Tribute to Ratan : पारसी अपने ‘रतन’ को प्यार से कहते थे ‘आमरो रतन!’
राहुल देव
कल रात भारत का सच्चा ज़िंदा रतन चला गया। भले ही अब आप मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ देते रहिए। जिंदा रहते नहीं दे पाए यह दर्ज रहेगा। शायद इसलिए कि पारसी काम के मतदाता नहीं हैं। भारत में कुल शायद 70 बचे हैं। दुनिया में एक से दो लाख के बीच। आज हर शिक्षित भारतीय महसूस कर रहा है कि कोई उसका अपना चला गया है। वह ज़्यादा देखा नहीं जाता था, सुना नहीं जाता था। व्यापारिक अखबारों और सोशल मीडिया पर कभी-कभार चर्चा हो जाती थी। जब कोई नई बड़ी विदेशी कंपनी ख़रीदकर उसे भारतीय बना देते थे। या जब किसी अज्ञात कुल-वय नवोद्यमी को ‘मेंटर-निवेशक’ के रूप में अचानक रतन टाटा का वरदहस्त मिल जाता था।
दस लाख से ज़्यादा टाटा कर्मचारी परिवार के सदस्यों से पूछिए, पूरे जमशेदपुर नगर के रहने वालों से पूछिए जो, जैसा विनीत ने लिखा है आमरो जमशेद और रतन के हर जन्मदिन को पारिवारिक पर्व की तरह मनाते थे, या उन लाखों अनाम भारतीयों से पूछिए जिनके जीवन को देश के इस सबसे बड़े दानकर्ता के ट्रस्टों-कंपनियों द्वारा संचालित विकास-कल्याण कार्यक्रमों ने सहारा-शिक्षा-स्वास्थ्य-सशक्तिकरण और आगे बढ़ने के अवसर देकर स्पर्श किया है। वे बताएँगे रतन टाटा उनके लिए क्या थे।
रतन टाटा को सबसे पहले मुंबई के सबसे सुंदर क्लब यूएस क्लब के लंबे-चौड़े हरे लॉन में देखा था। उसका सारा श्रेय टीटो और हमारी नन्ही पुरवा को है। हम माँ-बाप की निगाहें हरी विस्तीर्ण घास पर इधर-उधर दौड़ती पुरवा पर थीं और उनकी निगाहों ने उसी की तरह भागते-दौड़ते टीटो को देख लिया था। टीटो ने भी उसे देखा, बीच कहीं दोनों टकराए या क़रीब आए। लेकिन, पुरवा पहले सहमी फिर नाराज़ हो गई। टीटो जी तब तक अपने स्वामी के पास पहुँच कर विश्राम कर रहे थे और स्वामी रतन टाटा उसके साथ वैसे ही लाड़ भरा खेल कर रहे थे जैसे हम पुरवा के साथ करते थे। पुरवा पहुंच गई दोनों के पास और सीधे रतन टाटा पर शिकायत दाग दी ‘अंकल, इसको मारिए, इसने मुझे काटा ..’ रतन ने शायद टीटो को डाँटने का नाटक सा किया था फिर उससे कहा, यह अब नहीं काटेगा, खेलो इसके साथ। तो दोनों में दोस्ती हो गई, खेल चालू हो गया। उस सुंदर टीटो की भी आजकल खूब चर्चा हो रही है।
बेटी के पीछे चलते मैंने पत्नी को बताया ये रतन टाटा हैं। हम वहाँ पहुँचे, रतन टाटा ने कुछ देर खूब सहजता और सौजन्य से बात की। वे हर रविवार टीटो को पास के अपने कोलाबा वाले अविशाल फ्लैट से यहां लेकर आते थे उसको खुले मैदान और एकांत में खिलाने के लिए। यूएस क्लब में सदस्यता दुर्लभ थी। मूलतः पास के नेवीनगर के सेना अधिकारियों, बाहर से आने वाले सेना अधिकारियों और चुनिंदा