने आप में एक संपूर्ण कथा कहती लगती थीं।

घने वृक्षों के बीच कभी-कभी रोज़वुड, महोगनी, देवदार और सागौन के पेड़ पहचान में आते- मानो प्रकृति ने अपना वनस्पति- संग्रहालय सजीव कर रखा हो। हर मोड़ पर दृश्य बदलता, और हर दृश्य में एक नई कविता जन्म लेती।

*कोंकण रेल की कहानी*
कोंकण रेल अपने आप में भारत की अभियांत्रिकी का एक अद्भुत चमत्कार है। 1990 में इसका निर्माण प्रारंभ हुआ और 1998 में यह जनता के लिए खुला। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के बीच से गुज़रते इस मार्ग में कुल 92 सुरंगें हैं- जिनमें सबसे लंबी रत्नागिरी के समीप 6.5 किलोमीटर तक फैली है।

मैं लंबे समय से इस रेल मार्ग पर यात्रा करने का इच्छुक था, और जब जनशताब्दी एक्सप्रेस की विस्टाडोम कोच में बैठकर लगभग 360 डिग्री दृश्यावलोकन का अनुभव मिला, तो लगा मानो सारी प्रतीक्षा सार्थक हो गई। पारदर्शी छत से झरते सूरज की किरणें, लहराते बादल और झूमते वृक्ष- सब कुछ अविश्वसनीय सौंदर्य का एक जीवंत चित्र बन गए।

*कोंकण और मालाबार का भौगोलिक वैभव*
पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच की पतली भूमि-पट्टी को कोंकण कहा जाता है। यह क्षेत्र गुजरात के दक्षिणी छोर पर दमन की दमनगंगा से लेकर मुंबई, रत्नागिरी, गोवा और कर्नाटक तक फैला है। इसके आगे जो क्षेत्र पश्चिमी घाट से जुड़ता है- वह केरल के कन्याकुमारी तक फैला मालाबार तट कहलाता है।
यह भू-भाग केवल भौगोलिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है- समुद्री हवाओं में नारियल की गंध, मंदिरों की घंटियां, और मछुआरों की नावों से आती जीवन की गूंज- सब कुछ मिलकर कोंकण की आत्मा बन जाते हैं।
*यात्रा का अनुभव*
मार्ग में लिए गए मेरे चित्र उस अद्भुत सौंदर्य को पूरी तरह समेट नहीं पाए।
शाम ढलते ही जब मैं अपने होटल की बालकनी से नीचे फैले समुद्र को निहारता हूँ, तो अंधेरे में लहरों की ध्वनि मानो दिन भर की हरियाली को फिर से जीवित कर देती है।
यह यात्रा केवल एक रेलयात्रा नहीं रही- यह प्रकृति के साथ संवाद, स्मृतियों की पुनःखोज और मन की स्थिरता की तलाश का अनुभव थी।





