
Veg and Non Veg Abuses: गालियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
मुकेश नेमा
गालियाँ देना हमारे संस्कारों मे शामिल। ज़रूरी रिवाज। ऐसी रस्म जिसे नर्सरी जाते बच्चो से लेकर खटिया पर खाँसते बूढ़ों तक सभी पूरी ज़िम्मेदारी के साथ निभाते हैं। और फिर हमने होली जैसा त्यौहार इजाद ही इसीलिये किया हुआ है ! ताकि इस मामले मे संकोच करने वाले भी अपनी तसल्ली कर सकें।
गालियाँ मुँह पर भी दी जाती है और पीठ पीछे भी। मजबूत भी गाली देता है और कमजोर भी। पीटने वाला भी देता है और बहुत बार पिटने वाला भी।ये दुनिया की इकलौती चीज जिसे देकर आदमी खुश होता है और लेने वाला मन मार कर ,दुखी या नाराज होकर ही लेता है।
गाली सुनने आपकी गाली गलौज का कितना बुरा मानेगा ? मानेगा भी या नही ,यह इस पर निर्भर करता है कि उसने गलती की भी है या नही।की है तो वो कितनी बडी या छोटी है ? वो कौन है ,आपसे क्या रिश्ता है उसका। आपसे कितना दबता है ,दबता भी है या नही ? उसकी जेब मे कितने पैसे हैं ? ये वो वजहें हैं जो यह तय करेगी कि वो आपकी कितनी गालियाँ बर्दाश्त करेगा और कब तक करेगा। गालियाँ देने में दिक़्क़त यह कि गाली देने वाला इन सब बातों का ख्याल नही करता ,और ऐसे मे कई बार मामला उल्टा पड़ जाता है।
गालियां हैं क्या ? ये बलात ,अनाधिकार कब्जा जमाने की दमित आदिम भावना है।किसी से उसका स्वत्व ,प्रिय ,स्वाभिमान छीन लेने की धमकी है।स्वाभाविक है इनसे गालियाँ खाने वाले के अहम को चोट पहुंचती है,और यही गालियाँ देने का मकसद है।
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एक बात और दुनिया भर की सारी गालियाँ स्त्रीलिंग ही है। यह इसलिए,क्योंकि गालियाँ अमूमन कलेजा छलनी करने के लिये दी जाती हैं,ज़ाहिर है इनमें उससे ही निशाना बनाया जायेगा जिसे लेकर आपके दिल मे जगह हो ,इज्जत हो। बाप भाई को लोग वैसे ही जूते की नोक पर रखते है ऐसे में उन्हें गालियों में शामिल करना गालियों की जान निकाल जैसा ही हुआ। दुनिया का मरियल से मरियल आदमी भी जानदार गालियाँ देना चाहता है। ऐसे में गालियों मे माँ बहनों के लिये ही गुंजाईश बचती है।
गालियां मोटे तौर पर दो तरह की होती है। वेज वेज और नॉन वेज। वेज वो जो आम तौर पर सामने वाले की निजी क़ाबिलियत पर रोशनी डालती है जैसे किसी को कम-अक्ल बताने के लिए गधा या उल्लू कहा जाता है या किसी को घटिया ,मामूली या अति चापलूस बताने के लिए कुत्ता कहा जाता है। कमीना ,शोहदा या लुच्चा कह कर किसी को नीचा दिखाने वाली इस तरीके की गालियाँ बेहद मामूली क़िस्म की मानी जाती हैं और इस तरह की गालियाँ देने वालो को स्थापित गालीबाज नीची निगाह से देखते हैं।
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नॉन वेज गालियां आम तौर पर रिश्तों के बनने की वजह बताती है। ये सामने वाले से उसकी माँ और बहन से अपने सँबधो को जगज़ाहिर करती सार्वजनिक घोषणाएँ है। नॉन वेज गालियाँ ,किसी इंसान के बेहद खास और नाज़ुक रिश्तों की जिम्मेदारी उठाये बिना उनका मजा लेने की कोशिश जैसी बात है।इसे सरल शब्दो मे समझिये किसी का बाप या जीजा होने का वेवजह दावा करने की हरकत ,दुनिया के हर समाज मे गालियाँ करार दी जाती है।
हमारी धार्मिक किताबों मे भी ज़िक्र मिलता है गालियों का। महाभारत मे लिखा है कि श्रीकृष्ण भले आदमी थे। सहनशील भी थे इसलिए उन्होंने अपने एक दुश्मन रिश्तेदार शिशुपाल के लिए सौ गालियों का कोटा तय कर दिया था।एक कहासुनी के दौरान जैसे ही उसने इस लिमिट को पार किया ,श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सर काट दिया। इससे हमे यह सीख मिलती है कि किसी को भी गालियां देते वक्त उन्हे गिनते रहना चाहिये। या यह कोशिश करना चाहिए कि गाली सुनने वाले को गिनती भुला दी जाए।