नागरिकों को ही मिलती थी। संपादकी के चक्कर में हम भी पा गए थे। उसका भी एक क़िस्सा है पर फिर कभी। तो टाटा जैसे प्रसिद्ध लोगों के लिए समुद्र से सटा हुआ वह क्लब सुरम्य एकांत देता था। सुना था वहाँ धीरूभाई अंबानी भी टहलने के लिए आते थे। हमें कभी दिखे नहीं। इस संक्षिप्त मुलाकात के बाद रतन अपनी एसयूवी में अपने पास की सीट पर टीटो को बिठा कर खुद गाड़ी चलाकर चले गए। एकाध बार और दिखे, हमेशा अकेले, लेकिन उनसे आगे बढ़ कर परिचय बढ़ाने की कोशिश नहीं की। न वह अपना स्वभाव था न शिष्टाचार। किसी के एकांत को भंग करने का हमें अधिकार नहीं होता।
दूसरी और तीसरी बार मिलना पहली मुलाकात के कुछ साल बाद ही हो गया। वह समय मुंबई में 1992-93 के हिंदू-मुस्लिम दंगों का था। शिवसेना उस समय अपनी अनौपचारिक सत्ता और शक्ति, जिसे वह ठोकशाही कहती थी, के शिखर पर थी। 1995 में तो बाल ठाकरे द्वारा मुख्यमंत्री बनाए गए मनोहर जोशी के नेतृत्व में महाराष्ट्र की सरकार के भी शिखर पर पहुँच गई थी। अपनी विचारधारा की आलोचना करने वालों अखबारों-पत्रकारों पर खुलेआम हमले करना, उनके दफ़्तरों में तोड़फोड़ और मारपीट करना शिवसैनिकों का आम शगल था। मराठी ‘महानगर’ के कार्यालय और उसके संस्थापक-संपादक निखिल वागले पर एक के बाद एक कई हमले हुए। दूसरों पर भी।
इसके विरोध में एडिटर्स गिल्ड ने देश के सबसे बड़े और सम्मानित संपादकों के नेतृत्व में शिवसेना भवन के सामने दिन भर का धरना दिया। सूत्रधार हमारे प्रभाष जोशी जी थे। इनमें टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, मराठी महाराष्ट्र टाइम्स, हिंदी जनसत्ता, गुजराती जन्मभूमि, फाइनेंशियल एक्सप्रेस के संपादक गण दिलीप पडगांवकर, निखिल चक्रवर्ती, बीजी वर्गीज, प्रभाष जोशी, गोविन्द तलवलकर, बलबीर पुंज आदि शामिल थे। मैं प्रभाष जी के सिपाही के रूप में संचालन कर रहा था। सेना प्रमुख ठाकरे अंदर बैठे थे। सेना के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना थी, अब भी है। ठाकरे ने मनोहर जोशी को मंच पर भेजा कि ‘बालासाहेब’ आप लोगों से बात करना चाहते हैं। अंदर चलिए। सबने साफ इंकार कर दिया। कहा, अगर वे बात करना चाहते हैं तो यहाँ आकर मिलें। जाहिर है यह नहीं होना था।
धरने के बाद संपादकों का यह शिष्टमंडल मुंबई के कुछ प्रमुख नागरिकों से मिला। दो की याद है। जेआरडी टाटा और बॉम्बे डाइंग के मालिक नस्ली वाडिया से। यह जेआरडी से पहली भेंट थी। जेआरडी से संपादकों की बातचीत बेहद सार्थक थी। देखा कि सहज महानता कैसी होती है। दंगों से बहुत व्यथित थे। बातचीत करके जब हम सब निकले तो जेआरडी बाहर सीढ़ियों तक छोड़ने आए। उस समय रतन टाटा कॉरिडोर में कुछ अन्य लोगों के साथ खड़े थे। जेआरडी के घोषित उत्तराधिकारी होने