महापौर को चुनेंगे मतदाता, अप्रत्यक्ष चुने गए अध्यक्षों के माथे पर चस्पा होगा खरीद-फरोख्त का खाता…!

825
मध्यप्रदेश शासन

मध्यप्रदेश में नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों की तस्वीर अब पूरी तरह साफ हो गई है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के साथ नगरीय निकाय चुनाव संपन्न होंगे, तो पंचायत चुनाव गैर दलीय व्यवस्था के तहत दलीय प्रतिबद्धताओं को संजोए हुए संपन्न होकर ही रहेंगे। नगर निगमों में महापौर का चुनाव प्रत्यक्ष तौर पर होगा। दलीय प्रत्याशी चुनाव मैदान में आमने-सामने ताल ठोकेंगे। किसमें कितना दम है, वह मतदाता फैसला कर देंगे। तो नगर पंचायत, नगर परिषदों में अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों की पसंद पर होगा। खरीद-फरोख्त के आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलेगा और सत्तापक्ष पर उंगलियां उठने की संभावनाओं को पूरी आजादी रहेगी।

फिलहाल पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा और कांग्रेस सक्रिय नजर आ रहे हैं। भाजपा ने राज्य निर्वाचन आयोग को मतदाता सूची को लेकर ज्ञापन सौंपा और आपत्ति दर्ज कराई कि प्रकाशित मतदाता सूची में से एक-एक वार्ड में पांच-पांच, छह-छह हजार नाम काट दिए गए हैं तो मांग सही कि चुनाव से पहले उनका निराकरण किया जाए। यदि मतदाता मौजूद है, तो नाम काटने की वजह बताई जाए। भाजपा के ऐतराज पर राज्य निर्वाचन आयुक्त ने पूरी गंभीरता से आपत्ति का निराकरण करने का आश्वासन दे दिया है।

वहीं, कांग्रेस ने भाजपा की इस शिकायत पर कहा है कि वह केवल चुनाव टालने के लिए यह सब कर रही है क्योंकि उसे हार का डर है। हालांकि अब यह सभी को पता है कि चुनाव टालने की कोई भी गुंजाइश बची नहीं है। नगर निगम में महापौर के प्रत्यक्ष निर्वाचन का अध्यादेश जारी हो चुका है। गजट में प्रकाशन के बाद यह प्रस्ताव राज्य निर्वाचन आयोग को भेजे जाने की औपचारिकता बाकी है।

अब तो भाजपा-कांग्रेस को चुनाव मैदान में ही एक-दूसरे शिकस्त देने की रणनीति पर अमल करने का गणित समझने का समय आ ही गया है। नहीं तो बाद में चिड़ियां खेत चुग गई की रट रटते हुए पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।

वैसे यह चुनाव सबसे ज्यादा याद किए जाएंगे तो पिछड़ा वर्ग के नाम पर। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और विपक्ष दोनों को ही ओबीसी आरक्षण के नाम पर नाकों चने चबवा दिए। कभी खुशी-कभी गम का खेल दोनों दलों ने खूब खेला है और झेला है। जीत भी आई तो किसी के भी खाते में पूरी नहीं आई और हार का नाम भी किसी के खाते में दर्ज नहीं हो पाया। हालत कुछ सांप-छछूंदर जैसी ही हो गई है अब।


Read More… Mayors Election- Government Issues Notification: महापौर का चुनाव अब प्रत्यक्ष प्रणाली से


कांग्रेस पिछड़ा वर्ग को पर्याप्त आरक्षण न मिल पाने का रोना तो रो रही है, लेकिन इसके खिलाफ कोई क्रांतिकारी कदम भी नहीं उठा पा रही। क्योंकि अब अगर चुनाव टलने की नौबत आई, तो जनता सड़कों पर दिखेगी और जिम्मेदार को सबक सिखाए बिना नहीं मानेगी। बाकी रही बात खरीद-फरोख्त की, तो मध्यप्रदेश के मतदाताओं के लिए यह शब्द कोई नया नहीं है। भाजपा की सरकार बनने और सिंधिया के समर्थकों सहित गेरुआ रंग में रंगने से लेकर 28 विधानसभा उपचुनाव तक इनका खूब बोलबाला रहा है और अब तो यह शब्द इतना पुराना हो गया है कि किसी का ध्यान भी नहीं जाता है। अगर सोते में भी उससे कहा जाए खरीद-फरोख्त तो मतदाता कहेगा कहीं और जाओ, मेरी नींद खराब मत करो।

मतदाताओं के पास भी मौका है पंच, सरपंच चुनने का, पार्षदों को चुनने का और नगर निगम महापौरों को चुनने का। महापौर के चुनाव में कड़ी परीक्षा के दौर से गुजरना है तो भाजपा को, क्योंकि इससे पहले तक सभी महापौर पदों पर कब्जा उसी का था। अब अगर एक भी जगह छिनने की नौबत आ गई, तो खोने का खौफ भाजपा को चैन से नहीं बैठने देगा। वहीं कांग्रेस बांहें ऊपर चढ़ाकर तंज कसने का कोई मौका नहीं छोड़ेगी। तो यह परिणाम विधानसभा चुनाव 2023 के लिए आत्मविश्वास से भरने का मंत्र भी बनेंगे या इस तरह से प्रचारित किए जाएंगे।

खैर भाजपा का दावा है कि वह नगरीय निकाय चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करेगी, तो कांग्रेस भी जीत के नए रिकार्ड बनाने का दावा कर रही है। गेंद तो हमेशा ही मतदाताओं के पाले में रही है, सो इस बार भी मतदाता अपनी मंशा पर मुहर लगाएगा या ईवीएम का बटन दबाएगा। और आरोप-प्रत्यारोप का दौर हमेशा की तरह अपनी जीवंत मौजूदगी दर्ज कराता रहेगा। हार का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ता रहेगा और जीत को यह कहते हुए भी कठघरे में खड़ा करता रहेगा कि मतदाता तो दूध का धुला है, पर गड़बड़ियों की जिम्मेदार सरकार है। सौ टके की एक ही बात कि नगर निगम के महापौर को सीधे मतदाता चुनेंगे, तो पार्षद-सदस्यों द्वारा चुने गए अध्यक्षों के खाते में खरीद-फरोख्त और सत्ताधारी या दबंग विपक्षी के दबाव का पुख्ता आरोप चस्पा होगा ही…।