समूचे उत्तर भारत मे खासकर अवधी ,भोजपुरी और बुंदेलखंडी इलाकों में जब कोई बारात आती है या शादी के बाद दूल्हा और उसके सगे खाना खाने बैठते हैं , उस वक्त ,लड़की वालों की तरफ की औरतें उन्हें गालियाँ देते हुए गाने गाती है और सुनने वाला इसके खूब मजे लेते हैं ,ये दुनिया के वो खास इलाके हैं जहाँ लोग खाने के साथ गालियाँ भी खाना चाहते हैं। हमारे बुंदेलखंडी मे तो ऐसे बुज़ुर्गवार जिसकी डिक्शनरी मे गालियों की बहुतायत हो ,जो नई नई क़िस्म की गालियाँ ईजाद करने की क़ाबिलियत रखता हो अत्यंत आदरणीय माना जाता है। उसे हर किसी को गरियाने का पूरा हक़ हासिल होता है ओर उसकी गालियों का बुरा मानने वाले को पूरा गांव नादान मान लेता है।
वैसे तो दुनिया मे कोई समाज ऐसा नही है जो गाली गलौज ना करता हो। गालियाँ देने मे पढ़ालिखा ,अनपढ़ ,करोड़पति
या सडकछाप होने से कोई भी दिक़्क़त पेश नही आती।सबके अपने अपने तरीके हैं कोई खुलकर गाली देता है कोई थोडे तमीज़ से गाली देता है। चतुर लोग बताते हैं कि कोई आदमी गालियाँ तब देता है जब उसके पास आगे बातचीत करने के लिए कायदे के तर्क नही बचते। पर बहुत से विद्वान केवल इसलिये गालियां देते है क्योकि उन्हे लगता है कि इनके इस्तेमाल के बिना वे अपनी बात मे वज़न नही ला पा रहे हैं।
गालियाँ देने के लिये यह ज़रूरी नहीं कि देने वाले का दिमाग़ या मूड ही ख़राब हो। मेरे साथ काम कर चुके एक अफ़सर पूरी ज़िंदगी साथ काम करने वालो को हँस हँस कर गालियाँ देते रहे। समझदारों ने उनकी इस हरकत का बुरा नहीं माना ,नासमझ अनमने हुए पर उनका कुछ उखाड़ नहीं सके। ऐसे मे वो गालियाँ देते ही विभाग मे आये और गालियाँ देते ही चले गये।उनके बाबत जो आखरी जानकारी मेरे पास है वो यह कि वो अब भी अपनी आदत पर कायम है और इसके बावजूद अब भी ख़ैरियत से हैं।
जब दो दोस्त ,आपस मे बातें कम करें,गाली-गलौज ज्यादा करें। एक दूसरे से उसकी मां बहनों के बारे मे अपनी राय जाहिर करें तो वो जिगरी माने जाते है। गालियाँ आत्मीयता,और प्रगाढ़ संबंधों की निशानी हैं। तू तड़ाक तो क़रीबियों के बीच ही मुमकिन है,लिहाज़ा गालियों को ,नजदीकी दोस्ती के लिए फेवीकोल भी माना जा सकता है।
गाली देने से कलेजे मे ठंडक पड़ जाती है।ये सबसे बड़ी स्ट्रेस बस्टर हैं ,इनकी वजह से सुनने वाले को थोडी बहुत परेशानी हो सकती है परन्तु इन्हे देने वाला इनकी सही इस्तेमाल करे तो उसका ब्लडप्रेशर नार्मल रहता है और वह लंबा जीता है। मेरी साफ़-सुथरी राय यह है कि गाली गलौज करने वाले ,ऐसा ना करने वालो की बनिस्बत ज्यादा व्यवहार कुशल इंसान होते हैं। यदि किसी से आपको किसी को तकलीफ हो तो उसे तबियत से गाली देने से अच्छा और कुछ नहीं। गालियाँ,प्रेशर कुकर के सेफ्टी वॉल्व जैसी चीज।ये न हों तो आदमी फट जाए। भड़ास निकालने का बेहद उम्दा जरिया हैं ये। ऐसे मे जब भी किसी पर गुस्सा हों आप ,उसे गरिया कर हल्का होना समझदारी है। ये हमें मनोरोगी होने से बचाती है और खुशमिजाज बनाए रखती हैं।
दिक़्क़त इतनी भर कि हमारा ये अच्छा लगना सामने वाले की सहनशीलता के भरोसे है। ऐसे में गालियाँ देते वक्त इतना भर ध्यान रखें कि वो आपसे जबर और तगड़ा न हो और उसने आपके लिए सौ गालियों की लिमिट न तय कर रखी हो ।
मुकेश नेमा





