Uttarkashi: सुरंगों से खोखले हुए पहाड़ में बढ़े हादसे
प्रमोद भार्गव
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का एक हिस्सा भूमि में धंस जाने के कारण सुरंग बना रहे 40 मजदूर फंस गए। उनके प्राण पिछले कुछ दिनों से संकट में जरूर हैं, लेकिन उन्हें बचाने के हर संभव प्रयत्न युद्धस्तर पर किए जा रहे हैं। इसीलिए सभी मजदूर जीवित बताए जा रहे हैं। यह हादसा उत्तरकाशी से 55 किमी दूर बन रही सिलक्यारा-पोलगांव निर्माणाधीन सुरंग के भीतर हुआ। यह हादसा भू-स्खलन के कारण सुरंग का 15 मीटर हिस्सा जमीन में धंस जाने के कारण घटित हुआ। सुरंग का निर्माण उत्तरकाशी जिले में धरासू-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर चार धाम यात्रा को हर मौसम में सुगम बनाने की दृष्टि से किया जा रहा है। सुरंग की लंबाई करीब साढ़े चार किलोमीटर है। इसे करीब चार किमी बना भी लिया गया है। सुरंग के संपूर्ण होने के बाद यात्रियों की 26 किमी दूरी कम हो जाएगी। अतएव आवागमन सुविधाजनक तो होगा ही समय और धन की बचत भी होगी। सेवा सामाग्रियों की पहुंच आसान हो जाएगी। नतीजतन श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और स्थानीय लोगों को रोजगार 12 माह मिलने लग जाएगा। परंतु इस हादसे के बाद एक बार फिर न केवल उत्तराखंड, बल्कि हिमाचल प्रदेश में चल रहे विकास कार्यों के परिप्रेक्ष्य में पहाड़ों को काटकर किए जा रहे निर्माण कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। क्योंकि इसी साल मार्च में भी सुरंग हादसा घट चुका है।
समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दषक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की बाढ़ आई हुई है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखर दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपने ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते चले आ रहे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएं की हैं। यह सूक्त राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने का संदेश देता है। जिससे मनुष्य नीति और धर्म से बंधा रहे। लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नश्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया। उत्तरकाशी हो या जोशीमठ इसी अनियोजित विकास की परिणति है।
उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जाते हैं। कई जगह सुरंगे बनाकर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मषीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज बारिष के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडो के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ जाती हैं। यही नहीं कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए भीशण विस्फोट भी किए जाकर हिमालय को हिलाया जा रहा है। गोया, प्रस्तावित सभी परियोजनाएं कालांतर में अस्तित्व में लाए जाने के उपाय जारी रहते हैं तो हिमालय का क्या हश्र होगा कहना मुश्किल है ?
हिमालय में अनेक रेल परियोजनाएं भी निर्माणाधीन है। सबसे बड़ी रेल परियोजना उत्तराखंड के चार जिलों (टेहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज्यादा गांवों को भी विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। छह हजार परिवार विस्थापन के दायरे में आ गए हैं। रुद्रप्रयाग जिले के मरोड़ा गांव के सभी घर दरक गए है। रेल विभाग ने इनके विस्थापन की तैयारी कर ली है। यह तो षुरूआत है, लेकिन ये विकास इसी तरह जारी रहते हैं तो बर्बादी का नक्षा बहुत विस्तरित होगा। दरअसल ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना 125 किमी लंबी है। इसके लिए सबसे लंबी सुरांग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो 14.8 किमी लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बांकी जो 15 सुरंगे बन रही हैं, उनमें ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं। इस परियोजना का दूसरा चरण कर्णप्रयाग से जोशीमठ के बजाय अब पीपलकोटी तक होगा। भू-गर्भीय सर्वेक्षण के बाद रेल विकास निगम ने जोशीमठ क्षेत्र की भौगोलिक संरचना को परियोजना के अनुकूल नहीं पाया था। इसलिए अब इस परियोजना का अंतिम पड़ाव पीपलकोठी कर दिया है। जो एक अच्छी पहल है। हिमालय की ठोस व कठोर अंदरूनी सतहों में ये विस्फोट दरारें पैदा करके पेड़ों की जड़े भी हिला रहे हैं। अन्य जिलों के श्रीनगर, मलेथा, गौचर ग्रामों के नीचे से सुरंगें निकाली जा रही हैं। इनमें किए जा रहे धमाकों से घरों में दरारें आ गई हैं। वैसे भी पहाड़ी राज्यों में घर ढलानयुक्त जमीन पर ऊंची नीम देकर बनाए जाते हैं। जो निर्माण के लिहाज से ही कमजोर होते हैं। ऐसे में विस्फोट इन घरों को ओर कमजोर कर रहे हैं। हिमालय की अलकनंदा नदी घाटी ज्यादा संवेदनशील है। रेल परियोजनाएं इसी नदी से सटे पहाड़ों के नीचे और ऊपर निर्माणाधीन हैं।
