चुनावी रथ पर विजय पताका के साथ जरुरी है स्वस्थ्य सुखी भारत

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भारत का लोकतंत्र हमारे घर से शुरू होता रहा है|  राम और लक्ष्मण के  बीच युद्ध के निर्णय पर भिन्न राय होती थी , श्रीकृष्ण और बलराम के भी विचारों की भिन्नता और कौरव पांडव के प्रति कई बार अलग रुख देखने को मिला| आधुनिक युग में महात्मा गाँधी के अनुयायियों में विभिन्न विचारों के लोग शामिल होते थे| मेरे अपने परिवार में एक सदस्य आर्य समाजी , तो उनकी जीवन साथी पक्की मूर्ति पूज |

एक कक्ष में यज्ञ के साथ मंत्रोच्चार और दूसरे काश में सुन्दर मूर्तियों के सामने पुरे मनोयोग से पूजा – भजन कीर्तन | इन दिनों सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में यह देखकर तक़लीफ़ होती है , जब सहमति या असहमति को घोर समर्थक अथवा विरोधी करार दिया जाता है | कम से कम कुछ राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सौहार्दपूर्ण विचार विमर्श से दूरगामी हितों और भविष्य निर्माण के लिए संयुक्त रूप से निर्णय क्यों नहीं लिए जा रहे हैं | ‘ एक देश , एक चुनाव ‘ का मुद्दा भी इसी तरह का समझा जाना चाहिए |

 इस समय पांच राज्य राज्यों के चुनाव के साथ कोरोना महामारी में संयम बरतने और हजारों करोड़ के खर्चों को लेकर बहस जारी है | यह भी कहा जाता है कि अब तो हर साल  कहीं न कहीं चुनाव होते हैं और मोदीजी हर तीसरे महीने चुनावी तेवर के साथ राज्यों में सभाएं करने लगते हैं | तब हम जैसे लोग यह बात उठाते हैं कि सभी दल संसद में प्रस्ताव पारित कर विधान सभाओं और लोक सभा के चुनाव एक साथ करने का फैसला क्यों नहीं करते |

    कोरोना की तीसरी  लहर के खतरे के बाद भी चुनावी प्रचार अभियान जारी रखने पर एक तर्क  यह दिया जाता है कि सुपर पावर अमेरिका में  भी तो महामारी के बावजूद राष्ट्रपति के चुनाव हुए | भाजपा सत्ता में है , लेकिन कांग्रेस , समाजवादी , आम आदमी पार्टी , अकाली दल , तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां भी अपने अभियान और शक्ति प्रदर्शन में कोई कसर नहीं छोड़ रही है |

सुपर पावर से तुलना के मुद्दे पर  1992 में भारत रत्न से सम्मानित होने के बाद उधोगपति और आर्थिक स्वप्नदर्शी जे आर डी टाटा द्वारा कही गई एक बात मुझे याद आती है | टाटा ने इसी समारोह में कहा था – ” एक अमेरिकी अर्थ शास्त्री की भविष्यवाणी है कि भारत अगली सदी में आर्थिक महाशक्ति बनेगा | लेकिन मैं नहीं चाहता  कि भारत आर्थिक महाशक्ति बने | मैं चाहता हूँ कि भारत एक सुखी देश बने | ” सचमुच आज सारी प्रगति , लोकतान्त्रिक सफलताओं के साथ अपेक्षा यह होनी चाहिए कि भारत स्वस्थ्य सुखी रहे |

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले एक साथ चुनाव का मुद्दा उठाया था | इसे  तो इसे केवल उनकी पार्टी के एकछत्र राज और अनंत काल तक सत्ता बानी रहने वाला मुद्दा क्यों समझा जाना चाहिए ? केवल तानाशाही अथवा कम्युनिस्ट व्यवस्था में यह संभव है |

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कोई नया मोदी मन्त्र नहीं है | संविधान निर्माताओं द्वारा स्थापित लोकतंत्र के आधार पर 1952 से 1967 तक चली आदर्श व्यवस्था को पुनः अपनाना मात्र है | ऐसा भीं नहीं कि देश में एक साथ चुनाव होने पर करोड़ों का खर्च बढ़ जायेगा अथवा क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर की पार्टी अथवा निर्दलीय उम्मीदवार नहीं जीत सकेंगे | सत्तर वर्षों का इतिहास गवाह है कि अरबपति उद्योगपति , राजा महाराजा , प्रधान मंत्री तक चुनाव हारे हैं और पंचायत स्तर तक जनता के बीच चुनकर आये बिना मंत्री और प्रधान मंत्री भी रहे हैं |