के बावजूद वे जिस गहरे आदर, संकोच और विनम्रतापूर्वक के साथ खड़े थे वह असाधारण था। गहरा प्रभाव छोड़ने वाला। उन दिनों मैं मुंबई के 1993 दंगों में शांति प्रयासों में सक्रिय था। राज्यपाल की शांति समिति का सदस्य था। हम लोग धारावी पर ध्यान केंद्रित किए हुए थे बाकी जगहों के साथ-साथ। गांधी जी के मुंबई निवास मणि भवन, सर्वोदय मंडल, दिलीप कुमार के घर, राजभवन, धारावी में पुलिस थानों, अहातों, घरों आदि में बैठकें चलती रहती थीं। शबाना आज़मी, सुनील दत्त, फारूक शेख़ आदि साथ रहते। सबसे समर्पित भाव से शबाना।
ऐसी ही एक बैठक दक्षिण मुंबई के कफ परेड में भारत की पहली मार्केट रिसर्च कंपनी ‘मार्ग’ के दफ्तर में उसके संस्थापक टीटू अहलूवालिया के कार्यालय में हुई। दक्षिण और मध्य मुंबई के कुछ बेहद वरिष्ठ नागरिक निमंत्रित थे। उनमें रतन टाटा भी थे। बातचीत का संचालन टीटू और मैं कर रहे थे। रतन थोड़ी देर से आए और पीछे एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गए। जब बोल रहा वक्ता रुका तो मैंने रतन से आग्रह किया कि वे अंडाकार मेज़ की पहली क़तार में आ जाएँ। ज़ाहिर है हर व्यक्ति उन्हें जगह देना चाहता था। वे बैठे रहे, नहीं उठे। पूरी सभा के कई बार आग्रह करने पर बेहद संकोच के साथ आगे आए। अपनी बारी आने पर जब वे बोले तो घोर अंतर्मुखी और मितभाषी रतन का गोरा, ग्रीक देवताओं जैसा धीरोदात्त सुंदर चेहरा पीड़ा और क्षोभ से लाल था। उनके शांत लेकिन उत्कट सघनता से निकलते शब्दों के पीछे अपनी मुंबई की उस रक्तरंजित दुर्दशा पर उमड़ती भावनाओं की गहराई भीतर तक उतर जाने वाली थी। उस दिन जाना कि यह एकांतप्रिय, अपनी निजता को सायास बचाए रखने वाला व्यक्ति कितनी गहराई से महसूस करता है, किस व्यापक मानवीय संवेदनशीलता को छिपाए है।
उनकी उदारता, दानशीलता, विजन की व्यापकता, दूर दृष्टि, टाटा समूह को अभूतपूर्व वैश्विक ऊंचाइयों तक ले जाने की असाधारण उपलब्धियाँ, पशुओं-विशेष तौर पर आवारा कुत्तों के लिए आश्चर्यजनक प्रेम, एकांतप्रियता, प्रचार-विमुखता, महत्व-सम्मान-प्रशंसा पाने से सहज संकोच, विश्व प्रसिद्ध टाटा संस्कृति की विरासत को आगे ले जाने में योगदान आदि ऐसी न जाने कितनी बातें हैं जो किताबों-किस्सों से इतिहास में बनी रहेंगी। यह एक छोटी सी श्रद्धांजलि है उस रतन को जिसकी असामान्य मानवीयता और भीतरी ऊंचाई का छोटा सा स्पर्श पाने का सौभाग्य मुझे मिला। रतन टाटा की तुलना शायद केवल उनके आदर्श और गुरु जेआरडी टाटा से ही की जा सकती है।
दोनों महानता के लिए पैदा हुए थे।
लेखक राहुल देव वरिष्ठ पत्रकार, हिन्दीसेवी तथा भारतीय भाषाओं के संवर्धन के पक्षधर हैं। वे ‘सम्यक न्यास’ के न्यासी हैं।
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