दरअसल उत्तराखंड के भूगोल का मानचित्र बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है। चैबीस हजार करोड़ रुपए की ऋशिकेष-कर्णप्रयाग परियोजना ने जहां विकास और बदलाव की ऊंची छलांग लगाई है, वहीं इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी हैं। उत्तराखंड के सबसे बड़ी पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। नतीजतन धमाकों के चलते 150 से ज्यादा घरों में दरारें आ गई हैं। पौड़ी जिले के मलेथा, लक्ष्मोली, स्वोत और डेवली में 771 घरों में दरारें आ चुकी हैं। रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हजार करोड़ रुपए की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं। सिलक्यारा-पोलगांव सुरंग भी इसी उद्देष्य से बनाई जा रही है। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीव पुल बनाने के लिए मजबूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं। हालांकि ये सड़कें सेना के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। सैनिकों का हिमालयी क्षेत्र में इन सड़कों के बन जाने से चीन की सीमा पर पहुंचना आसान हो गया है। लेकिन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिहाज से जो निर्माण किए जा रहे हैं, उन पर पुनर्विवार की जरूरत है। श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए पहाड़ की छाती चीरकर सुरंग बनाना समझदारी नहीं है ? इस उपाय से समय और पैसा तो बचेंगे, लेकिन पहाड़ नश्ट हो जाएंगे। अर्थात जब तेल ही नहीं रहेगा, तो दीया कैसे जलेगा ?
हिमालय में हाल ही में केन-बेतवा नदी जोड़ों अभियान की तर्ज पर उत्तराखंड में देष की पहली ऐसी परियोजना पर काम षुरू हो गया है, जिसमें हिमनद (ग्लेषियर) की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है। यदि यह परियोजना सफल हो जाती है तो पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा। हिमालय की अधिकतम ऊंचाई पर नदी जोड़ने की इस महापरियोजना का सर्वेक्षण षुरू हो गया है। इस परियोजना की विषेशता है कि पहली बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की एक नदी को कुमाऊं मंडल की नदी से जोड़कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा। यही नहीं एक बड़े भू-भाग को सिंचाई के लिए भी पानी मिलेगा। ‘जल जीवन मिषन‘ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है। लेकिन इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जिस सुरंग का निर्माण कर पानी नीचे लाया जाएगा, उसके निर्माण में हिमालय के षिखर-पहाड़ों को खोदकर सुरंगों एवं नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा जाएगा और विस्फोट से पहाड़ों को छलनी किया जाएगा। यह स्थिति हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा साबित हो सकती है ? हिमालय के लिए बांधों के निर्माण पहले से ही खतरा बनकर कई मर्तबा बाढ़, भू-स्खलन और केदरनाथ जैसी प्रलय की आपदा का कारण बन चुके हैं।
उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते आठ साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जुझेंगी।
हिमालय में धंस रहा है जोशीमठ
उत्तराखंड के चमोली जिले में आने वाले जोशीमठ शहर ने कई अप्रिय कारणों से नीति-नियंताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा जारी उपग्रह तस्वीरों से जोशीमठ को 5.4 सेंटीमीटर हिमालय के गर्भ में घंस जाने का संकेत दिया है। सिमटती धरती की इन प्रामाणिक सच्चाइयों को छिपाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और उत्तराखंड सरकार ने अंतरिक्ष एजेंसी समेत कई सरकारी संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे मीडिया के साथ जानकारी साझा न करें।
नतीजतन इसरो की बेवसाइट से धरती के धंसने के चित्र जोषीमठ हादसे के बाद हटा दिए गए थे। सरकार का यह उपाय भूलों से सबक लेने की बजाय उन पर धूल डालने जैसा है। जब हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र ने धरती को हिलाकर नाजुक बना दिया है और घरों में दरारें पड़ने के साथ आधारतल घंस रहा है, तब लोगों को जीवन-रक्षा से जुड़ी सच्चाईयों को क्यों छुपाया जा रहा है ? दरअसल भारत सरकार और राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के विपरीत जिन विकास योजनाओं को चुना है, उनके चलते यदि लोग अपने गांव और आजीविका के संसाधनों को खो रहे हैं, तो ऐसी परियोजनाएं किसलिए और किसके लिए ? अब रेल और बिजली के विकास से जुड़ी कंपनियां दावा कर रही हैं कि धरती निर्माणाधीन परियोजनाओं से नहीं धंस रही है, लेकिन किन कारणों से धंस रही है, इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के नेषनल थर्मल पाॅवर काॅर्पोरेषन जो इस क्षेत्र में तपोवन विश्णुगढ़ जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है, उसकी बिजली उत्पादक कंपनी ने पत्र लिखकर दावा किया है कि इस क्षेत्र की जमीन धंसने में उसकी परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है।