डॉ. विजय श्रीवास्तव की दो कवितायेँ

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डॉ. विजय श्रीवास्तव की दो कवितायेँ

1.यह दीमक हमारी ही बनाई हुई है?

समय अब वह निर्मल धारा नहीं,
जो बहते हुए जीवन को अर्थ देती थी।
उसके कणों में खोखलापन उतर आया है,
मानो उसकी आत्मा पर कोई घाव गहरा हो गया हो।
कल और आज के बीच की रेखाएँ धुँधली हैं,
बीता हुआ वर्तमान को खा रहा है,
और आने वाला भविष्य,
एक अनिश्चित अंधकार में समा रहा है।
दीमक ने समय के मूल्य को चुरा लिया,
अब क्षण सिर्फ़ बीतते हैं, जीते नहीं,
दिन अब सूरज से नहीं,
घड़ी की थकी सुइयों से गिने जाते हैं।
क्या यह दीमक हमारी ही बनाई हुई है?
हमारी अधूरी इच्छाओं की,
हमारे लालच की,
या हमारी स्मृतियों की जड़ता की?

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समय को बचाना है, तो हमें लौटना होगा
उस मौन में, जहाँ क्षण शुद्ध था,
जहाँ दीमक नहीं, केवल सार था,
जहाँ जीना बीतने का नहीं,
संपूर्ण होने का अनुभव था।
समय अब वह निर्मल धारा नहीं,
जो बहते हुए जीवन को अर्थ देती थी।
उसके कणों में खोखलापन उतर आया है,
मानो उसकी आत्मा पर कोई घाव गहरा हो गया हो।
कल और आज के बीच की रेखाएँ धुँधली हैं,
बीता हुआ वर्तमान को खा रहा है,
और आने वाला भविष्य,
एक अनिश्चित अंधकार में समा रहा है।
दीमक ने समय के मूल्य को चुरा लिया,
अब क्षण सिर्फ़ बीतते हैं, जीते नहीं,
दिन अब सूरज से नहीं,
घड़ी की थकी सुइयों से गिने जाते हैं।
क्या यह दीमक हमारी ही बनाई हुई है?
हमारी अधूरी इच्छाओं की,
हमारे लालच की,
या हमारी स्मृतियों की जड़ता की?
समय को बचाना है, तो हमें लौटना होगा
उस मौन में, जहाँ क्षण शुद्ध था,
जहाँ दीमक नहीं, केवल सार था,
जहाँ जीना बीतने का नहीं,
संपूर्ण होने का अनुभव था।

2. यादों की तस्वीर-

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“मैं अपने जीवन को
लिख रहा हूं –
बिताए सभी-
विगत सालों के
पल-दो पर के-
लम्हों के-
यादों की तस्वीर-
खींच रहा हूं।
ये सभी शब्द-
जिन्हें मैंने
दुख-सुख व-
सभी तरह की-
संवेदनाओं के साथ खेल –
कर बिताया है।
याद कर मन के भंवर में
गोते खा रहा हूं,
कभी ऐसी गहराइयों में
पैठ जाता हूं कि –
सतह पर आ नहीं पाता
कभी –
सतह पर ही-
डूबने उतराने लगता हूं।
‘बच्चन’का लिखा
याद आता है –
‘क्या भूलूं, क्या याद करूं’
एक शायर ने खूब कहा है-
‘जवानी जाती रही
और हमें पता ही नहीं चला,
उसी को ढूंढ रहा हूं –
कमर चुकाएं हुए।
जोश महलाबादी के शेर को अपने नजरिए से देखूं
तो-
‘कैसा यह अजब दौर आता है,
बदला-बदला सा यह तौर
नज़र आता है,
आईने में यह मैं नहीं,
ऐ शील-
बूढ़ा यह कोई और नजर आता है।

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डा. विजय ‌शील।

परिचय -कवि डॉ. विजय श्रीवास्तव  देश के जानेमाने जनजातीय अध्येता और शोधकर्ता हैं ,अब तक आपकी 7  पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ,आदिवासी विकास  विभाग  के उपायुक्त पद से सेवानिवृत .दो कविता संग्रह प्रकाशित .

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