हाँ , मंडी के बिचौलियों की तरह चुनावी धंधों से हर साल करोड़ों रुपया कमाने वाले एक बड़े वर्ग को आर्थिक नुक्सान होगा | यही नहीं निरंतर चुनाव होते रहने पर अपनी आवाज और समर्थन के बल पर पार्टियों में महत्व पाने वाले नेताओं को भी घाटा उठाना पड़ेगा और किसी सदन में रहकर ही अपनी धाक जमानी पड़ेगी |

जहाँ तक खर्च की बात है राजनीतिक दलों को ही नहीं , देश के लाखों मतदाताओं – करदाताओं का का करोड़ों रुपया बच जाएगा |भारत के प्रतिष्ठित शोध संसथान सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के लोक सभा चुनाव में करीब साठ हजार करोड़ रूपये खर्च हुए | जरा सोचिये लोकसभा के पहले तीन चुनावों यानी 1952 , 1957 और 1962 में केवल दस करोड़ रूपये खर्च होते थे |

उदार  अर्थ व्यवस्था आने के बाद पार्टियों और उम्मीदवारों के पंख आकाश को छूने वाले सोने चांदी हीरे मोती से जड़े दिखने लगे | अदालतों और चुनाव आयोग ने उनके  वैधानिक चुनावी खर्च की सीमा बढाकर सत्तर लाख और विधान सभा क्षेत्र के लिए अट्ठाइस लाख रूपये कर दी , लेकिन व्यावहारिक जानकारी रखने वाले हर पक्ष को मालूम है कि पार्टी और निजी हैसियत वाले नेता लोक सभा चुनाव में पांच से दस करोड़ रूपये खर्च करने में नहीं हिचकते |

कागजी खानापूर्ति के लिए उनके चार्टर्ड अकाउंटेंट हिसाब बनाकर निर्वाचन आयोग में जमा कर देते हैं | महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े नेता ने तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया था कि लोक सभा चुनाव में आठ करोड़ खर्च हो जाते हैं | पिछले चुनाव में तमिलनाडु के कुछ उम्मीदवारों ने लगभग तीस से पचास करोड़ रूपये तक बहा दिए | आंध्र में कुछ उम्मीदवारों ने हर मतदाता को दो दो हजार रूपये दे दिए |

वहीँ चुनावी व्यवस्था करने वाले आयोग को सरकारी खजाने से करीब बारह हजार करोड़ खर्च करने पद रहे हैं | इस तरह विशेषज्ञों का आकलन है कि लोक सभा के एक निर्वाचन क्षेत्र पर औसतन एक सौ करोड़ रूपये खर्च हो जाते हैं | विधान सभा चुनावों में खर्च केवल अधिक सीटों की संख्या के अनुसार बंट जाता है | यह ठीक है कि लोक सभा के चुनाव सामान्यतः पांच साल में होते हैं , लेकिन राज्य  विधान सभाओं में अस्थिरता  की वजह से पिछले दशकों में उनके चुनावी वर्ष अलग अलग होने लगे |

नतीजा यह है कि हर तीसरे चौथे महीने किसी न किसी विधान सभा , स्थानीय नगर निगमों – पालिकाओं या पंचायतों के चुनाव होते हैं | इस तरह देश और मीडिया में ऐसा लगता है मानो पुरे साल चुनावी माहौल बना हुआ है | इसके साथ ही सरकारों पर आचार संहिता लगने से विकास खर्चों पर अंकुश और विश्राम के दरवाजे लग जाते हैं | राजनीतिक लाभ किसी को हो , सर्वाधिक नुकसान  सामान्य नागरिकों का होता है |

 नए वर्ष 2022 भारत के लिए सर्वाधिक चुनौती वाला है | विधान सभाओं के चुनाव ही नहीं राज्य सभा के चुनाव के बाद नए राष्ट्रपति का चुनाव होना है | बहुमत के बावजूद कई समझौतों और नए गठबंधन की संभावनाएं हैं | सरकार और समाज महामारी से निपटकर आर्थिक रथ को आगे धक्का लगा सके यह संकल्प भी करना होगा |

विश्व की राजनीति के रंग खेमे बदलने वाले हैं | आतंकवाद और युद्ध के खतरे कम होने के आसार नहीं दिखते |  भारत को चक्रव्यूह जैसी स्थिति  का सामना करना होगा | इसलिए मीडिया से जुड़े हम जैसे लोग यही कह सकते हैं – नव वर्ष में भारत लोकतान्त्रिक अधिकारों के साथ   अधिक स्वस्थ्य , सुखी , संपन्न और सशक्त होने की मंगलकामनाएं |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं )